प्रोफेसर मोहम्मद सज्जाद
अब तक, गांधीजी की हत्या, हत्या की साजिश, अदालती सुनवाई (ट्रायल) जैसे मख़्सूस मौज़ू’ [प्रमुख विषयों] पर कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिसमें जस्टिस जी.डी खोसला (1963), के. एल. गौबा (1969), वकील पी.एल. इनामदार (1979), जे.सी. जैन (1961), तपन घोष (1974), Dominique Lapierre and Larry Collins के _‘Freedom at Midnight’_ (1976) नामक पुस्तक में, 86 पेज का एक अध्याय–पूना के दो ब्राह्मण, ए. जी. नूरानी की किताब _‘Sawarkar & Hindutva: The Godse Connection_ (2002/2015), तुषार गांधी (2011) से लेकर कुछ और किताबें भी शामिल हैं। नाथू राम गोडसे (1910-1948) का छोटा भाई गोपाल गोडसे (जो गांधीजी की हत्या और साजिश में शामिल था), ने भी सजा पूरी करके रिहा होने के बाद क्रमशः 1989 और 1993 में दो पुस्तकें प्रकाशित की। गोपाल गोडसे का जन्म 1919 में हुआ था और उसका निधन 2005 में हुआ था।
ऐसे में सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि धीरेंद्र कुमार झा की नवीनतम पुस्तक, _‘Gandhi’s Assassin: The Making of Nathuram Godse and His Idea of India’_ को क्यों पढ़ा जाए?
इस सवाल का जवाब स्वयं लेखक धीरेंद्र झा ने यह दिया है कि उनकी किताब ने पहली बार पुख्ता गवाहों और सबूतों के आधार पर यह साबित कर दिया है कि नाथूराम गोडसे ने कभी भी आरएसएस (RSS) से अपना नाता नहीं तोड़ा, और न ही हिंदू महासभा और आरएसएस में कोई खास विरोध था। आरएसएस के संस्थापक और अन्य महत्वपूर्ण नेताओं का, हिंदू महासभा के साथ घनिष्ठ संबंध था। और गोडसे का संबंध दोनों संगठनों में गहराई से था। यह रिश्ता कभी खत्म नहीं हुआ। फाँसी पर जाने से ठीक पहले भी गोडसे ने संघ के ही प्रार्थना की चार पंक्तियाँ पढ़ी थी।
धीरेंद्र झा ने, “डी.पी. मिश्रा पेपर्स” में बारीकी से झांक कर डिप्टी एसपी, नागपुर, एन.पी. ठाकुर की वह रिपोर्ट भी देखी, जिसमें गोडसे की गिरफ्तारी के बाद उन्होंने आरएसएस हेडक्वार्टर [मुख्यालय] पर छापा मारा और कुछ दस्तावेजी काग़जात ज़ब्त किए। जिसमें गोडसे और आरएसएस के बीच कभी न खत्म होने वाला गहरा संबंध भी साफ तौर पर जाहिर होता है।
हैरानी की बात यह है कि जिन दो लेखकों ने इस झूठ की नींव रखी, कि गोडसे ने आरएसएस से नाता तोड़ लिया था, उनमें से एक तो खुद आरएसएस का सदस्य, डी.वी. केलकर था। केलकर का गहरा ताल्लुक आरएसएस प्रमुख या सर संघ चालक, के. बी. हेडगेवार के साथ निकटता से था। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि केलकर का यह लेख, एक दक्षिणपंथी पत्रिका के बजाय, एक प्रबुद्ध और वामपंथी पत्रिका, इकोनॉमिक वीकली (अब, _द इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली, यानी EPW_ ) के 4 फरवरी 1950 के अंक में छपा था। लेख में, इस बात पर जोर दिया गया कि हिंदू महासभा और आरएसएस दो अलग और अलग संगठन थे। उसी लेख के माध्यम से विनायक दामोदर सावरकर (1883-1966) को गांधी जी की हत्या की साजिश से बरी करने का भी प्रयास किया गया था। इसी तरह की भ्रामक जानकारी फैलाने वाले दूसरे लेखक, एक अमेरिकी शोधकर्ता, जे.ए. क्रान. था, जिसका संबंध अमेरिकी खुफिया एजेंसी, सीआईए (CIA) से था।
