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चुनावी शोर में कुंद हुआ 20 हज़ार भावी डॉक्टरों का भविष्य

सुशील उपाध्याय

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पांच राज्यों के चुनावी शोर में उन 20 हजार भावी डॉक्टरों के भविष्य का प्रश्न गौण हो गया जो यूक्रेन से बचकर भारत पहुंचे हैं। इन युवाओं के साथ-साथ भारत में निजी मेडिकल कॉलेजों में फीस के नाम पर लूट का सवाल भी चर्चा से गायब होता दिख रहा है। लोगों को आश्चर्य करना चाहिए कि भारत के निजी मेडिकल कॉलेजों की फीस अमेरिकी के कॉलेजों के बराबर है। इतना ही नहीं, भारत दुनिया में सबसे महंगी मेडिकल पढ़ाई वाले देशों में शुमार है। यूक्रेन में फंसे हजारों युवा अब सुरक्षित अपने घर पहुंच चुके हैं, लेकिन एक बड़ा प्रश्न लगातार उनका पीछा कर रहा है कि उनका भविष्य क्या होगा ?

यूक्रेन के हालात बता रहे हैं कि वहां जल्द अमन की उम्म्मीद नहीं है और शांति स्थापित हो भी जाए तो भी ये देश ऐसी स्थिति में नहीं होगा कि वहां पहले की तरह मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई हो सके। जिन भावी डाॅक्टरों को यूक्रेन से भारत लाया गया है, उनमें से शायद ही कोई वहां वापस जाएगा। ऐसे हालात में इनके सामने क्या विकल्प होंगे, इस प्रश्न पर अब कोई गंभीर पहल दिखाई नहीं दे रही है। जहां तक इनके लिए विकल्पों की बात है तो सबसे प्रभावी मांग यह है कि इन्हें भारत के मेडिकल कालेजों में पढ़ाई पूरी करने का अवसर जाए।

इस मांग का यह कहकर विरोध किया जा रहा है कि भारत में एक लाख सीटों वाले कॉलेजों में अचानक 20 फीसद नई सीट पैदा नहीं की जा सकती, लेकिन यह विरोध तार्किक नहीं है क्योंकि ये 20 हजार युवा किसी एक वर्ष के स्टूडेंट नहीं हैं। ये एमबीबीएस उपाधि में अलग-अलग वर्षों और स्तरों पर पढ़ाई कर रहे हैं। यदि इन्हें भारत के मेडिकल कॉलेजों में ही समायोजित किया जाता है तो मौजूदा सीटों के प्रत्येक वर्ष में करीब 5 फीसद की बढ़ोत्तरी करनी होगी। (पूर्व में भारत में भी कुछ निजी मेडिकल कॉलेजों के बंद होने पर इनके छात्रों को अन्य समान संस्थाओं में समायोजित किया जा चुका है।)

व्यावहारिक तौर पर यह बढ़ोत्तरी 5 फीसद से भी कम होगी क्योंकि देश में मौजूदा सत्र और अगले सत्र में अनेक नए मेडिकल कॉलेज भी शुरू होने जा रहे हैं। इनमें भी जो लोग अंतिम वर्ष या इंटर्नशिप के लेवल पर हैं, उन्हें भारत में ही मौका देकर उनके प्रकरणों को आसानी से संभाला जा सकता है। ज्यादा परेशानी ऐसे मामलों में होगी, जिनकी दूसरे या तीसरे वर्ष की पढ़ाई चल रही है। यहां भी भारत सरकार भूमिका निभा सकती है। सोवियत संघ और सोवियत ब्लॉक के पूर्व देशों रूस, बेलारूस, उज्बेकिस्तान, हंगरी, पोलेंड, चेक गणराज्य, स्लोवाकिया जॉर्जिया आदि में पढ़ाई के मानक यूक्रेन के समान ही हैं।

