द कश्मीर फाइल्स: हवा मत बनाइये!  न नफरत उपजती है न संवेदना!

धनंजय कुमार

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INOX  थियेटर, रघुलीला मॉल, कांदिवली, पश्चिम, मुंबई। इलाके के सांसद और विधायक दोनों बीजेपी के हैं। आसपास का इलाका जैन, मारवाड़ी, गुजराती और मराठी बहुल है। 11:45 यानी दोपहर का शो देखने गया था। सिनेमाघर हाउस फुल तो नहीं था, लेकिन ऑडियंस अच्छी खासी थी 50 परसेंट के करीब।

जब मैं हॉल में घुसा, तब फिल्म शुरू नहीं हुई थी, विज्ञापन चल रहा था परदे पर। बैठा कि फिल्म शुरू होने के लिए परदे पर अंधेरा हो गया, लगा राष्ट्रगान शुरू होगा पहले, लेकिन नहीं, सीधा फिल्म शुरू हो गई। मुझे लगा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का गीत बजेगा फिल्म रोककर, लेकिन वो भी नहीं हुआ। मन में ये सब इसलिए चल रहा था कि सोशल मीडिया पर संघ का गीत सिनेमा हाल में गाया गया, वाला वीडियो मैंने फ़ेसबुक पर कल ही देखा था।

बहरहाल फिल्म शुरू हो गई, न कोई सीटी बजी, न किसी ने तालियाँ बजाई; न किसी ने भारत माता की जय बोला और ना ही किसी ने मुसलमानों के खिलाफ कोई नारे लगाए। फिल्म देखने वाले ज्यादातर लोग 25 से ऊपर के थे, यानी यूथ वाली भीड़ नहीं थी, 35 प्लस वाले ज्यादा थे। महिलायें भी अच्छी खासी थीं। मेरे ठीक पीछे एक परिवार था, उसकी गोद में पाँच छः महीने का बच्चा था। एक रो आगे भी एक बच्ची थी एक-डेढ़ साल की। फिल्म शुरू हुई और तय समय पर इंटरवल हुआ, फिर फिल्म समाप्त हो गई, लेकिन एक बार भी किसी ने जयकारा नहीं लगाया, ताली नहीं बजाई। इतनी शांति से फिल्म देखी लोगों ने कि मजा आ गया !

इस फिल्म की समीक्षा के दो पक्ष हैं-एक फिल्म का पक्ष और दूसरा राजनीतिक पक्ष, जैसा कि लोग निकाल रहे हैं। पक्ष विपक्ष में बड़े बड़े आर्टिकल लिखे जा रहे हैं। सोशल मीडिया पर बाकायदा कई पोस्ट वीडियो वायरल हो रहे हैं। एक पोस्ट तो मैंने भी शेयर किया था अपने टाइम लाइन पर। कई पोस्ट पढे भी। मैं चूंकि फिल्म लाइन का बंदा हूँ इसलिए इस बात को लेकर खुश हुआ कि वाह, अब हमारे देश के बुद्धिजीवी और जिनकी अक्ल पर पत्थर पड़ा है, दोनों फिल्मों को गंभीरता से लेने लगे हैं। उस पर बड़े बड़े लेख लिखने लगे हैं, चर्चा और बहस करने लगे हैं।

फिल्म की कहानी में एक हीरो होता है और एक होता है विलेन। आम फिल्मों में एक हीरोइन भी होती है, लेकिन इस फिल्म में कोई हीरोइन नहीं है। चार बूढ़े हैं, जो हीरों के दादा के साथी हैं-एक आईएएस ऑफिसर (कमिशनर), दूसरे डॉक्टर, तीसरे पुलिस ऑफिसर और चौथे दूरदर्शन के संवाददाता। चारों हिन्दू हैं। हीरो के परिवार सहित अनेक कश्मीरी पंडितों के मारे जाने और कश्मीर से उनके पलायन के गवाह हैं। हीरो कश्मीर से दूर दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में पढ़ रहा है। हालांकि पढ़ाई का एक भी सीन नहीं है- हाँ, अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ रहा है। एक महिला प्रोफेसर राधिका मेनन उस पूरी छात्र राजनीति के पीछे है। माथे पर बड़ा टीका लगाती है इसलिए वामपंथी एक्टिविस्ट सी प्रतीत होती है। किसी पार्टी या संगठन का नाम नहीं लेती, न ही किसी का स्पष्ट झण्डा दिखता है, लेकिन कुछ झंडे लाल रंग के हैं जिससे अनुमान लगता है ये वामपंथी संगठन से हैं। जेएनयू में आजादी… आजादी वाली जो घटना हुई थी उसकी याद दिलाती है। हीरो का नाम कृष्ण है, तो लगता है कि ये कन्हैया कुमार का प्रतिरूप है। कहानी शिवा के परिवार और उसके साथ हुए जुल्म के साथ शुरू होती है और यहीं खत्म भी होती है। आखिरी सीन में कमांडर फारुक अहमद बिट्टा 25 कश्मीरी पंडितों को एक साथ मार देता है, जिसमें उसके माँ और भाई भी शामिल हैं।

