भारतीय मीडिया द्वारा एक व्यक्ति को महामानव बनाने की कोशिशों की कीमत देश के छात्र चुका रहे हैं…

भारत की जनता को इस पर गंभीरता से सोचने की ज़रूरत है कि वो एक हाड़ मांस के इंसान को महामानव बनाने की कितनी कीमत चुकायेंगे और कब तक चुकायेंगे! ये भी सोचने की ज़रूरत है कि एक इंसान को महामानव बनाने के लिए सैकड़ो टीवी चैनल, हज़ारों करोड़ के आईटी सेल और देश भर के अख़बार किसके कहने पर काम कर रहे हैं! टीवी चैनल हों या अख़बार, सबका वजूद मुनाफ़ा कमाने पर टिका है, यहाँ बोले या लिखे जाने वाले एक-एक शब्द की कीमत तय होती है। ऐसे में जब ये 24×7 एक व्यक्ति को महामानव बनाने में खर्च कर रहे हैं तो इसकी कीमत कौन और कहाँ से चुका रहा है!

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ऐसा नहीं है कि दूसरे देशों की मीडिया यहाँ से बहुत बेहतर है, सूचना आज ऐसा टूल है जिसका उपयोग बहुउद्देशीय है, यहाँ तक कि सूचना किसी भी दूसरे हथियार से ज़्यादा घातक है, इसलिए जिनका दुनिया की सम्पदा पर नियंत्रण है वो सूचना को अपने नियत्रण को प्रभावी बनाने के लिए इस्तेमाल करते हैं, पर क्या एक नागरिक के रूप में हम सिर्फ़ इसलिए हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाएँ कि सूचना का इसी तरह सभी लोग इस्तेमाल करते हैं? वक़्त का बदलाव कभी किसी के रोके रुका नहीं है, आज तक कोई भी ताक़त वक्त से ज़्यादा ताक़तवर साबित नहीं हुई है, और इंसानी दुनिया में वक़्त को हमेशा आम इन्सानों ने बदला है, आगे भी यही होने वाला है, लेकिन ये होगा तब जब हम ऐसा करने के लिए तैयार हों। एक तो ये कि हम तैयारी करें, दूसरा ये कि वक़्त हमें मजबूर कर दे कि हम वक्त के ज़ालिमों से लड़ें, पहला रास्ता हमेशा ही अच्छा माना जाता है।

हमारी सरकार पिछले कुछ सालों में देश और देश के बाहर पूरी तरह नाकाम रही है, ये तो सूचना तंत्र पर कब्ज़ा कर लिया गया है जिससे महानता के गीतों का प्रसारण लगातार बना हुआ है वरना हक़ीकत इतना तीखा है कि इन्कलाब के अलावा आज कोई और विकल्प नहीं है। नोटबंदी के फैसले को जिस तरह लागू किया गया, लोग बरबाद हो गये, बीमारों का इलाज नहीं हो पाया, शादी-व्याह के काम रुक गये और लोगों का कारोबार नष्ट हो गया, जबकि नोटबंद करने के फ़ैसले के बावजूद इस तबाही से बचा जा सकता था।

GST में यही हुआ, लॉकडाउन में यही हुआ और कोरोना में तो लगा ही नहीं कि इस देश में सरकार नाम की कोई चीज़ है। नेपाल में भूकंप के मौक़े पर भी एक शख्श को महामानव बनाने की जो मुहीम चलाई गयी, उससे न सिर्फ़ हमने नेपाल को एक साथी के रूप में खो दिया बल्कि आज वो चीन का सहयोगी हो चुका है। भारत का हर पड़ोसी आज भारत के विरोधी खेमे हैं।

ईरान का साथ हम अमेरिकी घुड़की के नतीजे में छोड़ चुके हैं। जबकि ऐसी घुड़की इंदिरा गाँधी को भी मिली थी लेकिन उन्होंने झुकने से न सिर्फ़ इंकार किया था बल्कि पाकिस्तान को तोड़ने के अपने मकसद को सफलतापूर्वक अंजाम दिया था, इसके बावजूद उन्होंने मीडिया को खुद को महामानव बनाने की मुहिम में नहीं लगाया था। अफगानिस्तान में भारत का हज़ारों करोड़ का इन्वेस्टमेंट लगभग डूब चुका है और चाइना के सामने हमारी कमज़ोरी दुनिया के सामने नुमायाँ हो चुकी है।

