आलोक कुमार मिश्रा
जन्मना सवर्ण होने के कारण ही मेरे इर्द-गिर्द सवर्णों की सशक्त उपस्थिति है। हालाँकि मेरे दोस्तों-परिचितों में पर्याप्त विविधता भी है। जो मुझे और पृष्ठभूमियों और नजरियों से परिचित कराती रहती हैं। भारतीय राजनीति की एक मुख्य नेत्री मायावती जी को लेकर समाज में चलने वाले हर तरह के विमर्श मुझ तक आ ही जाते हैं खासकर सवर्णों के बीच चलने वाली बातें तो निश्चित ही। मुझे यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं कि उनमें से बहुत सी बातें कचरा किस्म की होतीं हैं जो बेशक जातीय दंभ और कुंठा से पैदा हुई हैं। वरना एक ऐसी नेता जो चार बार भारत के सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य की मुख्यमंत्री रहीं हों, जिसके शासन काल में उत्तम कानून व्यवस्था की बात को विपक्ष के लोग भी स्वीकारते हों, जिसने सदियों से दमित दलित आकांक्षा और विश्वास को एक नई जमीन दी हो, उसे लेकर बातें सिर्फ़ उनकी जाति, शारीरिक बनावट और काशीराम जी से उनके संबंधों को लेकर बनावटी गॉशिप तक ही घूम-फिरकर सीमित न रहती।
कुछ लोग इस मीन-मेख और आलोचना में प्रदेश भर में हाथियों की मूर्तियाँ बनवाने, भ्रष्टाचार के आरोप लगने जैसी बातों को शामिल कर तार्किक होने की कोशिश भी करते दीखते हैं। पर जब उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता वाले दलों की कारगुजारियों को तटस्थ होकर देखा जाता है तो मायावती और उनका दल उन्नीस ही साबित होते हैं बीस नहीं। ऐसे आलोचकों को कभी अपने प्रिय नेताओं पर लगे भ्रष्टाचार के बड़े आरोप नहीं दिखते, दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति बनाने और कई मूर्तियाँ बनवाने की घोषणाएं नहीं दिखतीं। इसी से पता चलता है कि जड़ कहीं और है। ध्यान रहे मायावती पर भ्रष्टाचार के जो आरोप हैं अभी सिद्ध नहीं हुए हैं।
एक नेता के तौर पर मैं भी मायावती की राजनीति का बहुत कायल नहीं हूँ (हालांकि कभी था।) खासकर पिछले कुछ वर्षों में विपक्ष में रहते हुए सत्ता पक्ष के प्रति उनके समर्पण, साम्प्रदायिकता पर ढुलमुल रवैए और दलित-बहुजन मुद्दों पर भी जमीन पर न उतरकर संघर्ष करने के कारण। पर ये वजहें राजनीतिक रूप से उनका समर्थक रहने या न रहने की ही वजह बन सकतीं हैं। उनके प्रति नफ़रत पालने, कुंठित होने की नहीं। यदि ऐसा होगा तो इसकी जड़ वहीं मिलेगी।
इसी संदर्भ में अभिनेता रणदीप हुड्डा के निंदनीय वीडियो पर भी मैं कुछ कहना चाहूँगा। वैसे तो अभिनेता का वीडियो मैंने देखा नहीं है पर कंटेंट के बारे में सुन लिया है जो मेरी नज़र मे अक्षम्य है। वैसे इस वीडियो को 2012 का बताया जा रहा है। हालाँकि ये है तो गलत ही। हाँ अभिनेता यदि इस पर आगे आकर खुले दिल से माफी माँगे तो नरमी की बात सोची जा सकती है जो मेरे ख्याल से उन्होंने अभी तक किया नहीं हैं। मैं ये मानता हूँ कि इंसान समय के साथ सीखता रहता है। वैसे जो अपने आसपास के किसान भाइयों के पक्ष में पिछले छः महीने से जुबान न खोल पाया हो उससे ऐसी उम्मीद करना ही बेमानी है। हमारे यहाँ जातीय दंभ और पहचान जन्म से ही मिल जाते हैं। गरिमा, सम्मान और समानता तो बहुत सी डीलर्निंग के बाद लर्न करना होता है। हो सकता है रणदीप ने आगे चलकर इसे सीखा हो, पर वह इसका इज़हार तो करें। बड़े तबके की इस पर चुप्पी भी दरअसल उसी जातीय दंभ और कुंठा की ही झलक है, कुछ और नहीं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)