रेहान फज़ल
चौधरी चरण सिंह सिर्फ़ एक राजनीतिज्ञ, एक किसान नेता, एक पार्टी के अध्यक्ष और एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री का नाम ही नहीं था, चरण सिंह एक विचारधारा का भी नाम था।चरण सिंह की राजनीति में कोई दुराव या कोई कपट नहीं था, बल्कि जो उन्हें अच्छा लगता था, उसे वो ताल ठोक कर अच्छा कहते थे, और जो उन्हें बुरा लगता था, उसे कहने में उन्होंने कोई गुरेज़ भी नहीं किया। वरिष्ठ पत्रकार क़ुरबान अली जिन्होंने उनके व्यक्तित्व को बहुत नज़दीक से देखा है, बताते हैं, ”उनका बहुत रौबीला व्यक्तित्व होता था, जिनके सामने लोगों की बोलने की हिम्मत नहीं पड़ती थी। उनके चेहरे पर हमेशा पुख़्तगी होती थी। हमेशा संजीदा गुफ़्तगू करते थे। बहुत कम मुस्कुराते थे। मैं समझता हूँ एकआध लोगों ने ही उन्हें कभी कहकहा लगाते हुए देखा होगा। वो उसूलों के पाबंद थे और बहुत साफ़-सुथरी राजनीति करते थे।”
वो बताते हैं, ”राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान वो महात्मा गाँधी और कांग्रेस की मिट्टी में तपे। 1937 से लेकर 1977 तक वो छपरौली – बागपत क्षेत्र से लगातार विधायक रहे। प्रधानमंत्री बनने के बावजूद मैंने कभी नहीं देखा कि उनके साथ किसी तरह का कोई लाव – लश्कर चलता हो।” ”वो मामूली सी एंबेसडर कार में चला करते थे। वो जहाज़ पर उड़ने के ख़िलाफ़ थे और प्रधानमंत्री होने के बावजूद लखनऊ ट्रेन से जाया करते थे। अगर घर में कोई अतिरिक्त बल्ब जला हुआ है तो वो डांटते थे कि इसे तुरंत बंद करो। मैं कहूंगा कि चौधरी चरण सिंह भारतीय राजनीति के ऐसे व्यक्तित्व थे, जिन्होंने न्यूनतम लिया और अधिकतम दिया।”
कोर्टपीस खेलने के शौकीन
चौधरी चरण सिंह से लोगों का रिश्ता दो तरह का हो सकता था – या तो आप उनसे नफ़रत कर सकते थे या असीम प्यार। बदले में आपको भी या तो बेहद ग़ुस्सा मिलता था या अगाध स्नेह। उनका व्यवहार कांच की तरह पारदर्शी और ठेठ देहाती बुज़ुर्गों जैसा हुआ करता था। चौधरी चरण सिंह के नाती और चरण सिंह अभिलेखागार का काम देख रहे हर्ष सिंह लोहित चरण सिंह की शख़्सियत के कुछ दूसरे पहलुओं पर रोशनी डालते हुए कहते हैं, ”कम लोगों को मालूम होगा कि वो संत कबीर के बड़े अनुयायी थे। कबीर के कितने ही दोहे उन्हें याद थे। वो धोती और देसी लिबास पहनते थे और एक पुरानी ‘एचएमटी’ घड़ी बाँधते थे, वो भी उल्टी। वो सौ फ़ीसदी शाकाहारी थे। तंबाकू और सिगरेट के सेवन का कोई सवाल ही नहीं था।”
हर्ष सिंह लोहित बताते हैं, ”अगर वो जानते हों कि आपका शराब से कोई ताल्लुक है तो आपकी और उनकी कभी बात हो नहीं सकती थी। जब भी कोई उनके घर आता था, वो अदब से उनको छोड़ने उनकी गाड़ी तक जाया करते थे और जब तक गाड़ी चल नहीं देती थी, वो वहीं खड़े रहते थे। कई बार तो ऐसा होता था कि कोई गाँव से आया हो, चाहे वो हमारा जानकार हो या नहीं, वो उसे अपनी गाड़ी से स्टेशन छुड़वाया करते थे। दिल्ली में वो तुग़लक रोड पर रहा करते थे।”