यूक्रेन में फंसे भारतीय छात्रों के मामले को जिस तरह डील किया जा रहा है, इससे एक बार और देश का नाम ख़राब हो रहा है। यहाँ भी एक व्यक्ति को महामानव बनाने की भारतीय मीडिया के कोशिशों की कीमत देश के छात्र चुका रहे हैं। अरब में जब लड़ाई हुई, इराक व लेबनान से एक लाख से ऊपर भारतीय समफलता पूर्वक देश वापस लाये गये थे, जिस तरह आज मीडिया किसी को महामानव बनाने के लिए पागलपन की हद तक जाने में कोई गुरेज़ नहीं कर रही है, क्या ऐसा उस वक़्त हुआ था? आज तो महज़ 20 हज़ार के लगभग छात्रों को निकालने की चुनौती है, लेकिन लग नहीं रहा है कि सभी छात्र सकुशल वापस आ जायेंगे।

क्या ये सोचने की ज़रूरत नहीं कि जो भारत कल तक अमेरिका की आंख में आंख डाल कर बात कर सकता था, आज उसकी एक घुड़की पर क्यों डरने लगा? ऐसा क्या हो गया कि आज भारत से रोमानिया और यूक्रेन की जनता नाराज़ है और वो यहाँ के छात्रों के साथ सहयोग करने को तैयार नहीं है? जब देश का नेता एक महामानव है तब ही ऐसी हालत क्यों हो रही है?

एक नागरिक के तौर पर सोचिये कि आपके बीच ये छवि कैसे बन गयी कि जैसे 2014 से पहले ये देश था ही नहीं, जैसे ये इस देश में सब कुछ पहली बार हो रहा है। अगर देश के अब तक के हुक्मरां इतने अयोग्य थे तो जो सरकारी उपक्रम साहेब बेच रहे हैं वो कहाँ से आये हैं, जिन अस्पतालों में आपका इलाज होता है, जिन यूनिवर्सिटीज में आप पढ़ते हैं, वो सब साहेब के पहले के हुक्मरानों ने बनाये हैं, क्या इसे समझने के लिए किसी राकेट साइंस की ज़रूरत है?

2014 के बाद देश के भीतर जिस तरह सरकार ने जनता से अलग रास्ते पर चलना शुरू किया, जिस तरह पूंजीपतियों की लूट बेलगाम हुई, जिस तरह प्रशासन और न्यायतंत्र से लोगों का भरोसा उठा है, जिस तरह कोर्ट के फैसले कानून और न्याय की सीमा से बाहर जाते दिखाई दिए, जिस तरह धर्म और जाति के नाम पर गुंडई रोज़मर्रा के जीवन का हिस्सा बना क्या ये आपको हैरान नहीं करता? बहुत से लोगों को लगता है कि ये सब 2014 के बाद एक दम से हो गया, मैं इससे सहमत नहीं हूँ।

भारत का मानस अन्याय और असमानता के मूल्यों के साथ सदियों से तालमेल बिठाकर चल रहा है और इसी को नैसर्गिक न्याय मानता है, 2014 से पहले हुकूमतों ने अपनी ओर से प्रशासनिक सख्ती बरती हुई थी, आज न सिर्फ़ वो सख्ती नहीं है बल्कि धर्म और जाति के आधार पर अब तक विकसित हुई तहज़ीब को रौंदने का मुहिम छेड़ दिया गया है। नतीजा सामने है। हम अंतराष्ट्रीय स्तर पर एक निरीह देश बन चुके हैं और देश के अन्दर पूरी तरह खोखले हो चुके हैं। अगर एक पार्टी के महज़ आठ सालों के कार्यकाल में देश का ये हाल है तो सोचिये अगर इन्हें आगे भी इसी तरह काम करने का मौका मिला तो ये देश का क्या करेंगे?

ऐसे में हम क्या करें? खुद से सवाल कीजिये कि आपकी वो कौन सी ज़रूरतें हैं जिनको पूरा करना राज्य की जिम्मेदारी है? फिर ये पूछिए कि क्या ये ज़रूरतें पूरी हो रही हैं? अगर नहीं हो रही हैं तो हुक्मरानों से लड़िये, इन्हें आपने अपने लिए चुना है पूंजीपतियों लिए नहीं। याद रखिये, देश में ऐसी हर चीज़ जिसकी आपको ज़रूरत है, आपकी आवश्यकता के से भी ज़्यादा है और आप लड़ेंगे तो ये सब आपको हासिल भी हो सकता है। हाँ इसके लिए आपको धर्म और जाति के नाम पर लड़ना बंद करना पड़ेगा, कर पाएंगे?