जब मैंने अखबारों में पढ़ा कि गोरखपुर के चौरीचौरा कांड का शताब्दि समारोह मनाया जाएगा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उसका उदघाटन करेंगे तो मेरा मन कौतूहल से भर गया। मैंने सोचा कि 4 फरवरी 1922 यानि ठीक सौ साल पहले चौरीचौरा नामक गांव की भयंकर दुर्घटना का मोदी हवाला देंगे और किसानों से वे कहेंगे कि जैसे गांधीजी ने उस घटना के कारण अपना असहयोग आंदोलन वापिस ले लिया था, वैसे ही किसान भी अपना आंदोलन खत्म करें, क्योंकि लाल किले पर सांप्रदायिक झंडा फहराने की घटना से सारा देश मर्माहत हुआ है। लेकिन हुआ कुछ उल्टा ही। मोदी ने उन प्रदर्शनकारियों की तारीफ के पुल बांधे, जिन्होंने 22 भारतीय पुलिसवालों को जिंदा जलाकर मार डाला था। इस जघन्य अपराध के कारण उन्नीस आदमियों को फांसी हुई थी और लगभग 100 लोगों को उम्र-कैद। गांधीजी ने इस भीड़ की हिंसा की कड़ी निंदा की थी लेकिन मोदी ने इन्हीं लोगों की याद में उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए शताब्दि-समारोह की शुरुआत कर दी।
अपने पूरे भाषण में मोदी ने गांधीजी का एक बार नाम तक नहीं लिया। गोरखपुर के महंत और उ.प्र. के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी मोदी को सावधान करने की बजाय उस समारोह को उ.प्र. के सभी जिलों में मनाने की घोषणा कर दी। मुझे आश्चर्य है कि इस गांधी-विरोधी और बदनाम-कार्य को उत्सव का रूप देने की सलाह किस नौकरशाह या किस अति उत्साही कार्यकर्त्ता ने इन नेताओं को दे दी? क्या इस समारोह का संदेश देश भर में यह नहीं जाएगा कि किसी को भी जिंदा जला देना ठीक है? मोदी सरकार इसे गलत नहीं समझती है।
चौरीचौरा में तो 22 पुलिसवालों को जिंदा जलाया गया था यानि अब खिसियाए हुए किसान यदि ऐसी कोई नृशंस दुर्घटना कर डालें तो क्या वह भी सराहनीय होगी? यदि लालकिले पर किसी नासमझ लड़के ने तिरंगे की बजाय कोई और झंडा फहरा दिया तो यह क्या कोई गंभीर मामला ही नहीं है? किसान आंदोलन को ठंडा करने के लिए कुछ नौटंकियां हमारी सरकार रचाए, यह स्वाभाविक ही है लेकिन साल भर चलनेवाली यह नौटंकी हमारी संकटग्रस्त वर्तमान अर्थ-व्यवस्था पर करोड़ों रुपये का बोझ बढ़ा देगी और भाजपाई सरकारों को बदनाम भी कर देगी। यह ठीक है कि हमारे ज्यादातर नेताओं को पढ़ने-लिखने का समय नहीं होता और उनसे इतिहासविज्ञ होने की आशा भी नहीं की जा सकती लेकिन उनसे यह अपेक्षा तो अवश्य की जाती है कि इस तरह की नौटंकियों का जब भी कोई प्रस्ताव उनके सामने लाया जाए तो वे विद्वानों और विशेषज्ञों से विनम्रतापूर्वक सलाह जरुर करें ताकि वे इतिहास के पटल पर शीर्षासन की मुद्रा में दिखाई न पड़ें।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एंव स्तंभकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)