वो कहते हैं, ”हमारे पिता सरकारी मुलाज़िम थे और राममनोहर लोहिया अस्पताल के मेडिकल सुपरिनटेंडेंट हुआ करते थे। हम लोग लोदी स्टेट में रहा करते थे और हम लोगों के घरों के बीच दस मिनट की दूरी हुआ करती थी। वो अक्सर हमारे माता पिता को अपने घर बुला लेते थे और एक ज़माने में दिल्ली विश्वविद्यालय के उप कुलपति रहे डॉक्टर सरूप सिंह और ये सब मिलकर कोर्ट पीस खेला करते थे। शाम को घंटा डेढ़ घंटा कोर्ट पीस और हंसी मज़ाक- यही उनका तनाव को कम करने का तरीका होता था।’
रोते हुए छोड़ी थी कांग्रेस
लगातार 40 सालों कर कांग्रेस पार्टी का सदस्य रहने के बाद उन्होंने 1967 में पार्टी से इस्तीफ़ा दिया और एक साल बाद भारतीय क्रांति दल का गठन किया था। क़ुरबान अली बताते हैं, ”बहुत पढ़े लिखे शख़्स थे चौधरी चरण सिंह। 1946 में वो संसदीय सचिव हो गए जिसका कि मंत्री का दर्ज़ा होता था। उसके बाद वो लगातार कैबिनेट मंत्री रहे। जब सुचेता कृपलानी मुख्यमंत्री हुईं तो उन्हें लगा कि शायद उन्हें पीछे छोड़ा जा रहा है। उसी वक़्त ग़ैर-कांग्रेसवाद की राजनीति शुरू हुई। कांग्रेस के सी बी गुप्ता ने सरकार बना ली। उस वक्त सोचा गया कि अगर कांग्रेस का कोई नेता टूट कर आ जाए 10-12 विधायकों के साथ , तो एक ग़ैर-कांग्रेसी सरकार बनाई जा सकती है।”
वो बताते हैं, ”जब इनसे स्थानीय विपक्षी नेताओं ने बात की तो उन्होंने कहा कि मुझे तुम पर विश्वास नहीं है। तुम अपने केंद्रीय नेताओं से मेरी बात कराओ। तब इनकी राम मनोहर लोहिया और अटल बिहारी वाजपेई से बात कराई गई। उन्होंने कहा चौधरी साहब आप हिम्मत करिए और कांग्रेस छोड़िए। हम आपको मुख्यमंत्री बनाएंगे।” ”जब 1 अप्रैल, 1967 को उन्होंने कांग्रेस छोड़ी तो उन्होंने ज़ारोक़तार रोते हुए भाषण दिया कि सारी उम्र उन्होंने कांग्रेस संस्कृति में बिताई है। अब उसे छोड़ते हुए उन्हें बहुत तकलीफ़ हो रही है। दो दिन बाद चौधरी साहब ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली और उनके नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में पहली ग़ैर कांग्रेस सरकार बनी जो अद्भुत सरकार थी, जिसमें जनसंघ भी थी, सोशलिस्ट भी थी, प्रजा सोशलिस्ट भी थी, कम्यूनिस्ट भी थे और स्वतंत्र पार्टी भी थी।”
मोरारजी प्रधानमंत्री बने थे चरण सिंह के समर्थन से
1977 में आपातकाल समाप्त होने के बाद जनता पार्टी के गठन में भी चरण सिंह की महत्वपूर्ण भूमिका रही। क़ुरबान अली बताते हैं कि उनके समर्थन से ही जगजीवन राम की जगह मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। उस समय चौधरी साहब वेलिंगटन अस्पताल में भर्ती थे। जनता पार्टी के सभी सांसदों को जेपी ने गाँधी पीस फ़ाउंडेशन पर बुलाया। वहाँ नेता चुने जाने के लिए पर्चियाँ डाली जाने वाली थीं। उस वक़्त एक खेल खेला गया जिसमें राज नारायण का इस्तेमाल किया गया। सांसदों से कहा गया कि अगर आपने मोरारजी देसाई का समर्थन नहीं किया तो जगजीवन राम प्रधानमंत्री बन जाएंगे। कई सासंदों ने मुझे बताया कि चौधरी साहब ने बाद में अपनी भूल को माना और जगजीवन राम से भी माफ़ी मांगी कि उनकी वजह से वो प्रधानमंत्री नहीं बन पाए।
