जाहिद ख़ान
उर्दू अदब और फ़िल्मी दुनिया में असद भोपाली एक ऐसे बदक़िस्मत शायर-नग़मा निगार हैं, जिन्हें अपने काम के मुताबिक़ वह शोहरत, मान-सम्मान और मुक़ाम हासिल नहीं हुआ, जिसके कि वे हक़ीक़ी हक़दार थे। साल 1949 से लेकर साल 1990 तक यानी अपने चार दशक के लंबे फ़िल्मी करियर में उन्होंने तक़रीबन चार सौ फ़िल्मों में दो हज़ार से ज़्यादा गीत लिखे। जिसमें कि अनेक गीतों ने लोकप्रियता के नए सोपान छुए और आज भी जब रेडियो और टेलीविजन पर जब उनके गाने बजते हैं, तो दिल झूमने लगता है। असद भोपाली और उनके गीत याद आने लगते हैं।
‘‘असद को तुम नहीं पहचानते ताज्जुब है
उसे तो शहर का हर शख़्स जानता होगा।’’
10 जुलाई, 1921 को पुराने भोपाल में पैदा हुए असद भोपाली का असल नाम असदुल्लाह ख़ां था। उनके वालिद मुंशी अहमद ख़ां पेशे से एक टीचर थे और बच्चों को अरबी-फ़ारसी पढ़ाया करते थे। ज़ाहिर है कि असद भोपाली ने फ़ारसी, अरबी और उर्दू ज़बान अपने अब्बा से ही सीखी। इस हद तक कि इन ज़बानों में उन्होंने दस्तरस हासिल कर ली थी। उनके पास अल्फ़ाज़ का एक ज़ख़ीरा था, जिसे उन्होंने बाद में अपने नग़मों के अंदर जमकर इस्तेमाल किया। असद भोपाली को पढ़ने-लिखने और शायरी का शौक़ अपनी नौजवानी के दिनों से ही था। ख़ास तौर से वे ग़ालिब के कलाम के बड़े क़द्र-दाँ और मद्दाह थे। शायरों के कलाम पढ़ते-पढ़ते, वे भी शायरी करने लगे। कॉलेज में बैतबाज़ी (अंताक्षरी) मुक़ाबलों में हिस्सेदारी करते। उनकी शायरी और तिस पर सुरीली आवाज़ दोनों ही कमाल करती। यह वह दौर था, जब मुल्क अंग्रेज़ों का गुलाम था अपनी शायरी और इंक़लाबी लेखनी की वजह से असद भोपाली को ज़ेल भी जाना पड़ा। लेकिन उन्होंने शायरी से नाता नहीं तोड़ा। शायरी का जुनून कुछ ऐसा उनके सिर चढ़कर बोला कि उन्होंने मुशायरों में अपनी शिरक़त बढ़ा दी।
आहिस्ता-आहिस्ता उनकी एक पहचान बन गई और मुशायरों में उन्हें अदब से बुलाया जाने लगा। तरन्नुम में जब वे अपनी ग़ज़लें पढ़ते, तो वे सामयीन के दिलों पर गहरा असर करतीं। मुशायरे से सामयीन (श्रोता) उनके कलाम के शानदार अश्आर अपने संग साथ ले जाते। मिसाल के तौर पर उनके कुछ ऐसे ही अश्आर
न बज़्म अपनी न अपना साक़ी न शीशा अपना न जाम अपना
अगर यही है निज़ाम-ए-हस्ती तो ज़िंदगी को सलाम अपना
ऐ मौज-ए-हवादिस तुझे मालूम नहीं क्या
हम अहल-ए-मोहब्बत हैं फ़ना हो नहीं सकते।
असद भोपाली शे’र-ओ-सुख़न की महफ़िलों में रमे-जमे थे ही, मगर दिल में एक हसरत-एक तमन्ना थी कि फ़िल्मों में ग़र मौक़ा मिले, तो वे उसके लिए गाने भी लिखें। उनकी यह आरज़ू ज़ल्द ही पूरी हो गई। ’दुनिया’ असद भोपाली की पहली फ़िल्म थी। फ़िल्म के संगीतकार सी. रामचन्द्र थे। इस फ़िल्म में लिखा उनका नग़मा ‘अरमान लुटे दिल टूट गया…’ ख़ूब मक़बूल हुआ। लेकिन फ़िल्मी दुनिया में उन्हें पहचान और शोहरत निर्देशक बीआर चोपड़ा की फ़िल्म ‘अफ़साना’ के गीतों से मिली। इस फ़िल्म के सारे गाने ही मक़बूल हुए। ‘क़िस्मत बिगड़ी दुनिया बदली, फिर कौन किसी का होता है…’, ’वो आए बहारें लाए, बजी शहनाई..