पुस्तक के अंत में दिए, लेखक धीरेंद्र झा के संक्षिप्त नोट के इतर, यदि, मानक इतिहासलेखन की दृष्टि से देखा जाए तो धीरेंद्र झा ने बहुत परिश्रम, सावधानी, और समझदारी से इन प्राथमिक स्रोतों का उपयोग, बहुत बारीकी से किया है, और पूरे इतिहास को बहुत आसान और दिलचस्प कहानी के रूप में बयान किया है। उन्होंने गद्य की सरलता और प्रवाह के लिहाज़ से, एक बड़ा और अहम (महत्वपूर्ण) काम अंजाम दिया है। इस किताब में साजिशों, उनकी नाकामियों और कामयाबियों का विवरण अच्छी तरह से प्रस्तुत किया गया है। ऐतिहासिक और सामाजिक पृष्ठभूमि को भी बहुत ही अच्छे और बसीरत-अफ़रोज़ [तार्किक] अंदाज़ से समझाया गया है।
इन प्राथमिक स्रोतों में, कई महत्वपूर्ण प्राइवेट पेपर्स, विशेष रूप से, ‘डी.पी. मिश्रा पेपर्स’, और ‘एन.बी. खरे पेपर्स’ की मदद से, कई नए व महत्वपूर्ण तथ्यों की खोज की है। इस किताब में पहली बार मराठी भाषा के कई दस्तावेजों का भी इस्तेमाल किया गया है, जिसमें गोडसे के ट्रायल से पूर्व के बयान, पेंसिल से लिखे गए 92 पृष्ठ, को भी शामिल किया है। अभी तक इतिहासकारों और शोधार्थियों ने इस महत्वपूर्ण दस्तावेज के पहले पन्ने को ही पढ़ा है, क्योंकि इस पहले पन्ने का ही अंग्रेजी अनुवाद, नेशनल आर्काइव ऑफ इंडिया [भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार] (नई दिल्ली) में उपलब्ध है। जबकि, अन्य अभियुक्तों और दोषियों के ट्रायल से पूर्व लिए गए बयानों का पूरा अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध है।
इस प्रकार, धीरेंद्र झा ने गोडसे के ट्रायल से पूर्व के बयान और मुकदमें की सुनवाई के दौरान, पढ़े गए बयानों, (जो नाथूराम गोडसे को, उन वकीलों की मदद से लिख कर दिया गया था, जो सावरकर के हामी या समर्थक थे) के बीच जो विसंगतियां है, का भी खुलासा पेश [प्रस्तुत] किया है। बल्कि, यही पहलू इस किताब का सबसे मज़बूत पक्ष है। उसी हिस्से में, धीरेंद्र झा ने गोडसे के पेश किये गए सभी जवाज़ [प्रपत्र] को बहुत ही मुदल्लल [तार्किक] तरीके से खोखला और बेबुनियाद [निराधार] साबित किया है।
धीरेंद्र झा ने आप्टे की महबूबा [प्रेमिका] मनोरमा, और मदन लाल पहवा (1927-2000) की महबूबा शिवंती, का विस्तार से उल्लेख करके, हिंदू कट्टरवाद के लिए तैयार इन दहशत गर्द क़ातिलों के नज़रियाती व नफ़सियाती [वैचारिक और मनोवैज्ञानिक] पहलुओं को नए सिरे से उजागर किया है। निश्चय ही, इन शोध और खुलासों के लिए, सबूत और सामग्री जुटाने में, धीरेंद्र झा को काफी मशक्क़त का सामना करना पड़ा होगा। आप्टे ने अपनी महबूबा मनोरमा (एक ज़हीन ईसाई छात्रा) और पंजाब के रिफ्यूजी, मदन लाल पहवा, ने अपनी महबूबा, एक खूबसूरत तवायफ़जादी, शिवंती, के साथ जो दग़ा [धोखा] किया, ये पहलू भी काबिले गौर है, कि मज़हब के नाम पर दहशत गर्दी करने वाले क़ातिल किस क़िस्म के संगदिल [हृदयहीन] लोग होते हैं। मनोरमा हमेशा के लिए रू-पोश [गायब] हो गई, जबकि शिवंती का, वेश्यालय से आज़ादी हासिल कर एक शरीफ़ और खुशहाल ज़िंदगी जीने का ख़्वाब, चकनाचूर हो गया।
