कश्मीर के विस्थापन को हमने बहुत नजदीक से देखा। उसे भोगा भी। जब श्रीनगर के सबसे सुरक्षित स्थल एमएलए होस्टल के हमारे कमरे का ताला तोड़कर सारा सामान उठा लिया गया, जिसमें बाकी किसी चीज का हमें गम नहीं मगर वे बहुत सारी किताबें थीं, जो बाद में हमने लीं, मगर वे पुराने संस्करण, पहचाने हुए पन्ने कहां से मिलते जो बरसों से साथ थे, वे नहीं भूलतीं। खूब अखबारों में खबरें छपीं। इन्कवायरी हुई। मगर कुछ पता नहीं चला। सिवाय इसके जो हमें राज्यपाल गिरीश चंद्र गैरी सक्सेना, जिन्हें गैरी सक्सेना कहा जाता था ने बताया कि वे आपको यहां से भगाना चाहते हैं।
हम 1990 में श्रीनगर पहुंच गए थे। यह घटना 1991 की है। जगमोहन के बदले गैरी सक्सेना जो रा ( खुफिया विभाग, रिसर्च एंड एनालिसिस विंग) के चीफ रहे थे वहां गवर्नर बन कर आ गए थे। वे हमारी सुरक्षा को लेकर बहुत चिंतित रहते थे। हिन्दी अखबारों का पहला सवंदादाता वह भी ऐसे घोऱ आतंकवाद में वहां ट्रांसफर होकर आया था। जो उनके सिक्यरटी नार्मस( सुरक्षा नियमों) की पालना नहीं करता था। देर रात को सीटीओ ( केन्द्रीय तार घर) से खबरें देकर पैदल एमएलए होस्टल वापस आता था। सुबह एक ही तरह ही कपड़े पहनकर ( पेंट शर्ट) एक ही रास्ते से प्रताप पार्क ( श्रीनगर में अखबारों के दफ्तर, स्थानीय पत्रकारों के निवास) जाता था। और इन सबसे बढ़कर जिसके लिए वे धमकी देते थे कि मैं इस पान की दुकान को बंद करवा दूंगा, पर जाकर पान खाना। गैरी सक्सेना खुद यूपी के थे। पान की आदत को जानते थे। लेकिन उस समय श्रीनगर से सब पान वाले, जो यूपी, एमपी के चौरसिया थे, वहां से चले गए थे। रेजिडेन्सी रोड पर एक कश्मीरी पान वाला था, जिसके पास जाकर हम पान लगवाते थे।
तो यह हालात थे उन दिनों श्रीनगर के। जहां हिन्दु मुसलमान का कोई सवाल नहीं था। पाक समर्थित आतंकवादियों के निशाने पर हर वह शख्स था जिसे वे भारत समर्थक समझते थे। कश्मीर फाइल्स एक ऐसा झूठ गढ़ रही है जो उन सबके लिए एक और गहरी चोट है, जो उस दौरान कश्मीर में थे, रहे, लड़े, ईमानदारी से अपना काम किया और उनमें से हजारों ने अपनी जान की कुर्बानी भी दी। आज 32 साल बाद फिल्म बनाना आसान है। मगर उन दिनों क्या हालत थी एक दो उदाहरण के जरिए बताने की कोशिश करते हैं।
श्रीनगर में चीफ सैकेट्री ( शायद अशोक कुमार थे) की कोई महत्वपूर्ण प्रेस कान्फ्रेंस थी। उस समय कोई बड़ा मसला चल रहा था। तो पत्रकारों ने वहां जाकर उसका बहिष्कार किया। हम और दो और पत्रकार एक तो हमारे पुराने मित्र और इंडियन एक्सप्रेस के संवाददाता जार्ज जोजफ और दूसरे टाइम्स आफ इंडिया के अल्ताफ हुसैन जो कश्मीरी थे उस बायकाट में शामिल नहीं हुए। खैर यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि बायकाट करते हुए एक पत्रकार ने जो यहां दिल्ली के बड़े अंग्रेजी अखबार का संवाददाता था, पाकिस्तान जिन्दाबाद का नारा लगया। और यहां यह बताना पड़ेगा क्योंकि माहौल इतना पतनशील बना दिया गया है कि वास्तविक स्थिति को बताने के लिए वह लिखना पड़ रहा है, जो कभी लिखा नहीं कि वह पत्रकार मुसलमान नहीं था।
तो यह हिन्दू मुसलमान की समस्या नहीं है। हां मगर अब यह लगता है कि यह सरकार अगर कुछ समय और रह गई तो राम रावण युद्ध और कौरव पांडव की लड़ाई में भी मुस्लिम एंगल निकल आएगा। सरकार का काम तो यह होता है कि वह बताए कि सबने मिलकर कश्मीर में पाकिस्तान द्वारा छेड़े गए छद्म युद्ध का मुकाबला किया और कश्मीर में नार्मलसी ( सामान्य दिन) वापस लाए। एक इतना बड़ा झूठ फिल्म ने पैदा किया और उसे देश के प्रधानमंत्री का इनडोर्समेंट (समर्थन) मिला कि इसके बाद सच को सबूतों की, उदाहरणों की, प्रचार की जरूरत पड़ रही है। इससे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण और क्या होगा? और यह सिर्फ दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है, देश के लिए बहुत घातक भी है।
