फिलस्तीन का संघर्ष पूरी दुनिया के स्वतंत्रता संग्रामों के लिए एक प्रेरणास्रोत है, यह सिर्फ इस्लामी नहीं बल्कि इंसानी….

अख़लाक उस्मानी

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फिलिस्तीनी कारण के लिए इस्लामिक वर्ल्ड की भूमिका और कर्तव्यों पर चर्चा करने के लिए इस बहुत ही मूल्यवान सम्मेलन पर निमंत्रण के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। भारत के गौरवशाली राष्ट्र होने के नाते, मुझे भारत के हमारे राष्ट्र के ऐतिहासिक शब्दों को याद करना चाहिए, महात्मा गांधी ने कहा- “फिलिस्तीन उसी अर्थ में अरबों से संबंधित है जैसे इंग्लैंड में अंग्रेजी या फ्रांस से संबंधित है… फिलिस्तीन में आज जो चल रहा है वह किसी भी नैतिक आचार संहिता से उचित नहीं हो सकता है… यदि वे [यहूदी] फिलिस्तीन को देखना चाहते हैं भूगोल उनके राष्ट्रीय घर के रूप में, ब्रिटिश बंदूक की छाया में इसे दर्ज करना गलत है।“

मात्र मुस्लिम नहीं, किसी भी स्वतंत्रता और मानवता में विश्वास रखने वाले देश और समुदाय का नैतिक कर्तव्य है कि वह फिलस्तीन के स्वतंत्र अस्तित्व का पक्षधर होना चाहिए। इतिहास पर नज़र डालने पर पता चलता है कि मुस्लिम देशों ने ही नहीं, भारत जैसे गुट निरपेक्ष देशों और सरकारों ने फिलस्तीनियों के घर वापसी और स्वतंत्र राष्ट्र के विचार का हमेशा समर्थन किया है।

पूरी दुनिया पर हावी ज़ायोनी

आज पूरी दुनिया में ज़ायोनी विचार हावी है। किसी को बाज़ार, किसी को प्रतिबंध, किसी को अमेरिकी धमकी और किसी को युद्ध थोपकर ना सिर्फ इस्लामी दुनिया को कमज़ोर करने का विचार ज़ायोनी शैतानी दिमाग की ही उपज है। यह विचार अब इतना पेचीदा बन गया है कि इस्लामी दुनिया में भी ज़ायोनी समर्थक उभर आए हैं। यह मुस्लिम शक्ल में जायोनी ही हैं। मेरा सीधा मत है कि जो भी फ़िलस्तीन के विचार और फिलस्तीन के स्वतंत्र राष्ट्र का विरोधी है, वह इस्लाम का भी विरोधी है। क्या यह हैरानी की बात नहीं कि जिस यरूशलम में स्थित मस्जिद अक्सा का ज़िक्र क़ुरआन के 17.1 में आया है, आज उसकी परवाह को छोड़कर कुछ भ्रष्ट मुस्लिम तानाशाह जायोनी शक्तियों के पूजक बन गए हैं।

मुस्लिम दुनिया के लिए फिलस्तीन के मुद्दे पर दुगुना काम बढ़ गया है। पहले वह सभी मुस्लिम शक्तियों को आवाज़ देते थे तो फिलस्तीन के मुद्दे पर सब एक जगह जमा हो जाया करते थे लेकिन जो परम्परा सऊदी अरब ने शुरू की है, वह मुसलमानों के लिए शर्मिन्दगी का कारण बन गई है। मुस्लिम देशों को अब ना सिर्फ ज़ायोनी शक्तियों से फ़िलस्तीन, यरूशलम, मस्जिद अक्सा और फिलस्तीनियों के बचाव का मार्ग तलाशना है, बल्कि उन्हें ऐसी शक्तियों की भी पहचान करनी है जो इस्लाम का चोला ओढ़कर इस्लाम के इतिहास और क़ुरआन के पवित्र संदेशों की अवहेलना करना चाहते हैं।

