2024 के लोकसभा चुनाव में सोनिया गांधी कांग्रेस का नेतृत्व कर भी रही होंगी या नहीं, या वे वह चुनाव लडेंगी भी या नहीं, यह किसी को नहीं पता। मगर जिस हिम्मत से उन्होंने इस वक्त विपक्षी दलों की मीटिंग बुलाई और उसमें भाजपा को हराने का आह्वान किया वह बेजोड़ है। अपनी खत्म करती पारी में भी उनका इस तरह हाफ पिच पर आकर खेलना विपक्ष की राजनीति के लिए बहुत प्रेरणादायी मिसाल बन गया है। उनकी पहल पर हुई इस विपक्षी बैठक में 20 दलों का शामिल होना तो महत्वपूर्ण है ही, मगर उससे भी ज्यादा उल्लेखनीय यह है कि इसमें शरद पवार और ममता बनर्जी शामिल हुए।
मीडिया विपक्षी एकता को बनने से रोकने के लिए रोज शरद पवार और ममता बनर्जी को विपक्ष के सबसे बड़े नेता के रूप में प्रोजेक्ट करता है। हालांकि जब ममता बंगाल में भाजपा के खिलाफ लड़ती हैं तो उनकी दूसरी ही तस्वीर दिखाता है। इसी तरह महाराष्ट्र में जब पवार अल्पमत भाजपा की फडणवीस सरकार हटाकर विपक्ष की सरकार बनाते हैं तो उन्हें खलनायक की तरह पेश किया जाता है। मगर जब केन्द्र की बात आती है तो राहुल और सोनिया का कद छोटा करने के लिए मीडिया पवार और ममता के विशाल कट आउट लगाने लगता है।
खैर मीडिया आम भोली भाली जनता को बेवकूफ बना सकता है। मगर लगातार संघर्षों की राजनीति करने वाले जन नेताओं को नहीं। शरद पवार और ममता बनर्जी ऐसे ही जन नेता हैं, जो अपने लगातार संघर्ष से यहां तक पहुंचे हैं। इन सात सालों में और खासकर इन दो सालों में जब अमित शाह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी ज्यादा मजबूत हुए हैं, ये दोनों दूरंदेश नेता पवार और ममता समझ गए हैं कि अब मामला प्रधानमंत्री मोदी की राजनीति से भी और आगे जाएगा। अगर 2024 में वापसी नहीं की तो फिऱ भाजपा और संघ की राजनीति से मुकाबला करना बेहद कठिन हो जाएगा। हिन्दु मुसलमान की राजनीति के साथ पूरा यथास्थितिवादी अजेंडा इस तरह सेट हो जाएगा कि उसमें फिर सेंध मारना बहुत मुश्किल होगा।
राजनीति मुद्दों का खेल है। अगर जनता के रोजी रोटी, शिक्षा, स्वास्थ्य के मुद्दों पर धार्मिक मुद्दे हावी हो जाएंगे तो फिर जनता को इस भावनात्मक नशे से निकालना आसान नहीं होगा। पाकिस्तान के बाद यह ताजा तालिबान का उदाहरण सामने था कि धर्म के नशे को अगर समय रहते नहीं रोका गया तो वह किस तरह नासूर बन जाता है। ऐसे में पवार और ममता ने समझा कि बिना विपक्षी एकता के भाजपा और संघ परिवार की नफरत और विभाजन की राजनीति से नहीं लड़ा जा सकता। बाकी विपक्षी दल भी जानते हैं कि मीडिया की यह विकल्प की राजनीति और तीसरे एवं चौथे मोर्चे की कहानी केवल उन्हें गुमराह करने के लिए बनाई जा रही है।
अभी हाल में इंडिया टुडे के एक सर्वे में प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता में भारी गिरवाट के आंकड़ें हैं। ये मीडिया ऐसे ही इन्हें नहीं छाप देता। या तो वाकई गिरवाट बहुत ज्यादा है। या भाजपा में ही किसी और को उठाने के लिए मोदी को गिराया जा रहा है। लकीर छोटी करने के खेल का सबसे बड़ा खिलाड़ी तो संघ परिवार ही है। 70 – 75 साल से नेहरू की लकीर को घिसे जा रहे हैं मगर वह एक इंच भी छोटी नहीं हो रही। उल्टे कुछ न कुछ ऐसा होता है कि वह और बड़ी हो जाती है। जैसे अभी कोरना में जब चिकित्सा सेवाओं का बुरा हाल हुआ तो नेहरू का बनाया एम्स और दूसरे अस्पताल याद आ गए। नकारात्मक राजनीति सिर्फ विरोधियों का ही नहीं अपने लोगों का भी कद कम करती रहती है। आडवानी, मुरली मनोहर जोशी तो शीर्ष के उदाहरण हैं। लेकिन अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, उमा भारती को भी उनकी मेहनत के अनुरूप महत्व नहीं मिला।
हालांकि यह बीमारी सर्वत्र है मगर दक्षिणपंथियों को इसमें महारथ हासिल है। अटल बिहारी वाजपेयी केन्द्र का दरवाजा खोलने वाले भाजपा के पहले नेता थे। उनका संघर्ष बेमिसाल है। वाकई एक एक इंच के लिए लड़ते हुए वे दिल्ली की गद्दी तक पहुंचे। मगर आज उन्हें वर्तमान सरकार और भाजपा कितना याद करती है? उनकी स्मृति में क्या बना दिया? क्या इसके पीछे यह सोच है कि अगर वाजपेयी को उनके कद के अनुरूप सम्मान दे दिया तो उनके बाद के भाजपा नेता का कद छोटा दिखने लगेगा?