सरकार कोशिश करे तो इनमें से ज्यादातर लोगों को यूक्रेन की बजाय सोवियत ब्लॉक के अन्य देशों के विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में प्रवेश दिलाया जा सकता है। इसमें एक तकनीकी दिक्कत यह बताई जा है कि किसी एक डिग्री को दो देशों की संस्थाओं से पूरा करने पर उस डिग्री की मान्यता पर प्रश्न खड़ा होगा, लेकिन यह कोई बड़ा मामला नहीं है क्योंकि ज्यादातर देशों और उनकी संस्थाओं के बीच पहले से ही इस तरह के समझौते मौजूद हैं जहां किसी डिग्री के कुछ वर्ष एक देश और कुछ वर्ष दूसरे देश में पूरे किए जा सकते हैं। नई शिक्षा नीति के तहत भारत भी आगामी सत्र से इसी प्रकार की व्यवस्था लागू करने जा रहा है।

वैसे, इन छात्रों के लिए कोई अन्य विकल्प न बचे तो रूस एक बड़ा विकल्प है क्योंकि वहां भी बड़ी संख्या में भारतीय छात्र मेडिकल की पढ़ाई कर रहे हैं। रूस की तरफ से ऐसे संकेत भी मिले हैं कि भारतीय छात्र वहां की संस्थाओं से डिग्री पूरी कर सकते हैं। इस प्रकरण के साथ फीस का पहलू भी जुड़ा हुआ है। चूंकि, यूक्रेन और रूस में मेडिकल की फीस और अन्य खर्च लगभग बराबर हैं इसलिए रूसी संस्थाएं अच्छा विकल्प हो सकती हैं, जबकि भारत में प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों की फीस से निपटना आसान नहीं है। भारत में एक साल की फीस 12 से 18 लाख रुपये तक है। इस फीस में वो अदृश्य शुल्क शामिल नहीं है, जिसे कॉलेज संचालकों द्वारा छिपी हुई मदों में लिया जाता है। कुल मिलाकर भारत में एमबीबीएस की डिग्री एक करोड़ रुपये के खर्च के बाद ही मिल पाती है।

आश्चर्य की बात यह है कि इतनी फीस में अमेरिका में भी मेडिकल पढ़ाई की जा सकती है। आश्चर्य इसलिए कि भारत के निजी मेडिकल कॉलेजों (अपवादों को छोड़ सकते हैं) के स्तर और अमेरिकी संस्थाओं के स्तर में जमीन-आसमान का फर्क है। आश्चर्य की बात इसलिए भी है कि अमेरिका-यूरोप की तुलना में गरीब भारत के मेडिकल काॅलेजों में इतनी बड़ी फीस के पीछे कोई सार्थक आधार बिल्कुल नहीं हो सकता।

जो युवा यूक्रेन से लौटे हैं वे भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि यूक्रेन और सोवियत ब्लाॅक के पूर्व देशों की संस्थाओं में बुनियादी ढांचा और अन्य सुविधाएं भारत के प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों की तुलना में कहीं बेहतर हैं। जबकि, वहां भारत की तुलना में करीब एक तिहाई शुल्क में में पढ़ाई हो रही है। अब पुनः उन दोनों मूल प्रश्नों पर लौटते हैं कि यूक्रेन से वापस आए युवाओं का भविष्य क्या होगा और निजी मेडिकल कॉलेजों की फीस को तार्किक स्तर तक किस प्रकार घटाया जा सकेगा। दोनों सवालों के समाधान के लिए चाहे-अनचाहे भारत सरकार की तरफ ही देखना होगा। यदि सरकार की ओर से कदम न उठाए गए तो हजारों परिवारों को अधर में छोड़ने जैसा होगा क्योंकि यूक्रेन से वापस ले आने भर से सरकार का दायित्व पूरा नहीं होता। वैसे, इस मामले को महज 20 हजार युवाओं का मामला नहीं मानना चाहिए, बल्कि यह 20 हजारों परिवारों के भविष्य का प्रश्न है। इससे भी बड़ी बात यह कि ये देश की साख से भी जुड़ा हुआ है।