कृष्णकांत
पिछले महीने एक दिन कैब में बैठा। कैब अलीगढ़ के एक पाराशर साब चला रहे थे। रोजी, रोजगार की बात होने लगी। ड्राइवर साब पढ़े लिखे थे, बोले- “सर एक बात समझिए। संपन्न लोगों को गुलाम बनाना आसान नहीं होता। इसलिए जानबूझ कर बिजनेस व्यापार को ठप किया जा रहा है। जानबूझ जनता को दरिद्र बनाया जा रहा है। जिसे खाने का ठिकाना न हो, जिसे जीने की आस न बची हो, उसे गुलाम बनाना आसान होता है। मैंने भी वोट दिया था, लेकिन अब समझ पा रहा हूं कि यह सरकार देश का विकास नहीं कर रही है, यह हिंदुओं को बेवकूफ बना रही है। यह सरकार लोगों को और गरीब बनाकर उन्हें गुलामी में धकेलना चाह रही है।”
ये सुनने में बहुत कड़वी और बहुत बड़ी बात लग रही है। लेकिन सोचिए कि ये जनसंहार क्यों होने दिया गया? मान लें कि दूसरी लहर के पहले लापरवाही हो गई, लेकिन दूसरी लहर आने के बाद एक महीना गुजर चुका है। हमारी धरती लाशों से पट गई है। फिर भी क्या आपको वैसे आपात इंतजाम दिख रहे हैं जैसे होने चाहिए?
32 हजार करोड़ का टीकाकरण बजट होने के बावजूद राज्यों से कह दिया गया है कि खुद वैक्सीन खरीदो और लगवाओ। टीकाकरण प्रोग्राम लगभग रुक गया है। कोरोना के खिलाफ केंद्रीकृत लड़ाई को अचानक राज्यों के सिर डालकर पल्ला झाड़ लिया, जबकि वैक्सीनेशन का बजट खुद दबाकर बैठे हैं। पीएम केयर्स का फंड खुद दबा कर बैठे हैं। देश की संपत्ति और संसाधनों पर जिसका आखिरी नियंत्रण है, वह सबसे कठिन समय में जनता को छोड़ कर भाग गया है और अपनी महान छवि गढ़ने के षडयंत्र रच रहा है।
दो तीन हफ्ते पहले तक चुनाव जीतने के लिए पार्टी की जगह केंद्र सरकार जोर लगा रही थी। अब जब लोगों की जान बचाने की बारी आई है तब सारी जिम्मेदारी राज्यों पर छोड़ दी गई है, लेकिन हालत ऐसी बना दी गई है कि राज्य चाहें भी तो खुद से जरूरत भर की वैक्सीन नहीं खरीद सकते।
चाहे नोटबंदी हो, चाहे बेरोजगारी हो, ध्वस्त अर्थव्यवस्था हो, कोरोना से तबाही हो, हर बार यही लगता है कि यह गलती नहीं है, यह जानबूझ कर किया जा रहा है। बर्बाद हो चुके लोगों को गुलाम बनाना आसान हो जाएगा। भारत में इस वक्त जो सरकार है, वह सरकार की तरह नहीं, किसी मध्ययुगीन आक्रमणकारी की तरह व्यवहार कर रही है।