इस मुल्क़ में हिन्दू मुसलमान की सियासत की उम्र सौ साल से ज़्यादा हो चुकी है। आज़ादी के बाद लगातार मुसलमान इस सियासत की बेदी पर मारा जा रहा है। अभी ये सिलसिला लंबा चलेगा इसमें कोई शक नहीं है। इधर पिछले 10 सालों में इस सियासत ने गाँवों तक में पैर पसार दिया है। गाँवों में दिलों के बीच दीवार टेम्परेरी नहीं हुआ करती, ये दीवार किसी भी वजह से बने, मज़बूत और टिकाऊ होती है। इस लिहाज़ से ज़रायमपेशा सियासतदानों के लिए ये खुशी की बात है लेकिन, जो एक अमनपसंद मुल्क के तलबगार हैं उनके लिए ये खतरनाक मुस्तकबिल का इशारा भी है। बढ़ते आर्थिक हालात में इस सियासी तबाही को और बढ़ावा दिया जाएगा।
जो लोग इस सियासत के कलपुर्जा बन रहे हैं उन्हें बस याद दिलाना चाहता हूँ कि आज़ाद भारत में मुसलमानों पर साम्प्रदायिक सियासत के हमलों का मुकाबला मुसलमानों से ज़्यादा हिन्दू पृष्ठभूमि के अमनपसंद लोगों ने की है। उनकी तादात भले ही कम रही हो लेकिन उनका हौसला उनकी तादात पर हमेशा ही भारी रहा है।
पिछले सात सालों में मुसलमानों के सिविल राइट के लिए लड़ने वाले सारे बड़े नाम हिन्दुओं के हैं। साजिशों के तहत मुकदमों में फसाये गए मुसलमानों के लिए लड़ने वालों में भी बड़े नाम हिन्दुओं के हैं। इसी तरह पूरे कोरोनकाल में लोगों की इमदाद जिसमें खाना, पानी, दवा, ऑक्सीजन और मरने वालों की अंतिम क्रिया सब शामिल है, में मुसलमानों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया है।
इसका नतीजा क्या निकलता है? ज़रायमपेशा मज़हबी रहनुमा वो मुसलमान हों के हिन्दू, आम मुसलमानों व आम हिन्दुओं की रहनुमाई नहीं करते। यह कि, इंसाफ और अमन के तलबगार बेहतर इंसान सभी धर्मों में हैं, सभी जातियों में हैं। टीवी पर हो रही बहसों या आई टी सेल के प्रोपेगैंडा से आम मुसलमानों या आम हिन्दुओं की पहचान न करें।
नफ़रत की सियासत पर कई दहाइयों से मेहनत हो रही है, ज़ाहिर सी बात है कि इसका असर भी हुआ है, लेकिन यहीं ये एक बड़ी जिम्मेदारी है कि आप इस असर से बचें, अपने आसपास के लोगों को बचाएं। इसके लिए ज़रूरी है कि एक धार्मिक समूह के रूप में हिन्दू या मुसलमान से नफ़रत करने से बचें। हलांकि ये आसान नहीं है लेकिन ये ज़रूरी ज़रूर है। सियासी साजिशों के ख़िलाफ़ जो लोग खड़े हैं वही इस मुल्क़ के मुस्तक़बिल हैं। सोचियेगा!