मोरारजी देसाई से चरण सिंह की तल्ख़ी
लेकिन इन्हीं चरण सिंह की जनता पार्टी सरकार को तोड़ने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही। दो वर्ष से कम समय में ही केंद्र में ग़ैर कांग्रेस सरकार का प्रयोग असफल हो गया और मोरारजी देसाई को अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा। पूर्व क़ानून मंत्री शाँति भूषण अपनी आत्मकथा ‘कोर्टिंग डेस्टेनी’ में चरण सिंह और मोरारजी देसाई के संबंधों की तल्ख़ी का बयान कुछ इस तरह करते हैं, ”1978 आते आते इस अपवाह ने ज़ोर पकड़ लिया कि चरण सिंह सरकार का तख़्ता पलटने वाले हैं। उन्हीं दिनों चुनाव सुधार पर एक मंत्रिमंडलीय समिति का गठन किया गया था जिसके सदस्य थे चरण सिंह, लालकृष्ण आडवाणी, प्रताप चंद्र चुंद्र और मैं खुद।’ वो बताते हैं, ”इस समिति की बैठक ठीक 11 बजे हुआ करती थी। एक दिन चरण सिंह इस बैठक में देर से पहुंचे और हम सब को अपना इंतज़ार करते देख बहुत शर्मिंदा हुए। फिर वो बताने लगे कि उन्हें देर क्यों हुई। जब वो कार में बैठ रहे थे तो एक पत्रकार ने सवाल पूछ लिया कि क्या आप प्रधानमंत्री बनने के लिए बहुत तत्पर हैं? इस पर चरण सिंह को ग़ुस्सा आ गया और वो बोले कि प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा रखने में क्या बुराई है।”
”उल्टा उन्होंने उस पत्रकार से ही सवाल कर डाला कि क्या तुम एक अच्छे अख़बार के संपादक बनना नहीं पसंद करोगे? और अगर तुम ऐसा नहीं सोचते तो तुम्हारा जीवन निरर्थक है। फिर उन्होंने उस पत्रकार से कहा कि मैं एक दिन इस देश के प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा ज़रूर रखता हूँ। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि मैं मोरारजी देसाई को उनके पद से हटाने के लिए षडयंत्र कर रहा हूँ। चरण सिंह यहाँ पर ही नहीं रुके और बोले एक दिन मोरारजी देसाई मरेंगे और तब मैं प्रधानमंत्री बन जाऊं तो इसमें बुराई क्या है। मुझे लगा कि किसी जीवित व्यक्ति की मौत के बारे में कोई इस तरह बात नहीं करता। मुझे ये देख कर ताज्जुब हुआ कि चौधरी साहब मोरारजी देसाई की मौत के बारे में इतनी सहजता से बात कर रहे थे।”
पार्टी तोड़ने के लिए मजबूर हुए चरण सिंह
लेकिन उस समय चरण सिंह के नज़दीकी रहे और इस समय जनता दल (यू) के महासचिव के सी त्यागी मानते हैं कि चरण सिंह के सामने ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दी गईं कि उनके सामने पार्टी तोड़ने के सिवा कोई चारा नहीं रहा। केसी त्यागी बताते हैं, ”जो लोग पार्टी बनाए जाने के ख़िलाफ़ थे, वो लोग पार्टी के मालिक बन गए। चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में 100 से अधिक एमपी आए थे और दो बड़े मंत्रालय देकर लोक दल के घटक को बहलाने की कोशिश की गई। मोरारजी जिनके मुश्किल से 20-22 सांसद थे, उनके सात कैबिनेट मंत्री बनाए गए और पहले दिन से ही भारतीय जनसंघ, चंद्रशेखर के नेतृत्व का धड़ा और मोरारजी देसाई चरण सिंह को कमज़ोर करने की मुहिम में लग गए।”
