प्रियदर्शन का लेखः यूपी को बचाना है तो मुलायम-कांशीराम के वारिसों को मिलना होगा

6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद जब यूपी में बीजेपी की आक्रामक राजनीति अपने चरम पर थी, तब अचानक बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ने एक साथ आने की घोषणा कर पूरी राजनीति पलट दी। भारतीय राजनीति में पहली बार दलित और पिछड़े साथ आ रहे थे। तब यह नारा बहुत लोकप्रिय हुआ था कि ‘मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम।’ वाकई इस गठजोड़ ने बीजेपी के मंसूबों को झटका देते हुए यूपी में सरकार बना ली। यह अलग बात है कि आने वाले वर्षों में सपा-बसपा बड़े फूहड़ ढंग से आपस में लड़ते हुए अलग हुए और कल्याण सिंह को नए सिरे से सेंधमारी का अवसर मिला। लेकिन इसके बावजूद 15 बरस तक बीजेपी अपने दम पर सत्ता में नहीं आ सकी। 2007 में जनता ने मायावती को पूर्ण बहुमत दिया तो 2012 में अखिलेश यादव को।

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लेकिन 18 साल बाद अब बीएसपी मंदिर बनाने का वादा कर रही है तो समाजवादी पार्टी ब्राह्मण सम्मेलन कराने जा रही है। जाहिर है, जय श्रीराम के नाम पर की जाने वाली जिस राजनीति को ये हवा में उड़ाने निकले थे, उसने इन्हें ज़मीन सूंघने पर मजबूर कर दिया। लेकिन क्या यह बदली हुई रणनीति इन पार्टियों के काम आएगी? दोनों दलों को लग रहा है कि अपने पारंपरिक जनाधार के अलावा अगर उन्हें ब्राह्मणों का समर्थन मिल जाए तो वे बीजेपी को पटखनी देने में कामयाब होंगी। मगर यूपी के ब्राह्मण क्या इतने भोले हैं कि वे मायावती के लेफ्टिनेंट सतीश मिश्रा के आह्वान पर रीझ कर या सपा के ब्राह्मण सम्मेलन पर मोहित होकर अपना घर छोड़कर इनके आंगन में चले आएंगे? अगर वे अजय सिंह बिष्ट- यानी यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से नाराज़ भी हैं तो अधिकतम वे बीजेपी के भीतर रह कर ही इसका हल खोजेंगे। बीजेपी अभी से उनका दुख दूर करने में जुट गई है। कांग्रेस के जितिन प्रसाद को बीजेपी में शामिल करने के पीछे एक दृष्टि ब्राह्मणों को ख़ुश करने की भी रही है। तो ख़तरा यह है कि ब्राह्मण वोटों के दावेदार नेता समर्थन के नाम पर सपा-बसपा दोनों से ठीकठाक क़ीमत वसूल लें और फिर अपने घर भी लौट जाएं।

दरअसल मायावती को लग रहा है कि 2007 का बहुमत उन्हें ब्राह्मणों के बूते मिला। यह सच है कि उन दिनों ‘हाथी बढ़ता जाएगा, ब्राह्मण शंख बजाएगा’ जैसे नारे लगे थे और मायावती ने ब्राह्मणों को टिकट भी भरपूर दिया था। लेकिन तब के और अब के हालात अलग हैं। तब हिंदूवादी राजनीति की लहर कमज़ोर पड़ चुकी थी और ब्राह्मणों को एहसास था कि सत्ता में हिस्सेदारी के लिए उन्हें किसी और का हाथ थामना होगा। लेकिन जब मंदिर बनाने का आदेश आ चुका है, मंदिर निर्माण के नाम पर चंदा वसूला जा चुका है और हिंदुत्व की लहर नई आक्रामकता के साथ अपनी दावेदारी पेश कर रही है, तब यह ख़याल बहुत दूर की कौड़ी है कि ब्राह्मण यह मान लेंगे कि बसपा ही मंदिर बनवा पाएगी या सपा ब्राह्मणों का सम्मान करेगी।