विपक्ष में रहते हुए आप कुछ कहते हैं वह उतना महत्वपूर्ण नहीं होता मगर जब आप सरकार में बैठकर वह कहते हैं जो देश की एकता और अखंडता के लिए नुकसानदेह है तो वह बहुत खतरनाक है। अटल बिहारी वाजपेयी जब विपक्ष में थे तब वे इसे इन्सरजेंसी ( जन विद्रोह) कहते थे। यह बहुत खतरनाक टर्म है कि कश्मीर की जनता ने बगावत कर दी। यही तो पाकिस्तान कहता था। और यही अमेरिका और यूरोप के कई देश कहते थे कि वहां भारत के खिलाफ बगावत हो रही है। लेकिन हम, भारत की सरकार कहते थे यह पाकिस्तान द्वारा करवाया जा रहा आतंकवाद है। वह कश्मीर के लोगों की जिन्दगी अजाब कर रहा है। और इसके बाद जैसे ही वाजपेयी प्रधनमंत्री बने उन्होंने ठीक यह लाइन बोली। इन्सरजेन्सी की कोई बात नहीं की। कहा कश्मीर के लोग आतंकवाद से लड़ रहे हैं। पाकिस्तान का मुकाबला कर रहे हैं। यह सही राष्ट्रीय नीति थी। जो हमेशा रही। मगर आज जब यह कहा जा रहा है कि 32 साल तक हमें सच पता नहीं चला तो इसका मतलब है, वहां काम कर रही आर्मी, सुरक्षा बल, खुफिया एजेन्सियां, वह राज्य सरकारें जो भाजपा के समर्थन से रहीं सब फेल रहीं, अंधेरे में। और एक फिल्म वाला सारी सच्चाइयां ले आया। बहुत खतरनाक है यह। कश्मीर पर दूसरे एंगलों से बनी कई विदेशी फिल्मों को हम इस आधार पर खारिज करते रहे कि ये फिल्में हैं। सत्य का दस्तावेज नहीं।
अगर 32 साल जिसमें वीपी सिंह, चन्द्रशेखर, नरसिम्हा राव, देवगौड़ा, गुजराल, वाजपेयी, मनमोहन सिंह और मोदी 8 प्रधानमंत्री रहे और उन्हें कुछ पता नहीं चला तो फिर कुछ कहना बेकार है। प्रधानमंत्री मोदी ने 32 साल सच छुपा रहा कहने से पहले यह भी नहीं सोचा कि इससे विदेशों में और देश में भी भारत के प्रधानमंत्री पद की क्या इज्जत रहेगी? क्या भारत का प्रधानमंत्री जब देश या विदेश में कोई बात कहेगा तो लोग यह नहीं सोचेंगे कि इन्हें पता भी है कि नहीं? और अगर इन्हें नहीं पता तो एक फिल्म दिखाओ सब पता चल जाएगा।
देश एक सिस्टम से चलता है। गांव में एक चौकीदार, पटवारी, पुलिस से लेकर राज्य के मुख्यालय में मुख्यमंत्री, गवर्नर तक एक व्यवस्था होती है। पचासों चैनल होते हैं। एक बच्चे के जन्म से लेकर एक एक्सीडेंट, लावारिस मौत तक कुछ भी छुपा नहीं रहता। मगर प्रधानमंत्री कहते हैं कि कश्मीर का सच छुपा रहा। वह कश्मीर जहां देश की ही नहीं विदेश की भी हजारों आंखें लगी थीं। और सच छुपे होने से ज्यादा आश्चर्यजनक यह बात कि उस सच को एक फिल्म ने सामने ला दिया।
फिल्म दरअसल उस हिन्दु मुसलमान नफरत के अजेंडे को ही आगे बढ़ाने की एक कोशिश है जो भाजपा और संघ का मुख्य उद्देश्य है। लेकिन पहले जब भाजपा सरकार में नहीं था तब यह सब कहना और करना अलग बात थी, मगर आज सरकार में रहते हुए करने से अन्तरराष्ट्रीय जगत में यह मैसेज जाता है कि भारत एक नहीं है। बंटा हुआ देश है। और यहां के प्रधानमंत्री भी पूरे देश का प्रतिनिधित्व नहीं करते। एक बड़े समुदाय को वे दोषी मानते हैं। उस पर विश्वास नहीं करते।
सोचिए कितना खतरनाक मैसेज है। इसीलिए वाजपेयी ने प्रधानमंत्री बनते ही अपने कश्मीरियों पर जताए अविश्वास को तत्काल वापस लेकर उन पर पूरा विश्वास व्यक्त करते हुए यह कहा था कि पाकिस्तान के छद्म युद्ध के खिलाफ हमारे कश्मीरी भाई और बहन मजबूती से डटे हुए हैं। हम यह युद्ध जीतेंगे। और कश्मीर एवं कश्मीरी दोनों हमारे हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एंव राजनीतिक विश्लेषक हैं)