गिरीश मालवीय
पत्रकारिता की सबसे बड़ी समस्या अब ‘सकरात्मक पत्रकारिता’ है , मै इसे सकरात्मक नहीं बल्कि ‘सरकारात्मक’ कहता हूँ, ऐसे बहुत से पत्रकार हमारे आसपास स्लीपर सेल की तरह मौजूद रहते है और जैसे आप कुछ आलोचनात्मक टिप्पणी करते वो आकर ‘सकरात्मक’ रहने उर्फ़ ‘सरकारात्मकता’ की पुपड़ी बजाने लगते है.
पत्रकार सौमित्र रॉय की टिप्पणी सरकारी दावों की पोल खोलती है। ‘कोरोना काल में आंकड़ों को दबाना एक गंभीर अपराध है। यह अपराध मोदी सरकार के साथ मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह सरकार भी कर रही है। सरकार की कोरोना बुलेटिन में ये जानकारी नहीं है कि कितने सैंपल लैब में जांच के लिए पेंडिंग हैं। लॉक डाउन की मार से बेहाल कंगाल हो रही राज्य की मीडिया इस पर कोई खबर नहीं छापती, क्योंकि मामा जी के विज्ञापन रुक जाएंगे।
द हिन्दू ने 4 दिन पहले रिपोर्ट किया कि मध्यप्रदेश के 9000 सैंपल पेंडिंग हैं। न्यूज़ 18 यह संख्या 8000 बताता है। ये बहुत बड़ी संख्या है। चिंता की बात खासकर इसलिए है, क्योंकि एमपी में कोरोना से मृत्यु दर 5.77% यानी महाराष्ट्र से भी ज़्यादा है। 7 लाख की आबादी वाले उज्जैन में मृत्यु दर 21% है तो दवास में 27%. भोपाल-इंदौर के मीडिया घरानों के लिए ऐसी खबरों को दबाना डूब मरने वाली बात है।
असल में मध्यप्रदेश के मीडिया घराने शुतुरमुर्ग की तरह रेत में मुंह घुसाए मामा के इस मुगालते में खोए हैं कि सरकार कोरोना से जंग जीत रही है। आज मध्यप्रदेश में कुल 91 मरीज़ सामने आए। लेकिन भोपाल की बात करें तो कुछ भक्त पत्रकार यूं लिख रहें हैं, मानो कोरोना मुस्लिम इलाकों में ही पसरा हुआ है। दारू की दुकानें खुल गई हैं। नशा अब रात और दिन दोनों वक़्त रहता है। सो बेखुदी में ही खबर उड़ाई जा रही है। ज़रा सोचिए कि जांच रिपोर्ट आने से पहले ही अगर मरीज़ की मौत हो तो शंका-कुशंकाओं के बीच उसे किस खाते में दर्ज करेंगे? बस, मामा जी के मध्यप्रदेश में यही हो रहा है। मौत खुलकर तांडव कर रही है और सरकार के समर्थक दारु पीकर सरकारी गाना गा रहे हैं।