‘, ’वो पास भी रहकर पास नहीं..‘। ‘अफ़साना’ के गीत जितने लोकप्रिय हुए, उसके मुक़ाबले उन्हें फ़िल्मी दुनिया में काम नहीं मिला। इसकी वजह भी थे। उनके आने से पहले हिंदी सिनेमा में शकील बदायुनी, शैलेंद्र, हसरत जयपुरी, साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी, राजेन्द्र कृष्ण, प्रेम धवन, जांनिसार अख़्तर जैसे बेहतरीन नग़मा निगार मौजूद थे। सभी एक से बढ़कर एक नग़मे लिख रहे थे। उस वक़्त एक बात और थी, हर मौसिकार की किसी न किसी नग़मा निगार के साथ ऐसी ट्यूनिंग थी कि वे अपने मनपसंद नग़मा निगार के साथ ही काम करना पसंद करते थे।
संगीतकार नौशाद-शकील बदायुनी, एसडी बर्मन और रवि-साहिर लुधियानवी, शंकर जयकिशन-हसरत जयपुरी और शैलेन्द्र के अलावा दूसरे गीतकारों को कम ही मौक़ा देते थे। ज़ाहिर है कि ऐसे में असद भोपाली पर कौन तवज्जोह देता। लेकिन उनमें एक जिजीविषा थी, जो वे फ़िल्मी दुनिया में डटे रहे। इस बीच उन्हें फ़िल्म ’पारसमणी’ के गीत लिखने की पेशकश मिली। ‘पारसमणी’ एक फेंटेसी फ़िल्म थी। इस फ़िल्म के संगीत के लिए नये-नये आये संगीतकार लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल का इंतिख़ाब किया गया था। साल 1963 में जब यह फ़िल्म रिलीज हुई, तो न सिर्फ़ इसका गीत-संगीत लोकप्रिय हुआ, बल्कि गानों के ही बदौलत फ़िल्म भी सुपर-डुपर हिट हुई। फ़िल्म के सभी गाने एक से बढ़कर एक हैं और आज भी लोगों की ज़बान और यादों में ज़िंदा हैं। ख़ास तौर से ‘हँसता हुआ नूरानी चेहरा…’ और ‘वो जब याद आये, बहुत याद आये…’। ’पारसमणि’ के बाद साल 1965 में आई फ़िल्म ’हम सब उस्ताद है‘ में भी लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल और असद भोपाली की जोड़ी ने कामयाबी का वही इतिहास दोहराया। इस फिल्म के भी सभी गाने पसंद किये गए। ‘अजनबी तुम जाने पहचाने से लगते हो’, ‘प्यार बांटते चलो..’ जैसे गीतों ने संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और गीतकार असद भोपाली के नाम को मुल्क में घर-घर तक पहुंचा दिया। फ़िल्मी दुनिया ने भी अब असद भोपाली को नजरअंदाज़ करना बंद कर दिया।
बाद में असद भोपाली ने अपने ज़माने के अहम म्यूजिक डायरेक्टरों मसलन श्याम सुन्दर, हुस्नलाल-भगतराम, सी. रामचंद्र, ख़य्याम, हंसराज बहल, एन. दत्ता, नौशाद, एआर कुरैशी (मशहूर तबलानवाज़ अल्लारक्ख़ा), चित्रगुप्त, रवि, सी. अर्जुन, सोनिक ओमी, कल्याणजी-आनंदजी और हेमंत मुखर्जी के साथ काम किया। नए से नए संगीतकारों मसलन गणेश, उषा खन्ना और राम लक्ष्मण के साथ भी उन्होंने बेहतरीन काम किया। ख़ास तौर से नये संगीतकारों से उनकी बहुत अच्छी ट्यूनिंग बैठती थी। छोटे बजट और नये-नवेले अदाकारों के साथी आई फ़िल्मों में भी उन्होंने शानदार गीत लिखे। सदाबहार गाने देने के बाद भी असद भोपाली के करियर में उतार-चढ़ाव आते रहे।