धीरेंद्र झा ने बॉम्बे, अहमदनगर, पूना और उस समय के कई देशी रियासतों, जैसे, सांगली, के कई चश्मदीद गवाहों से भी इस बारे में बात की है। इनमें से कई बुजुर्ग, 1930 और 1940 के दशक में सक्रिय स्थानीय आरएसएस कार्यकर्ता भी थे। सांगली में, काशीनाथ भास्कर लिमये, आरएसएस का एक महत्वपूर्ण कार्यकर्ता था।
प्रसिद्ध सामाजिक मनोवैज्ञानिक प्रोफेसर आशीष नंदी की दो महत्वपूर्ण किताबों से इस्तिफ़ादा [फ़ायदा/लाभान्वित] करते हुए, धीरेंद्र झा ने, नाथूराम गोडसे के मनोविज्ञान पर, गहराई से विचार किया है। उनका कहना है कि इसकी नींव तभी रखी गई थी जब रामचंद्र गोडसे के माता-पिता ने किसी अंधविश्वास के कारण, उसे एक लड़की की तरह पाला था, फिर, उसका नाक छिदवाकर उसे रामचंद्र से नाथू राम बना दिया था। इस वजह से, उसे बाद में हमेशा यह चिंता रहती थी कि क्यों न एक हिंसक और “मर्दाना” कारनामा किया जाये। इसी मानसिकता के कारण वह बहुत डरपोक और सतर्क होते हुए भी क़ातिल बन गया। इस बदलाव की प्रक्रिया में, सावरकर, उसका गॉडफादर बन गया। वही सावरकर जिसने मदन लाल ढींगरा (कर्जन वायली का क़ातिल, इंग्लैंड, जुलाई 1909), से लेकर अनंत कान्हारे (नासिक के कलेक्टर, जैक्सन का क़ातिल, दिसंबर 1909; क़त्ल के लिए पिस्तौल, सावरकर ने ही दिया था), गोडसे और आप्टे तक को क़ातिल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेकिन तमाम हाई प्रोफाइल क़त्ल की साज़िश के बाद भी सावरकर खुद को महफूज़ [सुरक्षित] रखने में पूरी तरह सफल रहा। और वही सावरकर जिसने अपनी ज़िंदगी के आखिरी मरहले में एक मराठी किताब में फ़िर्क़ा-वाराना फसादात [सांप्रदायिक दंगे] और उन फसादात में मुस्लिम महिलाओं के साथ बलात्कार, को भी उकसाया। (हालांकि धीरेंद्र झा की इस किताब में, सावरकर की उस आखिरी किताब का कोई जिक्र नहीं है)।
धीरेंद्र झा को खास तौर पर, उनकी गहरी अंतर्दृष्टि, व्यापक अध्ययन, मेहनत और खोजी पत्रकारिता के कारण, एक बौद्धिक पत्रकार कहा जाना चाहिए। धीरेंद्र झा ने संक्षेप में लिखा है कि अंडमान जेल में रहते हुए सावरकर मुसलमानों के प्रति घृणा और पूर्वाग्रह का शिकार हुआ, उसने 1923 में अपनी पुस्तक ‘हिंदुत्व’ लिखी, और उसके बाद 1924 में रिहा हो गया। (उसे अंग्रेजों द्वारा पेंशन भी दी गई थी, जिसका उल्लेख धीरेंद्र झा ने नहीं किया है)। इसी किताब में सावरकर ने खुले तौर पर मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रह और नफ़रत का इज़हार किया है।
