हेट क्राइम रोकने के लिए समाज के मज़बूत तबक़ों को कमज़ोर लोगों की सुरक्षा का दायित्व लेना चाहिए।

जिन्नाह का ख़ानदान हिन्दू से मुसलमान हुआ था। अपने दादा- परदादा के मज़हब को लेकर उनके दिल में उतनी ही कड़वाहट थी जितनी उनके हिन्दू रिश्तेदारों को अब जिन्नाह से है। ऐसा हिंदुस्तान के अक्सर मामलो में हैं। हिंदुस्तान में हिंदू मुसलमान के बीच नफरत में मज़हब की ऊंची दीवार पर दो चार ईंट धर्म परिवर्तन की वजह से भी हैं। जिन्होंने धर्म छोड़ा उनके ज़हन में पिछले मज़हब की वर्ण व्यवस्था, शोषण और ग़ैर-बराबरी नस्लों के लिए घर कर गई जबकि दूसरे वर्ग की कोफ्त है कि हमारी भेड़ ने बाड़ा तोड़कर पाला कैसे बदल गई और हमारी बराबरी पर कैसे आ गई।

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आप इतिहास उठाकर देख लीजिए, हिन्दू चरमपंथियों के निशाने पर हमेशा कमज़ोर, ओबीसी/दलित और बेहद ग़रीब लोग रहे हैं। इनमें अधिकांश दो तीन या चार-पांच पीढ़ी पहले तक के ही मुसलमान हैं। हालांकि नफरत के आर्थिक कारण भी हैं। हिन्दू दलित/ओबीसी से इन लोगों की व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा है। एक और बड़ा कारण है आर्थिक प्रगति। आज़ादी के बाद से मुसलमान ने रोज़गार की तलाश में शहरों और दूसरे देशों का रुख़ किया है और मेहनत की है। बेरोज़गारी की दर मुसलमान में कम है। इससे पैसे का बहाव बढ़ा और कई की आर्थिक स्थिति हिन्दू सवर्णों से बेहतर हो गई। ये अच्छा रहन सहन और स्मृद्धि भी आंखों में खटकती है। धार्मिक कारण सबसे बड़ा यह है कि हिन्दू धर्म मुख्यतः एक सीमा में क़ैद है।

हिन्दू जिस देश में जन्मा है वही उसका कुआं  है। यानी जन्म, मरण, धर्मस्थल सब यहीं दूसरी तरफ वो मुसलमान को जीवन भर बाहर से कमा कर लाते या हज और उमरा के लिए यहां पर कमाते देखता है। उसे मुसलमान देश से या कहिए कि यहां की मुसबतों से कनेक्टिड नहीं लगता है। ऐसे में यह नैरेटीव आसानी से बिक जाता है, “खाते यहां हैं गाते बाहर का हैं”, यानी बाहर जाकर कमाना और तीर्थ के लिए बाहर जाना, ये दोनों फ्रस्ट्रेशन में जी रहे बेरोज़गार के लिए पाप हैं।

ख़ैर, यह नफरत ऐसी ही है जैसे दो भाइयों में बंटवारा हो और घर में दीवार करके दरवाज़े अलग कर लें। ऐसे में अगर भाई का बच्चा घर के सामने बेहोश हो जाए तो नफरत मुंह मोड़ने को मजबूर कर देती है। उसके दरवाज़े पर दुनिया के लिए दाना, पानी, हमदर्दी है लेकिन भाई या भाई के बच्चों के लिए नहीं। ऐसे में जब बताया जाता है कि हमारा डीएनए एक है तो है ब्राह्मणवादी व्यवस्था का अपने दलित के लिए संदेश होता है, देख लो, ये तुम जैसा ही है मगर तुमसे आगे उड़ने की कोशिश कर रहा है। जब भी इस तरह का संदेश आता है, लिंचिंग की घटनाएं बढ़ जाती हैं। यह बहुसंख्यक वर्ग में पल रहे डर और नफरत की परिणति है।

उसे अपने बाड़े से सिर्फ किसी के भागने का डर नहीं है। वह सोचते हैं यह भागेगा तो बराबरी पर आएगा, फिर आगे निकलेगा और फिर हिस्सा मांगेगा। हमले से दो काम होते हैं, सामने वाले को सबक़ और अपने वाले की कुंठा की तुष्टि। यह हीन भावना की पराकाष्ठा है। इसका हल? ज़िम्मेदारी तो राष्ट्र की है कि कुंठित लोगों को काम से लगाए और कमज़ोर की रक्षा करे लेकिन राष्ट्र विफल है तो समाज के मज़बुत तबक़ों को कमज़ोर लोगों की सुरक्षा का दायित्व लेना चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)