किसान आंदोलन में गोदी मीडिया के ‘पत्रकारों’ के बहिष्कार के मायने

शाहनवाज़ मलिक (पत्रकार)

शाहीन बाग़ आंदोलन और दिल्ली दंगे के बाद किसान आंदोलन में मुख्यधारा का मीडिया पूरी तरह नंगा हो गया है। युवा आंदोलनकारी टीवी पत्रकारों को धरना स्थल पर देखते ही गोदी मीडिया कहकर उनका मज़ाक बना रहे हैं। सरकार का अजेंडा सेट करने आ रहे ऐसे पत्रकारों को दुष्प्रचार फैलाने में बहुत मुश्किल हो रही है। बार-बार उन्हें भगाया और खदेड़ा जा रहा है।

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नागरिकता क़ानून विरोधी आंदोलन के दौरान भी ठीक यही हुआ था। शाहीन बाग़ के धरना स्थल पर गोदी मीडिया की निशानदेही करने वाली तख़्ती टांग दी गई थी। हालांकि गोदी मीडिया के कुछ पत्रकार अपनी पहचान छिपाकर आंदोलन में घुस गए थे। एक आरएसएस की मानसिकता की महिला तो बुर्का पहनकर घुस गई थी। एक दो दिन बाद मैंने देखा कि वही संघन गोदी मीडिया में बतौर विश्लेषक पैनलिस्ट और स्तंभकार के तौर पर नज़र आ रही थी।

एक दिन मैं धरना स्थल पर घूम रहा था तो मुझे चोरों की तरह घूमता गोदी मीडिया का एक पत्रकार नज़र आया। मैंने वहां घूम रहे कुछ लड़कों को बताया कि फलां पत्रकार किस नीयत से घूम रहा है। इसके बाद लोगों ने उसे धक्के मारकर धरना स्थल से बाहर भगाया।

अब हर आंदोलन में पहले यह तस्दीक की जा रही है कि कवरेज करने आया पत्रकार कहीं गोदी मीडिया का हिस्सा तो नहीं। पकड़े जाने पर ऐसे पत्रकारों को भगा दिया जा रहा है और छोटी-मोटी वेबसाइट्स चलाने वालों और यूट्यूबर्स को आंदोलनकारी हाथोंहाथ ले रहे हैं। इसे शुभ संकेत कह सकते हैं।

(लेखक पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)