आखिरी सीन से कुछ सीन पहले यह राज भी खुलता है कि ये बिट्टा के उस महिला प्रोफेसर राधिका मेनन के साथ संबंध हैं। आम हिंदी फिल्मों में हीरो विलेन को मारकर अपने परिवार या अपने साथ हुए अन्याय का बदला लेता है, लेकिन यहाँ ऐसा कुछ नहीं है। वह आखिरी सीन से दो-एक सीन पहले जेएनयू में राधिका और छात्रों के बीच अध्यक्ष कंडिडेट के तौर पर भाषण देते हुए कश्मीर के प्राचीन गौरव का बखान करता है और बताता है कि किस तरह से कश्मीर हिंदुओं के ज्ञान की धरती हुआ करता था, लेकिन जोर जबरदस्ती से पंडितों को मुस्लिम बनने पर मजबूर किया गया और आखिर में बचे हुए कश्मीरी पंडितों को जलावतन होना पड़ा।

पंडितों के नरसंहार और जलावतनी के पीछे देश की सरकारों की नाकामी और मुस्लिम आक्रान्ताओं, सूफियों और आम कश्मीरी मुसलमानों सहित पाकिस्तान और जेहादियों को कुसूरवार ठहराया गया है। कथा और पटकथा दोनों लचर है। कन्फ्यूजन है लेखक-निर्देशक क्या दिखाना चाहता है- कश्मीरी पंडितों के साथ जो जुल्म हुआ वो या जो राजनीति हुई वो? या दोनों? दुर्भाग्य से न कश्मीरी पंडितों का जीवन ठीक से दिखता है और ना ही उनकी व्यथा। कहानी कहने का ढंग संवेदनात्मक नहीं, बल्कि स्टेटमेंट टाइप है। लगता है कहानी कहना मकसद नहीं है, बल्कि दर्शकों तक कुछ राजनीतिक मकसद पहुंचाना फिल्म का लक्ष्य है। कश्मीरी पंडितों का मसला सिर्फ राजनीतिक नहीं है, बल्कि मैं कहूँ सामाजिक और पारिवारिक पीड़ाओं की कहानी कहीं बड़ी है। राजनीति किस तरह मासूमों की, निर्दोषों की बलि लेती है इसका बड़ा और स्पष्ट उदाहरण है कश्मीर। न सिर्फ कश्मीरी पंडित बल्कि कश्मीरी मुसलमान भी इसका शिकार हुए। ये ठीक है कि कश्मीरी मुसलमान संख्या में ज्यादा हैं, और मुसलमान हैं इसलिए आतंकवादियों की वजह से उनको अपना घर छोड़ना नहीं पड़ा और पंडित संख्या में कम थे और हिन्दू थे, इसलिए कश्मीर से भागना पड़ा, लेकिन दुख और पीड़ा दोनों तरफ है।

फिल्म जब शुरू होती है, तब जनवरी 1990 परदे पर उभरता है, तब देश में वीपी सिंह की सरकार थी। बीजेपी भी उस सरकार में शामिल थी। फिल्म से यह पता नहीं चलता है कि केंद्र में किसकी सरकार थी, लेकिन 90 का समय है इसलिए पता चल जाता है वी पी सिंह की सरकार थी। तब गृहमंत्री थे मुफ्ती मोहम्मद सईद। फिल्म में दिखाया गया है कि सरकार ने सब होने दिया। फिल्म में फिक्शन के तौर पर यह बात कही गई है, हालांकि यह तथ्य है कि मुफ्ती मोहम्मद सईद आतंकवादियों के प्रति सॉफ्ट रहे, उनकी बेटी किडनैप की गई, उसके लिए आतंकवादी छोड़े गए,। उसके बाद श्रीनगर शहर में मौजूद बीएसएफ के मौजूद मोर्चों को हटा दिया गया। दलील दी गई कि इनसे लोगों को दिक्कतें हो रही हैं और जिससे सुरक्षा व्यवस्था कमजोर हुई। फिर चरार-ए-शरीफ के लिए करीब एक लाख से ज्यादा लोगों के जुलूस को अनुमति दी गई, जिससे आतंकवादियों के हौसले मजबूत हुए कि अब कश्मीर आजाद होके रहेगा। और आगे ऐसा हुआ भी कि जो लोग आजाद कश्मीर की मांग कर रहे थे, उन्हें श्रीनगर स्थित संयुक्त राष्ट्र संघ के ऑफिस जाने की अनुमति दी गई । इसका असर यह हुआ कि कश्मीर के एक बड़े वर्ग में यह संदेश गया कि भारत कश्मीर को छोड़ रहा है। और इन सबका असर हुआ कि आतंकवादियों द्वारा खुलेआम धमकियां दी जाने लगी। मस्जिदों से नारे लगने लगे, ‘कश्मीर में अगर रहना है,  अल्लाहू अकबर कहना है’  और ‘असि गछि पाकिस्तान, बटव रोअस त बटनेव सान’  मतलब हमें पाकिस्तान चाहिए और हिंदू औरतें भी मगर कश्मीरी पंडितों के मर्दों के बिना चाहिए। 19 जनवरी 1990 को ऐलान कर दिया गया कि 48 घंटे के अंदर कश्मीरी पंडित घर छोड़ दें। अखबराओं के जरिए इस तरह की धमकियां दी गई। और उसके बाद लाखों कश्मीरी पंडित कश्मीर छोड़ने पर मजबूर हो गए।