ख़िलाफत ए उस्मानिया और फिलिस्तीन

उस्मानियों के पतन और ब्रिटिश-अमेरिकी साज़िश के साथ फिलस्तीन को जायोनी शक्तियों को सौंपकर उस पर विदेशी इजराइलियों को कब्जा देने की साजिश का किसी ने जवाब दिया है तो वह सिर्फ दो शक्तियां हैं। पहले फिलस्तीनी खुद और इसके बाद इमाम ख़ुमैनी। अल्लाह एक रास्ता बंद करता है तो दूसरा खोल देता है। मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि फिलस्तीन के लिए मुसलमान या इस्लामी देश क्या कर सकते हैं, इसके लिए यह जान लेना काफ़ी है कि इमाम ख़ुमैनी और इसके बाद के ईरान के सुप्रीम लीडर अली खामनेई साहब ने क्या विचार और रीति बताई है। मुझे नवम्बर 2017 का अली ख़ामनेई का वह बयान याद आता है जो उन्होंने International Conference on Ahlul Bayt and Countering Takfiris में दिया था। जब वह कहते हैं कि फिलस्तीन वापस फिलस्तीनियों को मिलेगा, तो इस पर विश्वास करने का मेरा बहुत दिल है। इस वाणी का मिलन इमाम मेहदी की भविष्यवाणी से होता है। अहले सुन्नत का सूफी विचारधारा का होने के नाते मैंने पाया है कि आज जिस तरह ईरान पूरी दुनिया में इस्लामी मूल्य संस्कृति को बचाने की कोशिश करता आ रहा है, फिलस्तीन की आज़ादी के लिए ईरान से बेहतर विचार, योजना और कार्यक्रम किसी भी देश के पास नहीं है। ईरान तकफीरी आतंकवाद को मुंहतोड़ जवाब देने, विज्ञान के प्रसार, चरित्र एवं ज्ञान के प्रसार और फिलस्तीन के हवाले से विस्तारवादी शक्तियों का पर्दाफाश करने के लिए काम कर रहा है, इससे सीखने की नितांत आवश्यकता है।

अली खामनेई साहब ने जब अपने संभाषण में कहा था कि मुसलमानों को लड़ाने और इस्लाम को कमज़ोर करने के अमेरिकी और ज़ायोनी योजना में कुछ मुस्लिम देशों के रहनुमा मदद कर रहे हैं। यह सत्य बात है। इसीलिए मेरा विचार है कि जो दुगुना काम मुस्लिम समुदाय के सम्मुख आ गया है, वह यही है कि फिलस्तीन की मदद तब बेहतर कर पाएंगे अगर सबसे पहले मुस्लिम चेहरों के साथ इस्लाम विरोधी शक्तियों के बारे में सबको जागरूक करें। यह तकफीरी आंतकवादी फिलस्तीन के विचार ही नहीं पूरी इस्लामी उम्मा को बर्बाद करने में तुले हैं।

तफकीरी और ज़ायोनी

ज़ायोनी और तकफीरी गठबंधन के बारे में जो जानकारी, खुफिया सूचनाएं और इससे निपटने का जो कार्यक्रम ईरान के पास है, वह किसी इस्लामी देश के पास नहीं है। मुस्लिम देशों को चाहिए कि वह बिना किसी वैचारिक टकराव के ईरान के साथ सहयोग बढ़ाएं। जो परम्परा इमाम ख़ुमैनी ने शुरू की थी कि फिलस्तीन के मुद्दे को वह समर्थन देते रहेंगे, मुझे विश्वास है कि कोई भी इस्लामी देश यदि ईरान से इस मुद्दे पर सहयोग की मांग करेगा तो वाकई फिलस्तीन की सच्ची मदद कर पाएगा। आपसी कारोबार में डॉलर, यूरो और पाउंड की निर्भरता को इस्लामी देश घटाएं ताकि जो एक नकली मौद्रिक ढांचा अमेरिकी विस्तारवाद के लाभ के लिए खड़ा किया गया है, उसमें गिरावट आए। इससे जो बचत होगी, उसका लाभ भी वह फिलस्तीन के हक में खर्च कर सकते हैं।

मुझे लगता है कि इस्लामी देश अपने विश्वविद्यालयों में राजनीति विज्ञान की पढ़ाई करते हैं, वह फिलस्तीन पर अलग विभाग का निर्माण करें ताकि क़ुरआन में मस्जिद अक्सा के संदर्भ, पैगम्बर हजरत मुहम्मद के मेराज पर जाने से पहले इमामत से लेकर इस पवित्र भूमि पर जायोनी कब्जे तक का सही ज्ञान हमारे शोधार्थियों को मिलता रहे।

भारत में फिलस्तीन को अभी भी अरब कॉन्फ्लिक्ट के बिन्दु के तौर पर पढ़ाया जाता है। फिलस्तीन की स्वतंत्रता की वकालत करने वाली जनता भारत, वेनेज़ुएला और क्यूबा जैसे देशों में भारी संख्या में मौजूद है। इन गैर इस्लामी देशों के छात्रों को इस्लामी देशों के विश्वविद्यालयों में फिलस्तीन की पढ़ाई और शोध के लिए मुफ्त कोर्सेज का इंतजाम करना चाहिए। फिलस्तीन का मुद्दा बेशक मुसलमानों और इस्लामी दुनिया के लिए महत्वपूर्ण है लेकिन हमें यह याद रखा जाना चाहिए कि फिलस्तीन का संघर्ष पूरी दुनिया के स्वतंत्रता संग्रामों के लिए एक प्रेरणा का काम करता है। यह मुद्दा इस्लामी के साथ साथ इंसानी भी है। इस्लामी देशों को फिलस्तीन के मुद्दे की धर्म निरपेक्षता को भी बचाए रखना है।

(अख़लाक उस्मानी वरिष्ठ पत्रकार एंव मुस्लिम जगत के स्पेशलिस्ट हैं)