अतः सावरकर की रिहाई (कुछ शर्तों के साथ), और मुहम्मद अली जिन्ना का इंग्लैंड से, वकालत छोड़कर, फिर से राजनीति के लिए 1935 में भारत वापस आ जाना, और 1937 के बाद से मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा और आरएसएस की राजनीतिक और संगठनात्मक गतिविधियों में तेज वृद्धि और 1941 में जमात-ए-इस्लामी जैसे संगठन के गठन आदि के पीछे, ब्रिटिश साम्राज्यवादी हाथ कितना गहरा और मजबूत था, आधुनिक भारत के इतिहास के इन महत्वपूर्ण पहलुओं पर, अभी भी शोध की आवश्यकता है। उल्लेखनीय है कि सावरकर रिहा होने के बाद रत्नागिरी आ गया था, और फिर, वहीं, 18 वर्षीय नाथू राम चंद्र गोडसे भी 1929 में, सावरकर के संपर्क में आया। यह भी उल्लेखनीय है कि 10 मई 1937 से सावरकर पर ये पाबंदी भी नही रही कि वह रत्नागिरी तक ही महदूद रहेगा। याद रखिए कि 10 मई को ही, मेरठ छावनी से, 1857 के क्रांति की शुरुआत हुई थी, जिस पर सावरकर ने 1909 में एक किताब लिखी थी, जिसमें उसने हिंदू-मुस्लिम एकता को, अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति का सबसे कारगर नुस्खा बताया था।
तीसरे अध्याय में, धीरेंद्र झा ने, बंबई, पूना, नागपुर (और अन्य हिंदू रजवाड़ा रियासतों) जैसे क्षेत्रों के चितपवन ब्राह्मणों के मन में, आम तौर पर, मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रह और हिंदू फ़िर्क़ा-वाराना सोच और हिंदू वर्चस्व स्थापित करने के विचार की ऐतिहासिक और राजनीतिक निहितार्थ पर चर्चा की है। वर्तमान महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के कई क्षेत्र, हैदराबाद के निज़ाम का हिस्सा था। ऐसे में मुस्लिम शासकों के खिलाफ, हिंदू आवाम को, सांप्रदायिक आधार पर, भड़काने का काम काफी आसान हो जाता था। गोडसे की राजनीतिक गतिविधि की यात्रा में, 1938 का निज़ाम हैदराबाद विरोधी आंदोलन भी, एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर माना जाता है।
वैसे तो नागपुर में 1925 में आरएसएस के गठन के समय भी हिंदू-मुस्लिम दंगा हुआ था (जिसका उल्लेख धीरेंद्र झा ने नहीं किया है), लेकिन धीरेंद्र झा बताते हैं कि 1929 में भी, आरएसएस के बाबा राव ने स्वामी श्रद्धानंद और राजपाल के क़त्ल के इंतकाम के लिए कुछ मुस्लिम नेताओं की हत्या करने की योजना बनाई थी। महत्वपूर्ण बात यह है कि कलकत्ता के मारवाड़ी व्यापारियों ने इसके लिए हथियार उपलब्ध कराने के लिए वित्तीय सहायता की पेशकश की थी। कलकत्ता, दिल्ली और बॉम्बे पुलिस की खुफिया रिपोर्टों के आधार पर, बॉम्बे के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के पत्राचार के अनुसार, उनके निशाने पर मुहम्मद अली जौहर, डॉ मुख्तार अंसारी, अबुल कलाम आज़ाद और मुफ्ती किफ़ायतुल्लाह थे। किसी कारण से वह योजना विफल हो गई।
इसलिए, यहां पर, इस तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करना ज़रूरी है कि कलकत्ता के मारवाड़ियों द्वारा हिंदू संप्रदायों और चरमपंथियों का समर्थन भी आधुनिक भारत के इतिहास के शोध का एक महत्वपूर्ण पहलू है।