फिल्म का बेस प्लॉट 19 जनवरी की इसी घटना को बनाया गया है। लेकिन राजनीतिक दृश्य इतने अस्पष्ट हैं कि पता नहीं चलता केंद्र की कौन सी वो सरकार है, जिसकी वजह से ये सब हुआ। जो लोग कश्मीर के बारे में गहराई से जानते हैं उन्हें तो पता है, लेकिन जो आम दर्शक हैं, उन्हे लगता है इन सब के पीछे कांग्रेस की सरकार है। साथ में प्रजेंट में जे एन यू की कन्हैया कुमार वाली घटना चल रही होती है, इसलिए और मजबूती से यह बात स्थापित होती है कि कश्मीरी पंडितों के खिलाफ हिंसा और जलावतनी के लिए काँग्रेस सरकार और वामपंथी जिम्मेदार हैं। कृष्णा में कन्हैया कुमार जबकि राधिका मेनन में पत्रकार बरखा दत्त का अक्स दिखाने की कोशिश है।

हीरो पूरी फिल्म में अपने परिवार की कहानी से अनजान है और कश्मीरी पंडितों के पलायन और जलावतनी को लेकर बहुत परेशान नहीं है, लेकिन आखिर में जब सच पता चलता है, तो एकाएक कश्मीर पर बड़ा लेक्चर दे डालता है। ये बदला हुआ कृष्ण है। उसके मन में अपने माता पिता और भाई- दादा के मारे जाने की पीड़ा से कहीं ज्यादा कश्मीर के बदले जाने को लेकर गुस्सा है। लेकिन करता क्या है कुछ नहीं।

फिल्म का कमजोर पक्ष है फिल्म का हीरो कुछ नहीं करता। बल्कि कहें तो कोई कुछ नहीं करता। सबकुछ सिर्फ लेखक और निर्देशक करता है। और दुखद है वह भी दर्शकों को कुछ भी स्पष्ट नहीं कहता। न हीरो के परिवार की कहानी को इस तरह से सामने रखता है कि दर्शक उससे गहरे जुड़ जाए और लगे कि ये कहानी उसके साथ घट रही है और न ही इस घृणित कृत्य के पीछे जो अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय और स्थानीय राजनीति उजागर हो पाती है। जब सांप्रदायिक या जातिगत नफरत को लेकर झगड़े होते हैं तो अक्सर पडोसी और परिचित भी अपनी रोटी हिंसा में सेंक लेते हैं, लेकिन यहाँ वह भी नहीं दिखा है। कुछ लोग होते हैं जो बचाने आ जाते हैं, वो भी यहाँ नदारद हैं। मान लिया गया है सारे मुसलमान कश्मीरी पंडितों के खिलाफ थे, क्या ये सच है? क्या कश्मीरी मुसलमान इन आतंकियों द्वारा मारे नहीं गए? कई लोग मारे गए। नेता से लेकर सिपाही और आम दुकानदार तक। उनका कोई जिक्र नहीं है। पूरी फिल्म बस इतनी सी बात पर झूलती है कश्मीरी पंडितों के साथ कोई नहीं है। कुछ देर के बाद तो बातें रिपीट होने लगती हैं, दृश्य बदल जाते हैं, लेकिन कहानी आगे नहीं बढ़ती। बोरियत होने लगती है। कहन में कोई नयापन नहीं है। पटकथा के शिल्प का तो बिल्कुल ही इस्तेमाल नहीं है फिल्म में। संवाद भी कोई याद रखने लायक नहीं है। पंडितों के साथ जो हुआ वो भयावह है, लेकिन ये फिल्म भी उनके लिए कम भयावह नहीं है कि उनके दुख और पीड़ा को सिर्फ मार्केट किया गया है एक राजनीतिक एजेंडे के लिए। ये सबसे बुरा पक्ष है। हालांकि मैं कहूँगा वो मकसद भी पूरा नहीं होता है बुद्धिमानी से। आखिर में मुसलमानों के खिलाफ नफरत नहीं उफनती, कोफ्त होती है, क्यों फिल्म बनाई है? बेहद औसत दर्जे की फिल्म है।