प्रेमकुमार मणि
सुना है ‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म ने दो सौ करोड़ से अधिक का मुनाफा कमा लिया है। कमाल की फिल्म है जो सिनेमा घरों से हटने का नाम नहीं ले रही है। मुझे हिंदुस्तानी लोगों की पसंद पर दया आती है। फिल्में बहुत कम देखता हूँ। रूचि नहीं है। लेकिन, यह फिल्म तो एक घटना की तरह है, इसलिए सोचा कि देख लूँ। ट्रेलर देख कर ही सन्न रह गया। हिंसक दृश्य मुझसे नहीं देखे जाते। किसी फिल्म में यूँ भी जब हद से अधिक खून खराबा होता है, किसी के मुंह से खून की उल्टी होने का कोई दृश्य आता है, तब मैं आँखें मूँद लेता हूँ। जो भी मुझे कह लें, लेकिन इतने वीभत्स दृश्यों को देखने की ‘वीरता’ मुझमें नहीं है। मुझे कमजोर दिल का कह सकते हैं।
आज एक यूट्यूब चैनल पर उपरोक्त फिल्म के लेखक -निर्माता विवेक अग्निहोत्री और अदाकारा पल्लवी जोशी का इंटरव्यू सुना। तब मुझे अनुभव हुआ इस विषय पर लिखा जाना चाहिए। क्योंकि इकतरफा बकवास की जा रही है। कश्मीर पर अनेक लोगों की तरह मेरी भी दिलचस्पी है। अभी हाल में कल्हण की किताब ‘राजतरंगिणी ‘ पर दो लेख लिखे हैं। वह मेरी प्रिय किताबों में है, जिसे जब- तब देखता रहता हूँ। पांच हजार सालों का कश्मीरी इतिहास वहां क्रमबद्ध रूप से आपको मिल जाएगा। महा भारत कालीन गोनंद से लेकर बारहवीं सदी के जय सिंह तक का इतिहास। वितस्ता (झेलम) के किनारे बसे नगरों और गाँवों में हजारों साल से केसर और कवि पैदा होते रहे हैं। कभी कश्मीर नहीं गया हूँ लेकिन उसके पाँचों हिस्सों (बालटिस्तान, गिलगित, जम्मू, कश्मीर और लद्दाख) पर कुछ -कुछ बोल सकता हूँ। राजतरंगिणी के आठों तरंग में किस राजा का कहाँ उल्लेख है बता सकता हूँ। शाही स्त्रियों, यशोमति, सुगंधा, लल्ला और दिद्दा। पर एक-एक लेक्चर तो दे ही सकता हूँ। सच कहता हूँ, अग्निहोत्री पर मुझे दया आ रही थी। फिल्म की सफलता से उनमें बड़बोलेपन का बुखार झलक रहा था। प्रधानमंत्री से अपनी मुलाकात का वर्णन वह मुग्ध भाव से कर रहे थे। कोई कलाकार जब सत्ता या किसी पॉलिटिकल पार्टी के अनुकूल हो जाय तो यह उसकी विशिष्टता नहीं कमजोरी कही जाएगी। प्रधानमंत्री की पार्टी है और उनकी मुहर बता रही है कि यह फिल्म उनके दल की मदद कर रही है।
1990 की सच्ची घटनाओं पर आधारित फिल्म है। क्या कला का उद्देश्य सच का आख्यान करना भर है? मैं आपके हिंदुत्व के गणित से ही बात करता हूँ। हमारा भारतीय काव्य शास्त्र सत्यं शिवम् सुंदरम की उद्घोषणा करता है। जोर सत्य पर नहीं, सुन्दर पर है। सुन्दर वह जिसमें सत्य और शिव (कल्याण भाव) हो। केवल सच नहीं चलेगा। सच तो ब्रह्म है। उसकी पूजा नहीं होती। आपके शंकर भी जगत के ही गुरु हुए। जगत उनके सिद्धांत रूप में मिथ्या है। असत्य है। लेकिन हमें जगत में रहना है। ब्रह्मलीन नहीं होना है। नीति यही कहती है न ब्रूयात सत्यं अप्रियं। अप्रिय सच मत बोलो। अन्यथा हर ब्लू फिल्म सत्य का हवाला देकर अपना औचित्य सिद्ध करेगी।
सत्य बहुत हैं मिस्टर अग्निहोत्री! भारतीय फ़ौज-फाटे के भी सत्य हैं। (लगभग दस लाख फ़ौज वहां पडी है, हर सात आदमी पर एक फ़ौज। ऐसे में क्या -क्या हो सकता है कोई भी अनुमान कर सकता है।) दूसरों के भी सत्य हैं। हमारे बिहार में एक खूनी सेना ने जाने कितने दलितों की हत्या की। कोर्ट का जज और मुजरिम एक ही जात- जमात के गवाह मुजरिम को कोर्ट में पहचान रहा है, जज लिखता है नहीं पहचान रहा है। सभी अपराधी बाइज्जत बरी हो जाते हैं। संख्या बतलाऊँ कश्मीर में जितने पंडित मारे गए उससे कहीं अधिक दलित हमारे बिहार में मारे गए। और सच तो दिल्ली के सिख विरोधी जनसंहार या गोधरा के जनसंहार में भी है। कितने सच चाहिए आपको?