चौथे अध्याय में, धीरेंद्र झा ने, हिंदू महासभा और आरएसएस के संगठनात्मक और वैचारिक समानता के साथ-साथ दोनों संगठनों के नेताओं और समर्थकों के सामंजस्य का विस्तृत विवरण लिखा है। इसके अलावा, मराठा शिवाजी के बाद ब्राह्मण पेशवा की हुकूमत के इतिहास को याद करते हुए चितपवन ब्राह्मणों की राजनीतिक वर्चस्व के पुनरुद्धार पर ध्यान केंद्रित करते हुए, कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। इसीलिए, 1937 में अपनी रिहाई के बाद, सावरकर ने पहली बार कोल्हापुर (शिवाजी के वारिसों की सीट) और पंधरपुर (महाराष्ट्र के साधुओं का केंद्र) जैसी जगहों का दौरा किया। यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि 1932 में मैकडॉनल्ड्स अवार्ड और पूना समझौते के बाद, दलितों की राजनीतिक शक्ति बहुत बढ़ गई थी, और 1935 के अधिनियम के बाद, बंगाल और पंजाब के कुछ समृद्ध मुस्लिम किसान की कुछ आबादी को वोट देने का अधिकार भी मिल गया था। यानी, ब्राह्मणवादी वर्चस्व, अब, लड़खड़ा रहा था। टी.सी.ए. राघवन का एक शोध लेख (ईपीडब्ल्यू, अप्रैल 1983) जिसमें पंजाब और महाराष्ट्र में हो रहे इस आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन का विवरण दिया है। (धीरेंद्र झा ने इस महत्वपूर्ण लेख से फायदा नहीं उठाया है)।
1937 में आरएसएस ने हिंदू महासभा के सावरकर के लिए बड़े पैमाने पर स्वागत समारोह आयोजित किए। बी.एस मुंजे, जमुना दास मेहता, के.बी. हेडगेवार आदि ने इन कार्यों में व्यक्तिगत रुचि ली और कड़ी मेहनत की। हेडगेवार ने हिंदू महासभा के जुलूस के माध्यम से ही आरएसएस का विस्तार किया। इसके लिए, झा ने, सावरकर की डायरी और एक लेखन संग्रह (1941) से भी इस्तिफ़ादा किया है।
दिसंबर 1948 में, राजेंद्र प्रसाद ने पटेल को एक पत्र लिखकर आरएसएस को एक फासीवादी संगठन बताया था। इसी आधार पर, झा ने आरएसएस को हिंदू महासभा से जुड़ा ऐसा संगठन बताया है जो अपने सदस्यों, बैठक के प्रस्तावों और आय-व्यय का कोई रजिस्टर या लिखित रिकॉर्ड नहीं रखता है। यह सब कुछ उनका खूफिया [गुप्त] ही रहता है। 1939 के बाद से, दोनों संगठनों ने संयुक्त रूप से सैन्य संगठन बनाना शुरू किया। मुंजे ने नासिक में ‘भोंसला मिलिट्री स्कूल’ की भी स्थापना की। गोडसे को, इस तरह के काम से, भावनात्मक रूप से, सुकून मिलता था।
फरवरी 1938 के बाद, नारायण दत्तात्रेय आप्टे भी सावरकर का महत्वपूर्ण अनुयायी बन गया था। तब वह मात्र पच्चीस वर्ष का एक नौजवान था। उसी ने अहमदनगर, पूना, सतारा, शोलापुर, चालीसगाँव, जलगाँव, डोंबिवली जैसे स्थानों पर ‘राइफल क्लब’ स्थापित किए और सावरकर को इस बारे में बराबर सूचित भी करता रहा। इसका ताल्लुक सांगली रियासत के एक गाँव से था, जो अहमदनगर के अमेरिकन क्रिश्चियन मिशनरी स्कूल में गणित का एक शिक्षक था। वह भी चितपवन ब्राह्मण था, और पूना के फर्ग्यूसन कॉलेज से विज्ञान स्नातक भी था। यह पेशवा राज्य को फिर से स्थापित करने को लालायित था।
1942 में, जब आज़ादी के मतवाले भारत छोड़ो आंदोलन के बाद जेल जा रहे थे, तब, आरएसएस और हिंदू महासभा के संयुक्त प्रयास से पूना में हिंदू राष्ट्र दल (एच.आर.डी.) की स्थापना की जा रही थी। गोडसे और आप्टे इसके प्रमुख सदस्य थे। गोडसे ने तब से, अपेक्षाकृत, अधिक राजनीतिक ख्याति प्राप्त की। 1943 में अहमदनगर में, एच.आर.डी. की दूसरी वार्षिक बैठक हुई। हालांकि, धीरेंद्र झा ने यह सवाल नहीं उठाया है लेकिन यह उल्लेखनीय है कि 1943 में, अहमदनगर किले में ही जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आजाद, जे.बी कृपलानी, सैयद महमूद, आचार्य नरेंद्र देव, जैसे सुरमाओं को भी कैद किया गया था।
