सूर्यकांत द्विवेदी
यूपी के चुनावी दंगल में सब अपनी-अपनी बात कह रहे हैं, लेकिन मुस्लिम समाज खामोश है. इस खामोशी को क्या समझा जाए? चुनावी मैदान में मुस्लिम समाज का रुख समझने में हमेशा से पूर्वाग्रह रहा. पहले कभी दिल्ली की जामा मस्जिद से फतवे चलते थे. सूबे की सियासत को बदलने वाले क्षेत्रीय दल नहीं थे. जनसंघ या भाजपा उदयकालीन थीं. लिहाजा, कांग्रेस की सीटें आते ही यह मान लिया जाता था कि अब्दुल्ला बुखारी का फतवा चल गया. राजनीतिक पंडितों ने मनमर्जी से गणित चलाया और सुर्खियों में फतवा-राजनीति आ गई.
यूपी की सियासत में मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा मुसलिम समाज का है. पूरब से पश्चिम तक सियासी दल मुसलमानों के साथ किसी नई सियासी दोस्ती की कवायद करते नजर आते हैं. उनका समीकरण पूरे पांच साल यही बुनता नजर आता है कि मुस्लिम के साथ दलित आ जाएं, तो यह फायदा होगा. हम सत्ता की सीढ़ी चढ़ सकते हैं, बशर्ते इसमें और कुछ जातियां जुड़ जाएं. सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के चश्मे से यूपी की सियासत को देखने वाले भी कम नहीं हैं. जाति-संप्रदाय के हिसाब से मंडल में से मंडल निकाल लिए गए. मुस्लिम समाज की 100 से अधिक जातियां गिना दी गईं. लगे हाथ आंकड़े भी फिट कर दिए कि फलां हमारे साथ है, फलां नहीं. यदि मुस्लिम समाज की राजनीति को गौर से देखें, तो कभी उसकी कमान मुस्लिमों के हाथों में नहीं रही. मुस्लिम लीग उभरी जरूर, लेकिन सिमटकर किनारे हो गई. एक दर्जन से अधिक वक्ती मुस्लिम संस्थाएं जन्मीं, लेकिन पिछले बीस वर्षों से उनका अता-पता नहीं. बदलती सियासत कहती है कि अब यह समाज किसी एक नेता या धर्मगुरु के कहने पर न अपना वोट देता है और न अपनी नब्ज पर किसी सियासी दल को हाथ रखने देता है.
मुस्लिम समाज को लेकर दो-तीन मुगालते हमेशा चलते हैं. पहली गलतफहमी यह है कि मुस्लिम समाज फतवे से चलता है. दूसरी गलतफहमी, वह धर्मगुरुओं के इशारे पर वोट करता है. तीसरी गलतफहमी, वह अपने मुद्दों पर राय (वोट) नहीं देता, यानी उसके लिए विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य मुद्दे नहीं हैं. वह बरसों से जैसा है, वैसा ही रहना चाहता है. वास्तव में, ऐसा है नहीं. इस समाज में शिक्षा और नौकरी का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है. पहले जहां पांच में एक का औसत था, अब यह औसत तीन का हो गया है. नौकरी में भी प्रतिनिधित्व बढ़ रहा है. सरकारी योजनाओं का लाभ लेने में यह आगे है. सत्तर फीसदी अल्पसंख्यक सरकारी योजनाओं का लाभ लेते हैं. बस कुछ ग्रंथियां हैं, जो उन्हें उभरने नहीं देतीं. साक्षरता के मामले में यह समाज अभी भी काफी पीछे है, पर वक्त करवट ले रहा है. मदरसे आधुनिक हो रहे हैं, वहां सब कुछ पढ़ाया जा रहा है. यहां तक कि संस्कृत भी. सरस्वती शिशु मंदिरों में भी अपने बच्चों को भेजने में इनको गुरेज नहीं है.
सवाल उठता है, जब इतना सब कुछ बदल गया, तो सियासत क्यों नहीं बदली? यूपी की सियासत को देखें, तो दो चीजें सामने आती हैं. जितने टिकट राजनीतिक दल इस समाज को देते हैं, उसके आधे भी नहीं जीतते. 1967 से 2017 के आंकड़े बोलते हैं, जीतने वालों का प्रतिशत 10-12-17 तक सीमित रहा है. 2012 में तो 230 प्रत्याशियों को टिकट दिए गए. यूपी की 100 सीटों पर 30, 140 सीटों पर 20 और 40 सीटों पर जहां 60 से 70 फीसदी मुस्लिम मतदाता हों, वहां जीत का अंतर काफी कुछ कह देता है. सांप्रदायिक ध्रुवीकरण नहीं होता, सत्ता का ध्रुवीकरण होता है. कोई भी अकेले वोटों से नहीं जीतता. दो बड़े वर्ग मिलकर ही उलटफेर करते हैं.
इस बार की तस्वीर तो और उलट नजर आती है. पहले यह समाज बात-बात पर अपनी उग्र प्रतिक्रिया दे देता था. अब वह खामोश है. एक-दो पार्टियों को छोड़कर ज्यादातर ने मुस्लिम राजनीति के चेहरे बदले हैं. अल्पसंख्यकों की वैचारिक संस्थाओं ने भी अपना रुख बदला है. दारुल उलूम जैसी संस्था ने राजनीतिक दलों और उनके प्रत्याशियों की नो-एंट्री कर दी है. जब एआईएमआईएम जैसी पार्टी ब्राह्मणों और जाटवों को टिकट देने लगे, तब क्या समझा जाए? मजबूरी या बदलती चाल? विडंबना यह है कि तमाम तंजीमें और नेता यह बात समझ नहीं रहे कि राजनीति एकतरफा नहीं होती और गणित में बिना प्लस कुछ नहीं होता. सियासत सबको साथ लेने से चलती है.
(लेखक हिंदुस्तान अख़बार के मेरठ संस्करण के संपादक हैं, यह लेख हिंदुस्तान से सभार लिया गया है)