किसान आंदोलन में अब तक और कुछ हुआ हो या न हुआ हो, भारत में सत्ता की दो संरचनाओं – मीडिया और न्यायपालिका- की विश्वसनीयता कुछ और ध्वस्त ज़रूर हो गई है। इन पर भरोसे के बिना कोई सिस्टम सुचारू रूप से चल नहीं सकता। सीएए-एनआरसी और एससी-एसटी एक्ट तथा आरक्षण के मामलों में भी जनता के अलग अलग समूहों के बीच मीडिया और न्यायपालिका ने अपनी विश्वसनीयता गँवाई है। मीडिया और न्यायपालिका का काम है सत्ता के पक्ष में काम करना, लेकिन ऐसा होता हुआ दिखना नहीं चाहिए। ग़ैर- पक्षधरता का पर्दा लगा रहना चाहिए।
किसी भी सत्ता को टिकाए रखने के लिए जनता में जिस सहमति या कंसेंट की ज़रूरत होती है, उसे कल्चर- मीडिया उसका हिस्सा है- और न्यायपालिका पर विश्वास बना रहना ज़रूरी होता है। सरकार सत्ता का एक अंग, बेहद ज़रूरी अंग, मात्र है। वह डोमिनेंट आइडियोलॉजी का रिफ़्लेक्शन भी है, जिस विचार या आइडियोलॉजी के प्रति विराट जनसमूह की सहमति होनी चाहिए। ऐसी सहमति होने पर शासन स्मूथली यानी सहजता से चलता है। इस विश्वास या सहमति के बिना जब शासन चलाना होता है तो सत्ता को हिंसक और क्रूर बनना पड़ता है। मुझे लगता है कि आने वाले दिनों में सत्ता और हिंसक और क्रूर स्वरूप में आएगी।
1970 तक भारत भूखा देश था। अमेरिका दान में सड़ा लाल गेहूं भेजता था, जिसे वहाँ सूअर खाते थे। फिर पंजाब, हरियाणा, वेस्ट यूपी के किसानों ने खूब अनाज उगाया। उसके बाद कभी विदेश से अनाज मंगाने की ज़रूरत नहीं पड़ी। किसानों की उस कामयाबी में एमएसपी, सरकारी ख़रीद और मंडी सिस्टम का बड़ा योगदान रहा। वही किसान आज MSP बचाने के लिए सड़क पर है। एमएसपी नहीं बचेगी तो PDS यानी सस्ते राशन की योजना भी जाएगा।
मैं शहरीकरण और औद्योगीकरण का बड़ा समर्थक हूँ। लेकिन यह कैसे भूल सकता हूँ कि कोरोना काल में किसानों और गाँवों ने ही पीड़ितों को सँभाला। शहरों ने तो हाथ खड़े कर दिए थे। सरकार MSP और PDS को ख़त्म करने की दिशा में आगे बढ़ चुकी है। इससे चंद कॉरपोरेट को तो फ़ायदा होगा, लेकिन करोड़ों लोगों का जीवन संकट में पड़ जाएगा। मुझे लगता है कि कृतज्ञ राष्ट्र आंदोलनकारी किसानों के साथ है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एंव इंडिया टुडे के पूर्व संपादक हैं, ये उनके निजी विचार हैं)