एचआरडी (1943) के अहमदनगर बैठक में ही, यह निर्णय लिया गया था कि मैट्रिक फेल, गोडसे, भी, एक समाचार पत्र प्रकाशित करेगा। अख़बार का विचार सावरकर का था, उसके गिरोह ने उसे ही सरबराही सौंपा, लेकिन सावरकर ने हमेशा हर तरह के रिस्क या ख़तरे के लिए अपने किसी अनुयाई को ही आगे रखाता था। इस ख़तरे के लिए उसका शागिर्द [शिष्य], गोडसे, चुना गया था। शायद, यह बात कभी-कभी गोडसे को परेशान भी करता था। अखबार था “अग्रणी” (25 मार्च 1944)। बाद में इसका नाम बदलकर “हिंदू राष्ट्र” कर दिया गया।
गौरतलब है कि हिंदू और मुस्लिम फ़िर्क़ा-वाराना ताकतें तेज़ी से आगे बढ़ रही थी, जब क़ौमी जद्दोजेहद [राष्ट्रीय संघर्ष] के रहनुमाओं को भारत छोड़ो आंदोलन के लिए जेल में डाल दिया गया था।
यह वह समय था जब देशी रियासतें भी फ़िर्क़ा-वाराना ताकतों का समर्थन कर रही थीं। सांगली रियासत में आरएसएस सबसे ताक़तवर हो रही थी। आगे चलकर, अक्टूबर 1946 में, जुगल किशोर बिड़ला ने, अग्रणी अख़बार को 1000 रूपये का चंदा भी दिया, और बाद में आरएसएस व हिंदू महासभा के कार्यकर्ता को स्टील हेलमेट भी प्रदान किया। अब सवाल यह है कि अंग्रेजों से न लड़ने वाली हिंदू फ़िर्क़ा परस्त तंजीम [सांप्रदायिक संगठन] 1947 में किसके लिए सैन्य प्रशिक्षण और स्टील हेलमेट की व्यवस्था कर रहा था?
यह वह दौर था जब बंगाल हिंदू सभा के एन.सी चटर्जी (सोमनाथ चटर्जी के पिता) का एख्तलाफ [मतभेद] हो गया था, महाराष्ट्र की हिंदू सभा के साथ। एन.सी चटर्जी चाहते थे कि हिंदू महासभा भी राष्ट्रीय शक्तियों के साथ भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हो। यह वह समय भी था, जब, बंगाल मुस्लिम लीग और हिंदू सभा का मुश्तर्का विजारत [गठबंधन/संयुक्त मंत्रालय] क़ायम हुआ था, और श्यामा प्रसाद मुखर्जी बंगाल के वित्त मंत्री थे, जबकि अबुल कासिम फज़लुल्हक़ मुख्यमंत्री थे।
हालांकि, 1943 के बाद, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के विभिन्न देशी रियासतों में, आरएसएस और हिंदू सभा तेजी से फैल गई। उनके सैन्य प्रशिक्षण शिविर भी तेजी से बढ़ने लगे। जुलाई 1944 में पंचगनी में, आप्टे ने, गांधीजी का विरोध किया क्योंकि गांधीजी ने जिन्ना को एक ख़त लिखा था, और राजगोपाल आचार्य और जिन्ना के बीच एक फार्मूला तैयार किया गया था। गांधी जी ने इसका समर्थन कर दिया था।
बिड़ला की वित्तीय सहायता से चलने वाली ‘अग्रणी’ अखबार का संपादक, गोडसे, जनवरी 1948 में बिड़ला हाउस, दिल्ली में, गांधी जी का क़त्ल भी कर देगा। इससे पहले, नवंबर 1946 से मार्च 1947 तक, बंगाल और बिहार में सांप्रदायिक दंगों के खिलाफ गांधीजी के अभियान के जवाब में, गांधी के खिलाफ घृणित लेख और संपादकीय ‘अग्रणी’ अखबार में प्रकाशित होते रहे।