हालांकि कहा जा सकता है कि जब जातिगत पहचानों के आधार पर संसदीय राजनीति में वोटबंदी हो रही है तो बसपा या सपा को अपने जनाधार को फैलाने का हक़ क्यों न हो? अगर वे ब्राह्मण सम्मेलन करने या सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुमोदित राम मंदिर बनाने का वादा कर रहे हैं तो इसमें गलत क्या है। आख़िर बसपा पहले भी बीजेपी से तालमेल करती रही है।

लेकिन पहले और अब के तालमेल में अंतर है। कांशीराम इस बात को लेकर बेहद स्पष्ट थे कि वे जिससे भी समझौता करें, बसपा की पहचान से समझौता नहीं करेंगे। उन्हीं में यह दमखम था कि कांग्रेस और बीजेपी को सांपनाथ और नागनाथ बताते हुए भी वे इनसे हाथ मिलाएं। क्योंकि उन्हें वह हर समझौता स्वीकार्य था जो बसपा को सत्ता के क़रीब लाता हो। उन्हें मालूम था कि सत्ता मिलेगी तो दलितों को उनकी हैसियत मिलेगी। यह उनकी राजनीति का ही प्रतिफलन था कि उनके निधन के बाद ही सही- लेकिन मायावती देश के सबसे बड़े सूबे की मुख्यमंत्री बन पाईं। यह अलग बात है कि यूपी के पार्कों में अपनी ही मूर्तियां लगवाने का नादानी भरा फ़ैसला उनको महंगा पड़ा जिसकी एवज में उन्हें अपनी सत्ता गंवानी पड़ी। आखिर जो लोग दलितों की छाया से बचते थे, वे पार्क में उनकी मूर्तियां कैसे सहन कर पाते?

समाजवादी पार्टी के साथ भी यही बात कही जा सकती है। मुलायम सिंह यादव तमाम आरोपों के बावजूद अपनी तरह के खांटी समाजवादी रहे। बेशक, उनके मुख्यमंत्रित्व के उत्तर काल में सपा भी कभी सितारों और कभी सरमायादारों की गोद में बैठती दिखी जहां से उसके पतन की शुरुआत हुई। 2012 में लेकिन अखिलेश यादव को मिला जनादेश एक नई शुरुआत की उम्मीद का जनादेश था। अगले पांच साल में वह क्यों बिखर गया, इसकी पड़ताल अलग से होनी चाहिए।

लेकिन अगर माया-अखिलेश यह सोच रहे हों कि मंदिर और ब्राह्मणों का आह्वान करके बीजेपी को रोक लेंगे तो वे अपने साथ भी धोखा कर रहे हैं और अपने मुद्दों के साथ भी। यह सच है कि फिलहाल योगी सरकार के विरुद्ध यूपी में गहरा असंतोष है। ख़ास कर कोविड के दौर में सरकार की जिस तरह नाकामी सामने आई, उससे सब नाराज़ हैं। ख़ुद बीजेपी के भीतर एक तबके में ये एहसास है कि लोगों में सरकार से नाराज़गी है। मगर यह नाराज़गी किन्हीं नुस्खों से वोट में नहीं बदलेगी- अतीत के अनुभव इसकी पुष्टि करते हैं।

दरअसल जब भी कोई राजनीतिक दल अपनी मूल प्रवृत्ति से जाकर किसी राजनीतिक दबाव में कोई फ़ैसला करता है तो उसे अमूमन सार्वजनिक स्वीकृति नहीं मिलती। 1980 में गांधीवादी समाजवाद की बात करने वाली बीजेपी 1984 में बुरी तरह पिट गई। बंगाल में दशकों से राज कर रहा लेफ्ट जब सिंगुर का कारख़ाना और नदीग्राम का हब बनवाने लगा तो उसकी अर्थी उठ गई। शाह बानो केस के बाद मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप झेल रहे राजीव गांधी जब राम मंदिर का ताला खुलवा कर हिंदुओं को रिझाने की कोशिश में लगे तो उसका फ़ायदा बीजेपी उठा ले गई।

