असग़र मेहदी
महान देशभक्त टीपू सुल्तान ने महज 49 साल की उम्र में, आज के दिन, 4 मई 1799 को शहादत दी थी। टीपू सुल्तान का जीवन एक युवा की विदेशी दासता से मुक्ति संघर्ष के सिवा क्या है? टीपू सुल्तान के नायकत्व पर कभी कोई विवाद रहा ही नहीं। संसद के केन्द्रीय कक्ष में लगा उनका चित्र, आजादी के बाद ही उनके नायकत्व को स्वीकार करना बताता है। अंग्रेजों ने भी टीपू की अहमियत को स्वयं स्वीकार किया है और कहा है कि भारत में जिन लोगों ने उन्हें कड़ी टक्कर दी, जिनसे उन्हें जूझना पड़ा हैं, उनमें से टीपू सबसे महत्वपूर्ण हैं।
टीपू सुल्तान में अपने पिता हैदर अली की तरह सैन्य सूझ-बूझ और शासन कौशलता की प्रचुरता थी। हैदर अली शायद पहले राजा हैं जिन्होंने समुद्री ताक़त के महत्व को समझा और बेड़े का निर्माण शुरू किया। आज का जो मालद्वीप है, उस पर हैदर अली ने कब्जा कर लिया था और वहीं से वह समुद्री गतिविधियों को नियंत्रित करने लगा। टीपू ने अपने पिता हैदर अली की नीति का अनुपालन करते हुए ब्रिटिश के बजाय फ्रांसीसियों से रिश्ते बनाये रखना उचित समझा ताकि यूरोपीय तर्ज़ पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद का मुक़ाबला किया जा सके।
टीपू सुल्तान ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ एक अंतर्राष्ट्रीय महाज़ के निर्माण की संकल्पना पेश की। यह वह दौर था कि जब अमरीका आज़ाद हुआ था, फ़्रांस में क्रांति हो चुकी थी, ख़िलाफ़त ए उस्मानीया और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के बीच तनाव की स्थिति थी। टीपू की वैश्विक और साम्राज्यवादी विरोधी नीति को स्पष्ट करने के लिए बताया कि उसने न केवल विदेशी शासकों को पत्र लिखा था अपितु वहां अपना डेलिगेशन भी भेजा था। उसका एक डेलिगेशन 10 अगस्त 1788 में लुईस सोलह से मिला था। उसके डेलीगेशन ने लुईस से कहा था कि ब्रिटिश भारत को गुलाम बनाना चाहते हैं। अगर आप सैन्य सहयोग भेजें तो उसका पूरा खर्च हम वहन करेंगे। 1792 में उसने नेपोलियन बोनापार्ट से, फिर कुस्तुनतुनिया, टर्की में भी अपना डेलीगेशन भेजा था। लेकिन, तुर्की ख़िलाफ़त की तरफ़ से अंग्रेजों के साथ सामंजस्य बिठाने का मशविरा मिला।
टीपू कितना प्रगतिशील था इसका एक ही उदाहरण काफी है कि उसने तत्कालीन फ्रांस के जैकोबिन और रेडिकल धराओं में से जैकोबिन क्लब से अपने को जोड़ने का प्रयास किया। इसलिए हमें टीपू सुल्तान के बारे में यह ज़रूर विचार करना चाहिए कि क्या टीपू हिन्दुस्तानियों की तरह एक सामंती राजा मात्र था या उसने वैचारिक स्तर पर साम्राज्यवाद विरोधी नीति का सूत्रपात किया?
टीपू सुल्तान ने तत्कालीन देशी राजाओं को उस ख़तरे से आगाह करते हुए पत्र लिखे हिंदुस्तान को उसे धीरे-धीर ग़ुलामी की तरफ़ ढकेल रहे थे। अवध के नवाब सिराजुदौल्ला और हैदराबाद के निज़ाम को लिखे पत्रों के माध्यम से ब्रिटिश साम्राज्यवादी ख़तरों के प्रति आगाह करते हुए व्यवस्थित प्रतिरोध का ख़ाका पेश किया था। सही मायनों में टीपू सुल्तान ही वह पहला हिन्दुस्तानी शासक था जो ईस्ट इण्डिया कंपनी के ख़तरे को समझ रहा था जबकि तत्कालीन राजे-रजवाड़े ढुलमुल नीति अपनाये हुए थे। वे उन ताक़तों के साथ रहते, जिनसे उनका हित दिखता।
अगर देखा जाये तो अंग्रेज़ों के दुष्प्रचार का उनके टुकड़ों पर पलने वाले या उनके दस्तरख़ान पर पंखा हिलाने वाले एजेंटों के सिवा किसी पर नहीं है। तारीख़ बताती है कि श्रृंगेरी मठ पर मराठाओं ने जब आक्रमण किया तो टीपू ने शंकराचार्य की मदद की। ध्वस्त मंदिर का पुनर्निर्माण कराया। जब मराठाओं ने शारदा मंदिर पर आक्रमण किया और वहां की मूर्तियों को तोड़ा तब टीपू ने उस मंदिर का पुनर्निर्माण कराया। वह वास्तव में एक निरपेक्ष शासक था। कई बार उसने मुस्लिमों के खिलाफ भी सख़्त निर्णय लिया। इतिहासकार आर.सी मजमूदार ने स्पष्ट किया है कि टीपू धर्मान्ध नहीं था। वह निरंकुश भी नहीं था। उसने कभी हिन्दुओं का दमन नहीं किया।
टीपू का मानना था कि-‘एग्रीकल्चर इज़ द लाइफ-लाइन आफ़ द स्टेट’। 1790 में उसने किसानों के सिंचाई के लिए कावेरी नदी पर बांध बनाया । यह तथ्य बांध पर लगे पत्थर से स्वतः स्पष्ट है। उसने 40 एकड़ का एक बगीचा लगवाया। विदेशों से पत्राचार किया कि उनके यहां कौन से पौधे लगाये जाने चाहिए। व्यापार को बढ़ावा देने के लिए भी उसने विदेशों से संपर्क किया। टीपू के काल में मैसूर समृद्ध हुआ। उसने बंगाल से मंगाकर मैसूर में सिल्क की फैक्ट्री लगवाई। तब मैसूर में प्रति व्यक्ति आय इंग्लैंड से ज्यादा थी। टीपू का वज़ीर हिन्दू था और उसी वजीर के सुझाव पर टीपू ने बाद में अपना वजीर, एक मुसलमान को बनाया था।
टीपू की शहादत को हमें उसकी दूरदृष्टि और साम्राज्यवादी विस्तार नीति के विरोधी के रूप में याद करना चाहिए। भारतीय इतिहास का दुखद पहलू यह रहा है कि दूरदृष्टि और सघन वैज्ञानिक विचारधारा वाले भगत सिंह, नजीमउल्लाह और टीपू सुल्तान जैसे मुक्तिकामी नायकों का हिन्दुस्तान हम नहीं देख पाये।