वतन को छोड़े हुए तीस साल बीत गए

शकील हसन शम्सी

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25 अप्रैल1992 को पुष्पक ऐक्सप्रैस द्वारा  लखनऊ से भोपाल के लिए रवाना हुआ था और फिर 27 अप्रैल को भोपाल के दूरदर्शन केंद्र में PEX यानी प्रोग्राम एगज़ैक्टिव की हैसियत से ज्वाइन किया। उस वक़्त ये नहीं लगता था कि लखनऊ हमेशा के लिए छूट गया, क्योंकि बीवी बच्चे लखनऊ में ही थे। भोपाल से 1994 मैं दिल्ली दूरदर्शन के न्यूज़ रुम में तबादला हो गया और ज़िंदगी काफ़ी आसान हो गई। भोपाल के मुक़ाबले में दिल्ली और लखनऊ का फ़ासला भी कम था और आने जाने के लिए ट्रेनें भी बहुत ज़्यादा थीं। इस लिए इतमीनान था कि जब दिल चाहेगा सामान उठाऊंगा और निकल लूँगा, मगर दिल्ली के जादू ने मुझे जकड़ लिया।

सरकारी घर मिंटो  रोड पर मिल गया जो दीन-ओ-दुनिया के संगम जैसा था। सूरज की तरफ़ मुँह करके खड़े हों  तो left hand पर एक किलोमीटर के फ़ासले पर पुरानी दिल्ली थी जहां से अज़ान की आवाज़ें आती रहती थीं और दाएं तरफ़ एक किलोमीटर से कम के फ़ासले पर कनॉट प्लेस था जहाँ शबाब और शराब की महफिलें आम थीं । पीछे की तरफ़  नई दिल्ली  रेलवे स्टेशन था जो इतना क़रीब था कि अगर घर को नई दिल्ली स्टेशन का प्लेटफार्म नंबर 18 कहा जाता तो ग़लत ना होता। इतना क़रीब होने के जहां सैकड़ों फ़ायदे थे वहीं नुक़्सान ये था कि कोई टैक्सी वाला या कोई आटो वाला जाने को तैयार नहीं होता था, इस लिए सामान लेकर हमेशा रिक्शे से स्टेशन तक जाना पड़ता था।

दिल्ली में घर मिलने के बाद बच्चे भी दिल्ली आगए और उनका दिल्ली में एडमीशन भी हो गया, फिर भी लखनऊ में माँ  थीं अब्बू जी  थे भाई बहन थे, इस लिए आना जाना लगा रहा। माता पिता  भी आते जाते रहे। दिल्ली दूरदर्शन में आने के बाद ईद में छुट्टी मिलना बहुत मुश्किल हो गया क्योंकि मेरे अफ़सर मुझसे कहते थे कि तुम चले जा ओगे तो ईद की रिपोर्ट कौन बनाएगा? और में उनके अलफ़ाज़ को अपने लिए एक तमग़ा समझ कर ईद में जाना टाल देता। बेटे को साथ लेकर दिल्ली में ही नमाज़ में चला जाता,  मगर मोहर्रम  में लखनऊ जाने का सिलसिला कभी ख़त्म  नहीं हुआ(कोरोना की वबा की अतिरिक्त)।

एक  ज़माने में मैं सोचता  था कि जब तक रिटायरमेंट नहीं होगा दिल्ली में रहूँगा और रिटायर  होने के बाद लखनऊ में अपनी माँ के  मकान में रहूँगा, इसी लिए दिल्ली में मकान ख़रीदने के बारे में ना तो सोचा ना इतनी रक़म जमा की कि मकान ख़रीदा जा सके। मगर बंदे के इरादे अल्लाह की मर्ज़ी के आगे कहाँ चलते हैं? ख़ुदा ने दिल में ये बात डाल दी कि सरकारी नौकरी छोड़कर प्राइवेट  चैनलों में नौकरी  की जाये मगर प्राइवेट  चैनल से पहले  (दूरदर्शन छोड़ते  ही) लोक सभा टीवी में कंसल्टेंट प्रोडयूसर की जॉब मिल गई। वहां 13 महीने बहुत अच्छी तरह  गुज़ारे और फिर सहारा ग्रुप का  प्रस्तावित  आलमी सहारा चैनल Join कर लिया , वहाँ Join करते  रजत शर्मा साहिब के चैनल इंडिया टीवी में मुझे Sr. Editor  का ओहदा मिल गया, मगर मैंने उर्दू की ख़िदमत करने को तर्जीह दी और रजत शर्मा साहिब का चैनल ज्वाइन नहीं किया। बस यहां से मेरी लाईन बदल गई।

आलमी चैनल खुलने में देर  थी तो मुझसे कहा गया कि मैं रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा में अपनी सेवाएं  दूं। मैंने ख़ुशी ख़ुशी  क़बूल किया और आज़ाद क़लम के नाम से हर सप्ताह एक लेख सप्ताह में  दो या तीन दिन सम्पादकीय लिखने  लगा। कुछ din बाद क़ैस रामपूरी साहिब रिटायर  हो गए तो अज़ीज़ बर्नी  साहिब ने फ़र्माइश की कि मैं रोज़ाना एक क़ता (चार पंक्तियाँ ) कहूं। मैंने हरफ़-ए-आख़िर के नाम से रोज़ एक क़ता कहना शुरू किया, फिर एक दिन बरनी साहिब ने स्टाफ़ मेंबर्स  की मीटिंग बुला कर (मुझे एक सरप्राइज़ दिया और) भरी मीटिंग में रेज़िडेंट एडिटर  बनाए जाने का ऐलान कर दिया। ये ऐलान वहां के पुराने मुलाज़मीन पर बिजली बन कर गिरा और वही लोग मेरे ख़िलाफ़ बातें करने लगे जो मेरे  साथ कैंटीन में चाय पिया करते थे । ख़ैर सहारा में बहुत अच्छे  दोस्त भी थे इस लिए चार साल वहां गुज़र गए। 2011 मैं मुझे दैनिक  इन्क़िलाब सम्पादक  बनने का मौक़ा मिला और मैं 13 एडिशन्स का मुखिया  बन गया।

इन्क़िलाब में नौकरी  के दौरान लखनऊ आना जाना बढ़ गया क्योंकि इन्क़िलाब का एक दफ़्तर लखनऊ में भी था और उत्तर भारत का पहला ऐडीशन लखनऊ से ही प्रकाशित  हुआ था।फिर भी मेरा  यही प्लान था कि रिटायर  हो कर लखनऊ चला जाऊंगा, मगर2014 में बेटे (इमरान शमसी) ने एक घर ख़रीद कर हम लोगों को रहने के लिए दे दिया तो फिर रिटायर हो कर लखनऊ जाने का प्रोग्राम भी कैंसिल  हो गया, अलबत्ता ये उम्मीद बाक़ी है कि मरने के बाद अपने पुश्तैनी क़ब्रिस्तान (इमाम बाड़ा गुफ़रान मॉब)  में जगह मिलेगी और लखनऊ के साथ जो रिश्ता है वो अनंत काल  तक क़ायम रहेगा। इन सब बातों सारांश यह है  कि दो मई को इंशा-अल्लाह लखनऊ जा हूँ ( भतीजे की शादी में शिरकत के लिए)और तीस साल के बाद बड़े इमाम बाड़े की तारीख़ी आसफी मस्जिद में इंशा-अल्लाह ईद की नमाज़ अदा करूँगा और पुराने दोस्तों से मिलूँगा।

(लेखक उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार हैं)