अपने और अपने परिवार की गुज़र बसर के लिए, उन्हें जो काम मिला उसे पूरा किया। बस इस बात का ख़याल रखा कि कभी अपने गीतों का मेयार नहीं गिरने दिया। यही वजह है कि उनके कई सुपरहिट गीत उन फ़िल्मों के हैं, जो बॉक्स ऑफिस पर नाकामयाब रहीं। फ़िल्म भले ही नहीं चली, लेकिन उनके गाने ख़ूब लोकप्रिय हुए। असद भोपाली के ऐसे ही कुछ ना भुलाए जाने वाले गीत हैं, ‘हम तुमसे जुदा हो के, मर जायेंगे रो-रो के…’ (एक सपेरा एक लुटेरा) ‘दिल का सूना साज़ तराना ढ़ूढ़ेगा.’ (फिल्म ‘एक नारी दो रूप’), ‘आप की इनायतें आप के करम’ (वंदना), ‘ऐ मेरे दिल-ए-नादां तू ग़म से न घबराना’ (टॉवर हाउस), ‘दिल की बातें दिल ही जाने’ (रूप तेरा मस्ताना), ‘हम क़श-म-क़श-ए-ग़म से गुज़र क्यों नहीं जाते’ (फ्री लव)। इन फ़िल्मी नग़मों में शायरी के अलग ही रंग नज़र आते हैं।
‘रोशनी, धूप, चांदनी’ असद भोपाली की अदबी किताब है, जिसमें उनका कलाम यानी ग़ज़लें शामिल हैं। मुहब्बत और जुदाई के एहसास में डूबी हुई उनकी कुछ मक़बूल ग़ज़लें हैं ‘‘ज़िंदगी का हर नफ़स मम्नून है तदबीर का/वाइज़ो धोका न दो इंसान को तक़दीर का।’’, ‘‘कुछ भी हो वो अब दिल से जुदा हो नहीं सकते/हम मुजरिम-ए-तौहीन-ए-वफ़ा हो नहीं सकते/ इक आप का दर है मिरी दुनिया-ए-अक़ीदत/ये सज्दे कहीं और अदा हो नहीं सकते।’’, ‘‘जब ज़रा रात हुई और मह ओ अंजुम आए/बार-हा दिल ने ये महसूस किया तुम आए/ऐ मिरे वादा-शिकन एक न आने से तिरे/दिल को बहकाने कई तल्ख़ तवह्हुम आए।’’ कुछ फ़िल्मी दुनिया की मसरूफ़ियत, कुछ मिज़ाज का फक्कड़पन जिसकी वजह से असद भोपाली अपने अदब को किताबों के तौर पर दुनिया के सामने नहीं ला पाये। उनकी लिखी सैकड़ों नज़्में और ग़ज़लें जिस डायरी में थी, वो डायरी भी बरसात की नज़र हो गई।
इस वाक़ये का ज़िक्र उनके बेटे ग़ालिब असद भोपाली जो ख़ुद फ़िल्मी दुनिया से जुड़े हुए हैं, ने अपने एक इंटरव्यू में इस तरह से किया है,‘‘उन दिनों हम मुंबई में नालासोपारा के जिस घर में रहा करते थे, वह पहाड़ी के तल पर था। वहाँ मामूली बारिश में भी बाढ़ के हालात पैदा हो जाते थे। ऐसी ही एक बाढ़, उनकी सारी ‘ग़ालिबी’ यानी ग़ज़ल, नज़्म आदि को बहा ले गयी। तब उनकी प्रतिक्रिया, मुझे आज भी याद है। उन्होने कहा था, ‘‘जो मैं बेच सकता था मैं बेच चुका था, और जो बिक ही नहीं पाई वो वैसे भी किसी काम की नहीं थी।’’ एक शायर का अपने अदब और दुनिया का उसके जानिब रवैये को उन्होंने सिर्फ़ एक लाइन में ही बयां कर दिया था। ज़िंदगी के बारे में ऐसा फ़लसफ़ा रखने वाले इस भोपाली शायर और नग़मा निगार असद भोपाली का 9 जून, 1990 को इंतिकाल हो गया।
जिस साल उनका इंतिकाल हुआ, उसी साल उनकी फ़िल्म ‘मैंने प्यार किया’ सिनेमाघरों में रिलीज हुई। जो बॉक्स ऑफिस पर सुपर-डुपर हिट साबित हुई। इस फ़िल्म के गीत ‘कबूतर जा जा जा…’ के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड भी मिला। फ़िल्मों में एक लंबी मुद्दत गुज़ार देने के बाद, असद भोपाली को अपनी ज़िंदगी के आखिरी वक़्त में जाकर, यह अवार्ड हासिल हुआ। असद भोपाली आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन वे जब याद आतें हैं, तो बहुत याद आते हैं…”वो जुदा क्या हुए ज़िंदगी खो गई/शम्मा जलती रही रोशनी खो गई।”