निसार अहमद सिद्दीक़ी
दुनिया के देशों में कोई भी क़ानून लागू करने से पहले उसके परिणाम और दुष्परिणामों का पूरा अध्ययन किया जाता है। लेकिन अपने यहां हर फ़ैसला सनसनीख़ेज़ और सनक से परिपूर्ण होता है। रात को 8 बजे नोटबंदी का फ़ैसला लिया गया। उसके फ़ायदे आज तक समझ नहीं आए। जीएसटी आधी रात को लागू किया गया। आज तक उसका नुक़सान जनता और व्यापारी दोनों झेल रहे हैं।
अब जनसंख्या क़ानून लाया जा रहा है। इसके लिए तमाम तरह के प्रावधान किए जा रहे हैं। जनसंख्या क़ानून का नाम आते ही चीन की “एक बच्चा” नीति पूरी दुनिया में सामने आती है। लेकिन उसी चीन ने अपनी नीति में बदलाव किया है और दो बच्चों को इजाज़त दे दी है साथ ही बच्चों को लेकर किसी तरह का प्रतिबंध हटाने की तरफ़ बढ़ रहा है। चीन में ऐसा करने की वजह कई सारी हैं।
सीएनएन की रिपोर्ट के मुताबिक जनसंख्या नीति ने दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक चीन के लिए चुनौतियों खड़ी की हैं, जिसमें सालों से युवा आबादी में गिरावट आई है, जबकि 65 वर्ष से अधिक की आबादी का अनुपात लगभग 4% से बढ़कर लगभग 10% हो गया है। इस नीति ने लिंग भेदभाव की एक चिंताजनक प्रवृत्ति को भी जन्म दिया क्योंकि बेटा पैदा करने की इच्छा ने गर्भपात और शिशु-हत्या को बढ़ावा दिया ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि कपल का एकमात्र बच्चा लड़का ही हो।
2016 में चीन में प्रत्येक महिला के लिए 1.15 पुरुष थे, जो दुनिया में सबसे खराब लिंग अनुपात में से एक है। भारत में 2011 की जनगणना के मुताबिक लिंग अनुपात प्रति 1000 में 943 था। सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम (SRS) रिपोर्ट, 2018 से पता चलता है कि भारत में जन्म के समय लिंगानुपात वर्ष 2011 से घटकर वर्ष 2018 में 899 हो गया है। ये चुनौतियां किसी भी जनसंख्या क़ानून के साथ होती हैं, जिनपर विचार-विमर्श होना चाहिए।
भारत दुनिया का सबसे युवा देश है। जिसे नौकरी-रोज़गार की ज़रूरत है। युवाओं की ऊर्जा को देश के विकास में लगाया जाना चाहिए। लेकिन विजनविहीन लोग युवाओं की ऊर्जा को अपने राजनीतिक फ़ायदे के लिए नफ़रत की भट्ठी झोंक रहे हैं। आज हिन्दू हो या मुस्लिम हर कोई परिवार नियोजन पर काम कर रहा है। इतनी महंगाई के दौर में जहां एक बच्चा पालना मुश्किल हो रहा है, वहां कोई दो से ज़्यादा बच्चे रखने का जोखिम नहीं उठाना चाहता।
लेकिन वोटों की पैदावार बढ़ाने के लिए जनसंख्या कंट्रोल का मुद्दा बहुत ज़रूरी हो गया है क्योंकि समाज के एक बड़े हिस्से को मुसलमानों के दुख से तसल्ली मिलती है। वह उन्हीं मुद्दों पर अपना मत तय करता है जिससे मुस्लिम समुदाय को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से प्रताड़ित किया जाए।
(लेखक जामिया मिलिया इस्लामिया में रिसर्च स्कॉलर हैं)