”किसानों के हितों की भी अनदेखी होती रही और एक स्थिति ऐसी आ गई कि हमारे लिए जनता पार्टी में रहना ग़ुलामी जैसा हो गया। जो चौधरी चरण सिंह के बनाए हुए मुख्यमंत्री थे वो जनसंघ और अन्य नेताओं के षडयंत्र से हटाए जाने लगे। उत्तर प्रदेश से रामनरेश यादव, बिहार से कर्पूरी ठाकुर और हरियाणा से देवी लाल को हटा कर किसान विरोधी और पिछड़ा विरोधी सरकारें राज्यों में बनाई जाने लगीं। तब हमारे सामने उस पार्टी से अलग होने के सिवा और कोई रास्ता नहीं बचा।”
इंदिरा गांधी को कराया गिरफ़्तार
चरण सिंह ने जब गृह मंत्री के तौर पर इंदिरा गाँधी को गिरफ़्तार करने के आदेश दिए तो उस पर भी कई सवाल उठाए गए। अगले ही दिन मजिस्ट्रेट ने उनकी रिहाई के आदेश दे दिए। क़ुरबान अली बताते हैं, ‘ इंदिरा गाँधी के ख़िलाफ़ उनका पूर्वाग्रह तो पहले दिन से ही था। उनका मानना था कि जिस तरह इंदिरा गाँधी ने आपातकाल के दौरान एक लाख लोगों को फ़र्ज़ी मुक़दमें लगा कर जेल में बंद कर दिया था, उसी तरह से इंदिरा गाँधी को भी जेल में बंद किया जाना चाहिए।” ”एक बार उन्होंने इतनी सख़्त बात कही कि मैं तो चाहता हूँ कि इंदिरा गाँधी को क्नॉट प्लेस में खड़ा कर कोड़े लगवाए जाएं। लोग उन्हें समझाते भी थे कि लोकतंत्र में सबसे बड़ी सज़ा होती है कि जनता किसी व्यक्ति को चुनाव में हरा दे। जनता ने उनके ख़िलाफ़ अपना फ़ैसला सुना दिया है। लेकिन अगर आप उन्हें और तंग करेंगे तो इसका राजनीतिक लाभ उन्हें मिलेगा। इस मामले में मोरारजी देसाई भी उनके साथ थे। उन्होंने शाह कमीशन बनवाया। शाह कमीशन में इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ रोज़ गवाहियाँ और बयानात होते थे। आख़िरकार उन्होंने इंदिरा गाँधी को जेल भिजवा कर ही दम लिया।”
सरकार बनाने के लिए कांग्रेस का सहारा
चरण सिंह की उस समय भी बहुत किरकिरी हुई जब उन्होंने जनता पार्टी टूटने के बाद सरकार बनाने के लिए कांग्रेस का सहारा लिया, जिसने कुछ दिनों बाद ही उनकी सरकार से समर्थन वापस ले लिया। क़ुरबान अली कहते हैं, ”ये तो उनका बहुत ही बचपना था। उस समय संजय गाँधी सक्रिय थे। जनता पार्टी को पूरी तरह से तोड़ना उनका मक़सद था। राजनारायण तो पहले ही जनता पार्टी से निकाल दिए गए थे। चौधरी साहब तो वापस ले लिए गए, लेकिन जब राजनारायण को वापस लेने की बात आई तो मोरारजी देसाई ने साफ़ इंकार कर दिया। उनकी जगह रवि राय को ला कर स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया। राजनारायण बहुत विध्वंसक राजनीति करते थे।”
वो बताते हैं, ”जनता पार्टी में झगड़े बहुत बढ़ रहे थे, एक दूसरे के ख़िलाफ़ लेख लिखे जा रहे थे और रोज़ अनुशासनहीनता बढ़ रही थी, लेकिन चौधरी साहब ने आख़िरी वक़्त तक इन सबसे अपनेआप को अलग रखा। वो जनता पार्टी से इस्तीफ़ा देने वाले आख़िरी व्यक्ति थे। जब तक उनके साथ 82 सांसद इकट्ठा नहीं हो गए, उन्होंने इस्तीफ़ा नहीं दिया। इस्तीफ़ा देने के बाद उन्होंने कांग्रेस के दोनों धड़ों के समर्थन को ‘टेकेन फ़ॉर ग्रांटेड’ लिया।”