तो सपा-बसपा मंदिर और ब्राह्मण का जाप करेंगी तो इसका फ़ायदा भी बीजेपी को ही मिलेगा। आख़िर लोग मंदिर मुद्दे पर असली माल चुनना पसंद करेंगे, नकली नहीं। दूसरी बात यह कि फिर ये चुनाव बिल्कुल उन्हीं मुद्दों पर होंगे जिन पर बीजेपी चाहती है। फिर यह वह मैदान होगा जहां सपा-बसपा बीजेपी के आगे नौसिखिए साबित होंगे।

फिर रास्ता क्या है? वही जो 1993 में दोनों पार्टियों ने पूरे दिल से और 2019 में अधूरे मन से लिया था। दरअसल बीजेपी और उसके विभाजनकारी एजेंडे को रोकना है तो यूपी में वह दलित-पिछड़ा गोलबंदी वापस लानी होगी जो अंतत: देश के कमज़ोर तबकों के लिए आश्वस्ति की वजह बन सकती है। इस गोलबंदी के साथ अल्पसंख्यक भी होंगे और इसमें दोनों चाहें तो ब्राह्मणों या अगड़ों का भी स्वागत कर सकते हैं।

बल्कि यूपी में आरएलडी का साथ इस बार ज्यादा महत्वपूर्ण हो सकता है। किसान आंदोलन ने आरएलडी का रुख़ बदला है। वह पहले से ज़्यादा मज़बूत है। इसके अलावा वह भाईचारा सम्मेलन करने जा रही है ताकि 2013 के दंगों के बाद जो हिंदू-मुस्लिम दरार पैदा हुई, उसे पाटा जा सके। सपा या बसपा को भी ऐसे ही भाईचारे से अपना रास्ता बनाना होगा। संकट यह है कि पिछले कुछ वर्षों में मायावती और अखिलेश यादव जैसे अपना भरोसा खो रहे हैं। कई बार यह संदेह भी उठ खड़ा हुआ है कि वे कहीं केंद्रीय एजेंसियों के दबाव में तो नहीं हैं। दरअसल इन दिनों दिल्ली में विपक्ष को जोड़ने की जो कोशिश ममता कर रही है, उसका सूत्रधार अखिलेश-माया को होना चाहिए था। लेकिन इनकी राजनीति जैसे कहीं खोई या सोई हुई है और अब जागी है तो ब्राह्मणों को जगाने निकली है।

सवाल यह भी है कि अगर अखिलेश-माया साथ आएंगे तो मुख्यमंत्री कौन बनेगा? लेकिन आज की गठबंधन राजनीति में इसका जवाब भी मुश्किल नहीं है। यूपी से जम्मू-कश्मीर तक आधे-आधे कार्यकाल के लिए सरकार चलाने के उदाहरण मौजूद है। बेशक, इसमें सियासी धोखाधड़ी भी हुई है, लेकिन यह प्रयोग नए सिरे से आज़माना होगा।

2022 के यूपी चुनाव बहुत अहम होने वाले हैं। अगर इसमें योगी आदित्यनाथ जीतते हैं तो संघ-परिवार की सांप्रदायिक राजनीति कुछ और तीखी होगी और 2024 में योगी किसी और ओहदे का दावेदार भी होने की कोशिश कर सकते हैं। यह बात अभी हवाई लगती है, लेकिन उतनी ही जितनी 2010 में यह बात हवाई लगती थी कि नरेंद्र मोदी गुजरात छोड़कर अपने गुरु आडवाणी को मार्गदर्शक मंडल में जबरन डाल कर प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बन जाएंगे।

लेकिन इस राजनीति का रथ यूपी में ही रोकना होगा। यह काम अकेले किसी के बूते का नहीं है। यह समय अपने राजनीतिक टकरावों को दफ़न कर, अतीत के अनुभवों को पीछे छोड़, भविष्य की राजनीति का खाका बनाते हुए ही किया जा सकता है। ऐसे किसी खाके में मंदिर का नहीं, सामाजिक समरसता का खयाल सबसे अहम होना चाहिए। मुलायम-कांशीराम के वारिस मिलेंगे तो सामाजिक ध्रुवीकरण की सांप्रदायिक ख़्वाहिश परास्त होगी।

(लेखक एनडीटीवी में पत्रकार हैं, यह लेख उनके फेसबुक वॉल से लिया गया है)