वाजपेयी की राजनीति से आप चाहे जितने असहमत हों मगर भाजपा को शिखर पर ले जाने वाले और उसे गैर कांग्रेसी दलों के बीच स्वीकार्य बनाने वाले तो वही थे। एक तरफ लेफ्ट से लेकर ममता बनर्जी और जयललिता से लेकर चन्द्रबाबु नायडु, कांग्रेसी चाणक्य डीपी मिश्रा के बेटे ब्रजेश मिश्रा, अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा, किसी वक्त में भाजपा का सूरज आकाश में चढ़ाने वाले शत्रुघ्न सिन्हा, जाने कितने नाम हैं जो याद आते ही चले जाएंगे, वाजपेयी के साथ जुड़े रहे। हंसी की बात है कि ऐसे वाजपेयी की याद करने में आज भाजपा नेता संकोच करते हैं जबकि वाजपेयी की प्रतिभा इतनी विकसित नहीं हुई थी तब नेहरू विदेशी राष्ट्राध्यक्षों से युवा वाजपेयी को मिलवाते हुए कहते थे कि आगे चलकर यह युवा भारत का प्रधानमंत्री बनेगा। उन्हें विपक्षी दल के नेता की प्रशंसा करने में कोई समस्या नहीं थी। मगर आज जिसने दिल्ली की गद्दी का रास्ता दिखाया, उसको श्रेय देने में समस्या है।
तो राजनीतिक परिस्थितियां अगर एक तरफ खतरनाक तो दूसरी तरफ बहुत दिलचस्प भी हैं। सोनिया गांधी ने समय रहते एक सार्थक हस्तक्षेप की कोशिश की है। उन्होंने जिक्र तो 2024 के लोकसभा चुनाव का किया मगर उनके सामने 2022 का यूपी विधानसभा चुनाव भी है। यह विपक्ष के लिए बड़ी परीक्षा है। परीक्षा इसलिए कि विपक्ष की संसद की बैठकों में भी बसपा तो आ ही नहीं रही थी, इसमें सपा भी नहीं आई। हालांकि सपा ने रामगोपाल यादव के परिवार में शोक हो जाने का कराण बताया। लेकिन बैठक के महत्व को देखते हुए ये कारण कोई बहुत संतोषजनक नहीं है।
सपा बीच बीच में पहले भी विपक्षी बैठकों से बाहर रही है। यूपी के चुनाव में फिलहाल वह सबसे प्रमुख विपक्ष है। लेकिन अकेले उसका भाजपा का मुकाबला करना संभव नहीं है। वहां विपक्षी एकता की सबसे पहले जरूरत है। भाजपा वहां एक ही मुद्दे हिन्दु मुसलमान पर चुनाव लड़ रही है। ओवेसी और मुनव्वर राना इसे बीच बीच में हवा देने का काम कर रहे हैं। यूपी में कहा जा रहा है कि मुख्यमंत्री योगी को प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह की मदद की इतनी जरूरत नहीं जितनी इन दोनों की मदद की है।
यूपी में हिन्दु मुसलमान मुद्दे से लोगों का ध्यान हटाने का एक ही तरीका है, वह है उससे बड़ा मुद्दा सामने आ जाना। ये काम शरद पवार और ममता बनर्जी ही कर सकते हैं। और इसमें सबसे अहम रोल निभा सकते हैं लालू यादव। मुलायम और अखिलेश की इन सबसे मेल मुलाकातें हो रही है। अगर ये तीनों नेता लखनऊ में आकर मीटिंग करें और बाकी सभी विपक्षी दलों को भी बुलाएं और जैसा कि ममता बनर्जी ने कहा कि और लोगों को भी बुलाना चाहिए तो उन्हें भी बुला लें। साथ ही यूपी के छोटे दलों को भी आमंत्रित करें। और लखनऊ सम्मेलन में विपक्षी एकता की घोषणा करें। बनवा दे एक महागठबंधन। जैसा 2015 में लालू ने बिहार में बनाया था। और भाजपा को शिकस्त दी थी। उस समय भी उन्होंने हिन्दु मुसलमान राजनीति को जाति की राजनीति से मात दी थी।
चुनाव से पहले सोनिया के रोजा अफ्तार में लालू ने हमसे बात करते हुए कहा था कि धर्म के रथ से उतर कर मोदी चुनाव नहीं जीत सकते। और सोनिया बगल की टेबल पर बैठी थीं। उनकी तरफ इशारा करते हुए कहा था कि ये हमारी जाति की राजनीति को मानती नहीं हैं। मगर उसी से भाजपा को हराया जा सकता है। सोनिया ने कुछ सुना। वहीं से बोलीं क्या कह रहे हैं? लालू ने कहा बताएंगे, बताएंगे। आपका साथ होगा तो हम करके भी दिखाएंगे। सोनिया जी हंसने लगीं। 2015 के बिहार के नतीजों ने लालू के जातीय समीकरणों की ताकत बता दी। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद वह मोदी की पहली बड़ी हार थी।
अब उत्तर प्रदेश में भी अगर जातीय समीकरण साधते हुए विपक्षी नेता एक महागठबंधन बना लेते हैं तो हिन्दु मुसलमान राजनीति की हवा निकल जाएगी। है मुश्किल काम मगर विपक्ष के लिए जरूरी है। 2024 के लोकसभा चुनाव का कोई बाय पास रास्ता नहीं है। विपक्ष को यूपी मार्ग तय करके ही गुजरना पड़ेगा।