”इंदिरा गाँधी अपने 12 विलिंग्टन क्रेसेंट के निवास पर बैठी इंतज़ार कर रही थीं कि चौधरी साहब शपथ लेने के बाद उन्हें धन्यवाद देने आएंगे। लेकिन जब चौधरी साहब वहाँ आ रहे थे तो कहा ये जाता है कि उनके एक दामाद ने उनसे कहा कि आपको इंदिरा गाँधी के पास जाने की क्या ज़रूरत है, उल्टे इंदिरा गांधी को आपके पास आना चाहिए। उसी दिन इंदिरा गांधी ने चरण सिंह की सरकार गिराने का फ़ैसला ले लिया। यह भी भारत के इतिहास में दर्ज़ हो गया कि चौधरी साहब अकेले ऐसे प्रधानमंत्री थे जिन्होंने प्रधानमंत्री रहते कभी संसद का सामना नहीं किया। कुछ ही दिन में छठी लोकसभा भंग हो गई और चुनाव की घोषणा हो गई।”
जब चरण सिंह ने कोटे का स्कूटर वापस करवाया
इस सबके बावजूद चौधरी चरण सिंह ने सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी के जो प्रतिमान स्थापित किए उनकी आज के युग में कल्पना भी नहीं की जा सकती। उनके नाती हर्ष सिंह लोहित एक दिलचस्प किस्सा सुनाते हैं, ”हमारे मौसाजी वासुदेव सिंह आजकल अमरीका में रहते हैं। उन दिनों वो दिल्ली में काम करते थे। उस ज़माने में सब कुछ कोटे से मिलता था। उनको एक स्कूटर चाहिए था। उनको मालूम पड़ा कि मुख्यमंत्री का एक कोटा होता है स्कूटर बुक करने के लिए यूपी से।”
”वासुदेव सिंह ने चौधरी साहब के पीए से मिल कर एक स्कूटर बुक करा दिया। वो समय आने पर स्कूटर की डिलीवरी लेने लखनऊ आए। जब वो चरण सिंह से मिलने उनके घर पहुंचे तो उन्होंने उनके आने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि वो स्कूटर लेने आए हैं। जब चौधरी साहब को पूरी बात पता चली तो उन्होंने मौसाजी से तो कुछ नहीं कहा पर अपने पीए को बुला कर पूछा कि आपने इन्हें कोटे से स्कूटर कैसे दिलाया? ये उत्तरप्रदेश में तो रहते नहीं हैं। ये दिल्ली के रहने वाले हैं। आप तुरंत स्कूटर की बुकिंग कैंसिल करिए और इनके पैसे वापस दिलवाइए। बाद में हमारे मौजाजी वासुदेव सिंह ने मुझे बताया कि मेरा लखनऊ आकर चरण सिंह के साथ बैठना मुझे बहुत मंहगा पड़ गया।”
नाच गाना और फ़िल्में बिल्कुल पसंद नहीं थीं उनको
किताबें पढ़ने के भी वो शौकीन थे, लेकिन फ़िल्में वगैरह देखने से उनका दूर दूर का वास्ता नहीं था। हर्ष सिंह लोहित याद करते हैं, ”उनके पिक्चर जाने का सवाल ही नहीं था। अगर आप और हम लता मंगेशकर और मोहम्मद रफ़ी के गाने गाएं तो उसमें गोरी भी आएगी, प्यार भी आएगा। लेकिन उनकी ज़िंदगी में ये सब नहीं था। मुझे याद है लखनऊ में उन्होंने हमें सिर्फ़ एक पिक्चर देखने की इजाज़त दी थी और वो थी मनोज कुमार की उपकार।”
”जब वो गृह मंत्री थे तो एक बार हम उनके पास बैठे हुए थे। किन्हीं साहब ने गाँव पर एक पिक्चर बनाई थी जिसे वो चौधरी साहब को दिखाना चाहते थे। चौधरी साहब कोई ख़ास रुचि नहीं दिखा रहे थे। लेकिन जब उन्होंने बहुत इसरार किया तो उन्होंने पिक्चर शुरू करने की अनुमति दे दी। पिक्चर शुरू होने के कुछ देर बाद जैसे ही एक अभिनेत्री ने नाचना शुरू किया, उन्होंने उसी सेकेंड उसे बंद कराया और बाहर उठ कर चले गए।”
सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़
चौधरी चरण सिंह का सबसे बड़ा योगदान था हिंदु और मुस्लिम सांप्रदायिकता को कमज़ोर करना। उन्होंने हमेशा सांप्रदायिक दंगों को सख़्ती से कुचला। क़ुरबान अली बताते हैं, ”हालांकि इस्लाम के बारे में उनकी राय अच्छी नहीं थी। लेकिन वो मुस्लिम वोट बैंक और उसके मनोविज्ञान को बहुत अच्छी तरह समझते थे। वो मुसलमानों को चुनाव लड़ने के लिए बहुत टिकट देते थे। जब भी वो उत्तरप्रदेश में रहे या केंद्र में रहे, दंगों के ख़िलाफ़ उन्होंने बहुत कड़ा रुख़ अपनाया।” ”मुझे याद है कि 1977 से 1980 के बीच उत्तरप्रदेश में दो तीन बड़े दंगे हुए – अलीगढ़ ,बनारस और संबल में। उन्होंने मुख्यमंत्री रामनरेश यादव को बहुत सख़्ती से डांट कर कहा कि ये दंगे हर हालत में रुकने चाहिए।”
राजनीतिक विरासत पर संघर्ष
चरण सिंह की राजनीतिक विरासत पर कई लोगों ने अधिकार जमाने की कोशिश की, वो चाहे मुलायम सिंह यादव हों, महेंद्र सिंह टिकैत हों या जनता दल परिवार के अन्य नेता। क़ुरबान अली कहते हैं, ”उनकी विरासत कई जगह बंटी। आज जितनी भी जनता दल परिवार की पार्टियाँ हैं, उड़ीसा में बीजू जनता दल हो या बिहार में राष्ट्रीय जनता दल हो या जनता दल यूनाएटेड ले लीजिए या ओमप्रकाश चौटाला का लोक दल , अजीत सिंह का ऱाष्ट्रीय लोक दल हो या मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी हो, ये सब चरण सिंह की विरासत हैं।”
”आज कल व्यक्तिवादी और परिवारवादी राजनीति का बोलबाला है। कुछ कम्यूनिस्ट पार्टी को छोड़ दीजिए, कोई भी दल इस बीमारी से अछूता नहीं है। आप चरण सिंह पर जातिवादी होने का आरोप लगा सकते हैं, उन पर आप अवसरवादी होने का आरोप भी लगा सकते हैं, लेकिन उन पर भ्रष्टाचार का आरोप कभी नहीं लगा।”
”वो बहुत सादगी के साथ अपने आख़िरी दिनों में 12, तुग़लक रोड में रहते थे। उनकी पत्नी गायत्री देवी, जो कि सांसद भी थी, उन्हीं के हाथ का बना खाना खाते थे। चार चपाती, एक दाल और एक सब्ज़ी। इसके अलावा मैंने चौधरी साहब को कभी कुछ और खाते नहीं देखा। उन पर ये आरोप भी लगता था कि उनका भूगोल झाँसी तक सीमित था। ये बात सही है। उनको लगता था कि मैं चेन्नई में जा कर क्या करूंगा। वहाँ मेरी बात कौन सुनेगा?”
शोषित वर्ग की आवाज़
चरण सिंह इसलिए नहीं याद किए जाएंगे कि वो उत्तरप्रदेश, हरियाणा या राजस्थान में अपने बूते पर विधायक चुनवा सकते थे, या वो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री या भारत सरकार के गृहमंत्री थे, बल्कि इसलिए कि उन्होंने समाज के उस वर्ग को आवाज़ दी जो शोषित और उपेक्षित था और जिसकी कोई लॉबी नहीं थी। हालांकि इसकी कीमत उन्हें शहरी तबक़े के भारी विरोध और असहयोग से चुकानी पड़ी। अपनी समस्त कमज़ोरियों और भूलों के बावजूद चरण सिंह भारतीय राजनीति के असली ‘चौधरी’ थे।
(लेखक बीबीसी के वरिष्ठ पत्रकार हैं, यह लेख उनके फेसबुक वॉल से लिया गया है)