नेहरू के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार में, हिंदू महासभा के शामिल होने के विरोध में, गोडसे ने खुद हिंदू महासभा के एक नेता पर चाकू से हमला किया था। यह घटना दिसंबर 1946 में हिंदू महासभा की वार्षिक बैठक में हुई थी। जबकि सिंध प्रांत में हिंदू महासभा और मुसलिम लीग के गठबंधन की विज़ारत क़ायम थी।
इन महत्वपूर्ण विवरणों के इतर, धीरेंद्र झा ने, गांधीजी की हत्या की साजिश में शामिल प्रत्येक व्यक्ति और उनके मनोविज्ञान पर बारीकी से गौर व फिक्र किया है। हथियार आपूर्तिकर्ता, दिगांबर रामचंद्र बाडगे, एक अमीर पुजारी दादा (श्री कृष्ण) जी महाराज, उनके भाई, आदि से भी संबंधित विवरण को सरलता से पेश किया है। आप्टे ने, कई बार, दादा महाराज से पैसे भी ठग लिए, इस वादे के साथ कि वह जिन्ना की हत्या कर देगा, कभी इस नाम पर कि वह निज़ाम हैदराबाद का कोई नुकसान कर देगा, कभी इस नाम पर कि वह पाकिस्तान की कंसटिचुएंट असेंबली (दिल्ली) को बम से उड़ा देगा, या पाकिस्तान जाने वाली ट्रेन में बम धमाका कर देगा।
आप्टे की फांसी (15 नवंबर 1949) के बाद, उनकी पत्नी और दस साल के बेटे के साथ क्या हुआ, उस पर लेखक धीरेंद्र झा ने पूरी तरह से खामोशी अख्तयार कर लिया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस किताब के अगले इज़ाफा शुदा एडिशन [विस्तारित संस्करण] में, ऐसे तिशना [जिज्ञासु] पहलुओं पर भी प्रकाश डालने का प्रयास होगा। इससे भी ज्यादा , इस बात की, इस बात की उम्मीद की जानी चाहिए कि इज़ाफा शुदा एडिशन में “आफ्टर लाइफ ऑफ गोडसे एंड हिज आइडियोलॉजी” जैसा कोई अध्याय, जोड़ा जाना चाहिए। (अप्पु ऐसथोस सुरेश और प्रियंका राजू की किताब में ऐसा अध्याय है। )
इसके अलावा, अगले एडिशन में, कुछ और प्रश्नों पर भी चर्चा करने की आवश्यकता है, उदाहरण के लिए, 20 जनवरी, 1948 की हत्या की साजिश के विफल होने के बावजूद, दस दिन बाद, ये लोग कैसे सफल हुए? 20 जनवरी से पहले और 30 जनवरी के बीच, सरकारी खुफिया विभाग इतने शर्मनाक तरीके से कैसे विफल हो गया? क्या 20 जनवरी की नाकामी के बाद भी गोडसे और आप्टे, सावरकर से मिले थे? या किसी और तरीक़े से उन लोगों के बीच राब्ता [संबंध] क़ायम हुआ था? भारत सरकार ने, सावरकर के खिलाफ अपील कोर्ट जाने से क्यों परहेज किया? ऐसे कुछ सवालों को डोमिनिक लैपीअर्र और लैरी कॉलिन्स ने भी अपनी किताब _‘फ्रीडम एट मिडनाइट’_ (1976) में उठाया है।
गौरतलब है कि गोडसे और आप्टे की मुलाकात 14 या 15 जनवरी 1948 और फिर 23 जनवरी को भी सावरकर से हुई थी। इसके गवाहों में से एक, प्रसिद्ध मराठी फिल्म अभिनेत्री, शांता बाई मोदक थी। इसके अलावा circumstantial evidence भी थे। जिसकी सहायता से विशिष्ट नियम-कायदों के साथ अदालत तक अपराधी को पहुँचाने का काम कर दिया जाता है। (ए. जी. नूरानी ने अपनी किताब _‘Sawarkar & Hindutva: The Godse Connection_ (2002/2015) और पवन कुलकर्णी ने अपने कॉलम ( _The Wire.In_ , 29 मई 2017) में इन पहलुओं का ज़िक्र किया है)।