कहीं भी हिंसा हो, मुझे दुःख होता है। कश्मीरी पंडितों के दुःख को समझता हूँ। उनपर जुल्म हुआ है। गोधरा में हिन्दू ट्रेन में जलाए गए या मुसलमान प्रायोजित दंगे में मारे गए सब गलत है। हिंसा से कोई समाज नहीं बन सकता। भारत कोई छोटा देश नहीं है। कई नस्लों -प्रजातियों, धर्मों ,संस्कृतियों और विचारों के लोग यहां रहते हैं। हमें लोकतंत्र की ऐसी रागिनी बनानी है जिसमें सारे सुर, सारे रंग शामिल हो सकें। एक दूसरे को समझने की कोशिश हमें करनी ही होगी। घटनाओं, इतिहास और पुराणों की सच्चाइयां निकाल कर रखने से मुश्किलें बढ़ सकती हैं। गड़े मुर्दे निकलने से केवल बदबू हासिल होगी। सच्चाई इस तरह रखिए कि एक समझ विकसित हो कि ऐसे झगड़ों से जीवन नहीं बनेगा। जाति के झगडे हों या मजहब के या कि वाजिब अधिकारों के उन्हें लोकतान्त्रिक तरीकों से ही लड़ा जाना चाहिए।
कश्मीर का इतिहास बहुत कुछ ओझल रखा गया है। राजनेताओं को भी कुछ नहीं पता है। 1990 की घटनाएं केवल यही बताती हैं कि वीपी सिंह द्वारा मुफ्ती मोहम्मद सईद को होम मिनिस्टर बनाने का फैसला बिलकुल गलत था। लेकिन उस सरकार की भागीदार तो बीजेपी भी थी। दिसम्बर 1989 में रुबिआ सईद के अपहरण के ड्रामे के बाद पांच आतंकियों को जेल से रिहा किया गया। यह गलत था। अप्रैल 1990 में जब कवि सर्वानंद कॉल की हत्या हुई थी या जून में शिक्षिका गिरिजा टिक्कू का बलात्कार के बाद दो हिस्सों में काट देने वाली लोमहर्षक घटना हुई थी, सब मेरे जेहन में बनी हुई है। इसके लिए मुझे फिल्म नहीं देखनी। मैं फिर कहना चाहूंगा यह सब बहुत बुरा हुआ। मैं दिल से यही चाहूंगा कि कश्मीर में अमन लौटे। केसर की क्यारियों और कवियों का देस संसार की सबसे खूबसूरत जगह है। वह फिर से खूबसूरत बने।
लेकिन हमें पंडितों से भी कहना है। जैसे कल्हण ने ईमानदारी से अपने देस का इतिहास लिखा आप भी लिखें कि आपने कौन-कौन सी गलतियां की। राजाओं के दिए अग्रहारों (पंडितों को दिए गए गए ऐसे गाँव जिनसे कोई टैक्स राजा नहीं लेते थे) पर परजीवी की तरह पलने की आपको आदत लग चुकी है। शेख अब्दुल्ला ने जब ज़मींदारी खत्म की तब आरामतलब पंडित बिलबिला गए। (ज़मीन के मालिक पंडित थे और खेत जोतने वाले मुसलमान। मालिकमजदूर का झगड़ा था) नेहरू राज में भारत भर के मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों में कश्मीरी शरणार्थियों केलिए कोटा हुआ करता था। इसका लाभ उन्हें मिलता रहा। लगभग एक करोड़ की आबादी में मुश्किल से एक से डेढ़ लाख पंडित हैं। लगभग नब्बे हजार पलायन कर गए। 1990 में लगभग सौ लोगों की हत्या हुई थी। हाय-तौबा ऐसी मचाई कि दुनिया हिल गई। रामराज में एक पंडित की मौत हुई तब पंडितों ने धरना दे दिया कि शम्बूक को मारो तभी हमारी रक्षा होगी। कश्मीरी पंडितो को इस मनोदशा से बाहर निकलना होगा। शम्बूक के साथ ही जीने की आदत बनानी होगी। कश्मीर में जो भी मुसलमान हैं कुछ सौ साल पहले तक हिन्दू थे। वे क्यों मुसलमान बने। क्या इसमें पंडितों की कोई भूमिका नहीं थी? इन सब पर भी सोचें।
लेकिन, पूरे भारत के लोग भारत को मजबूत और सुखी बनाने पर सोचें। ऐसी भड़काऊ फिल्मों का बहिष्कार करें। इन से अर्जित रकम को सरकार अपने अधिकार में ले और उसे कश्मीर के उत्पीड़तों के पुनर्वास पर खर्च करे।