हथियार आपूर्तिकर्ता बाडगे ने भी इसकी गवाही दी थी। सावरकर ने अदालत में अपने बचाव में जो कुछ भी कहा, सभी तर्क बहुत कमजोर थे। रॉबर्ट पायने की किताब, _‘द लाइफ एंड डेथ ऑफ महात्मा गांधी’_ (1997) के अध्याय क्रमशः _The Murderers_ और _The Vedict of the Court_ में इसको अच्छी तरह से प्रस्तुत किया है। हालांकि, सावरकर की मौत के बाद, जीवन लाल कपूर आयोग की रिपोर्ट (1969) में, सावरकर को मुजरिम क़रार दिया गया था।
एक सवाल यह भी है कि बॉम्बे के तत्कालीन गृह मंत्री, मोरारजी देसाई ने, पुलिस को, सावरकर को गिरफ्तार करने की अनुमति क्यों नहीं दी। पुलिस को सिर्फ घर की तलाशी लेने की इजाजत थी। और यह बात भी सावरकर को पहले से मालूम थी कि केवल घर की तलाशी की ही पुलिस को इजाज़त है। यह भी उल्लेखनीय है कि मोरारजी देसाई ने खुद अपनी आत्मकथा (1974) के पहले खंड में, गोडसे के साथ कुछ संबंध होने की बात स्वीकार की है। जब गोडसे से मुतल्लिक दस्तावेज़ डीक्लासिफाई होकर, सार्वजनिक किया गया था (1979) उस समय देश के प्रधान मंत्री मोरारजी देसाई ही थे। तब उनके गठबंधन सहयोगी जन संघ भी सरकार में थी। दूसरी बार, जब जन संघ की अवतार बीजेपी सत्ता में आई, तो सावरकर का एक फोटो, 2003 में, संसद में चस्पां कर दिया गया।
समीक्षाधीन दूसरी पुस्तक, _‘The Murderer, The Monarch and The Fakir: A New Investigation of Mahatma Gandhi’s Assassination’_ भी दो पत्रकारों के शोध और खोजबीन का नतीजा है। यह किताब देशी रियासत, अलवर और ग्वालियर के डाक्टर परचूरे (जिस के इतालवी पिस्तौल से गांधीजी की हत्या की गई) की आपराधिक भूमिका पर प्रकाश डालती है। अलवर के प्रधानमंत्री एन.बी खरे की आपराधिक भूमिका बहुत स्पष्ट थी। अलवर का एक साधु तो गांधीजी की हत्या के दो घंटे पहले ही मिठाई बांट चुका था। यह साधु भी हत्या पूर्व साज़िश का हिस्सा था। गौरतलब है कि राजस्थान के भरतपुर और अलवर में बड़े पैमाने पर मेवाती ग़रीब मुसलमानों का 1947 में नरसंहार किया गया था। इसका विवरण इतिहासकार, शैल मायाराम की किताब (Resisting Regimes, 1997) में दर्ज है। इस किताब में एक अहम बात यह रखी गई है कि क़त्ल के साजिश की तफ्तीश में सिर्फ जनवरी 1948 को ही ध्यान में रखा गया था, जबकि लेखकों के मुताबिक, यह साज़िश, आज़ादी से एक सप्ताह पहले, यानी, 8 अगस्त, 1947 से ही शुरू हो गई थी, जब सावरकर, आप्टे और गोडसे ने एक ही विमान से बॉम्बे से दिल्ली के लिए उड़ान भरी, और हिंदू महासभा की बैठक में शामिल हुए । डाक्टर परचूरे भी शामिल हुआ। पूना के एक पुलिस स्टेशन से अप्पो एस्थोश सुरेश और प्रियंका कोटम राजू ने ये सबूत हासिल किए।
इस किताब ने यह भी बताया है कि दिल्ली और बंबई की महासभा आपसी तालमेल के साथ साजिश में शामिल थी। कुल मिलाकर, इस पुस्तक का प्रस्तावना, पहला अध्याय और एपिलॉग महत्वपूर्ण हैं। पुस्तक का बड़ा हिस्सा डायरी की शकल में भी है। कुल मिलाकर धीरेंद्र झा की यह किताब बहुत महत्वपूर्ण है। ऐसी उम्दा किताब लिखने के लिए लेखक को बधाई दी जानी चाहिए।
समीक्षा लेख: प्रोफेसर मोहम्मद सज्जाद
हिंदी अनुवाद: नूरूज्ज़मा अरशद