म्यांमार में सैनिक शासन को एक साल हो गए हैं और इसके साथ ही वहां से आये हज़ारो शरणार्थियों को ले कर दिक्कतें बढती जा रही हैं। याद करें पिछले साल जब म्यांमार में सेना ने सत्ता पर कब्जा किया था और हज़ारों शरणार्थी देश के पूर्वोत्तर राज्यों, खासकर मिजोरम उर मणिपुर की तरफ आये थे तब जनता के दवाब में मणिपुर सरकार वह आदेश तीन दिन में ही वापिस लेना पड़ा था जिसके अनुसार पड़ोसी देश म्यांमार से भाग कर आ रहे शरणार्थियों को भोजन एवं आश्रय मुहैया कराने के लिए शिविर न लगाने का आदेश दिया गया था। पिछले सप्ताह ही मिजोरम सरकार ने फैसला किया है कि शरणार्थियों पहचान पत्र मुहैया करवाएगा। इसके लिए कोई सोलह हज़ार लोगों को चिन्हित किया गया है।
पड़ोसी देश म्यांमार में उपजे राजनैतिक संकट के चलते हमारे देश में हज़ारो लोग अभी आम लोगों के रहम पर अस्थाई शिविरों में रह रहे हैं , यह तो सभ जानते हैं की राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के पास किसी भी विदेशी को “शरणार्थी” का दर्जा देने की कोई शक्ति नहीं है। यही नहीं भारत ने 1951 के संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी सम्मेलन और इसके 1967 के प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं ।
हमारे यहाँ शरणार्थी बन कर रह रहे इन लोगों में कई तो वहाँ की पुलिस और अन्य सरकारी सेवाओं के लोग हैं जिन्होंने सैनिक तख्ता पलट का सरेआम विरोध किया था और अब जब म्यांमार की सेना हर विरोधी को गोली मारने पर उतारू है सो उन्हें अपनी जान बचने को सबसे मुफीद जगह भारत ही दिखाई दी। लेकिन यह कड़वा सच है कि पूर्वोत्तर भारत में म्यामार से शरणार्थियों का संकट बढ़ रहा है। उधर असं में म्यांमार की अवैध सुपारी की तस्करी बढ़ गई है और इलाके में सक्रीय अलगाववादी समूह म्यांमार के रस्ते चीन से इमदाद पाने में इन शरणार्थियों की आड़ ले रहे हैं।
भारत के लिए यह विकट दुविधा की स्थिति है कि उसी म्यांमार से आये रोहंगीया के खिलाफ देश भर में अभियान और माहौल बनाया जा रहा है लेकिन अब जो शरणार्थी आ रहे हैं वे गैर मुस्लिम ही हैं- यही नहीं रोहंगियाँ के खिलाफ हिंसक अभियान चलाने वाले बोद्ध संगठन अब म्यांमार फौज के समर्थक बन गए हैं। म्यांमार के बहुसंख्यक बौद्ध समुदाय को रोहिंग्या के ख़िलाफ नफरत का ज़हर भरने वाला अशीन विराथु अब उस सेना का समर्थन कर रहा है जो निर्वाचित आंग सांग सूकी को गिरफ्तार कर लोकतंत्र को समाप्त कर चुकी है।
एक साल बाद भी पूर्वोत्तर भारत से सटे हुए पड़ोसी देश म्यांमार सैनिक शासन के बाद से सैकड़ों बागी पुलिसवाले और दूसरे सुरक्षाकर्मी चोरी-छिपे मिजोरम में आना जारी है। सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक बड़ा वर्ग उन लोगों को सुरक्षित निकालने और इस तरफ पानाह देने की काम में लगा है। ये लोग सीमा के घने जंगलों को अपने निजी वाहनों जैसे,कार, मोटरसाइकिल और यहाँ तक कि पैदल चलकर पार कर रहे हैं। भारत में उनके रुकने, भोजन स्वास्थ्य आदि के लिए कई संगठन काम कर रहे हैं।
मिजोरम के चंपई और सियाहा जिलों में इनकी बड़ी संख्या है , सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक 83 लोग हेंथिअल में, 55 लॉन्गतालाई में, 15 सेर्चिप में, 14 आइजोल में, तीन सैटुएल में और दो-दो नागरिक कोलासिब और लुंगलेई में रह रहे हैं।
म्यांमार से आ रहे शरणार्थियों का यह जत्था केन्द्र सरकार के लिए दुविधा बना हुआ है । असल में केन्द्र नहीं चाहती कि म्यांमार से कोई भी शरणार्थी यहाँ आ कर बसे क्योंकि रोहंगीय के मामले में केन्द्र का स्पष्ट नज़रिया हैं लेकिन यदि इन नए आगंतुकों का स्वागत किया जाता है तो धार्मिक आधार पर शरणार्थियों से दुभात करने की आरोप से दुनिया में भारत की किरकिरी हो सकती हैं। उधर मिजोरम और मणिपुर में बड़े बड़े प्रदर्शन हुए जिनमें शरणार्थियों को सुरक्षित स्थान देनी और पनाह देने का समर्थन किया गया। यहा जानना जरुरी है कि मिजोरम की कई जनजातियों और सीमाई इलाके के बड़े चिन समुदाय में रोटी-बेटी के ताल्लुकात हैं।
भारत और म्यांमार के बीच कोई 1,643 किलोमीटर की सीमा हैं जिनमें मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश और नागालैंड का बड़ा हिस्सा है। अकेले मिजोरम की सीमा 510 किलोमीटर है।
एक फरवरी 2021 को म्यांमार की फौज ने 8 नवंबर 2000 को संपन्न हुए चुनावों में सू की की पार्टी की जीत को धोखाधड़ी करार देते हुए तख्ता पलट कर दिया था। वहाँ के चुनाव आयोग ने सेना के आदेश को स्वीकार नहीं किया तो फौज ने वहाँ आपातकाल लगा दिया। हालांकि भारत ने इसे म्यांमार का अंदरूनी मामला बता कर लगभग चुप्पी साधी हुई है लेकिन भारत इसी बीच कई रोहन्ग्याओं को वापिस म्यांमार भेजनी की कार्यवाही कर रहा है और उस पार के सुरक्षा बलों से जुड़े शरणार्थियों को सौंपने का भी दवाब है, जबकि स्थानीय लोग इसके विरोध में हैं । मिजोरम के मुख्यमंत्री जोर्नाथान्ग्मा इस बारे में एक ख़त लिख कर बता चुके हैं कि यह महज म्यांमार का अंदरूनी मामला नहीं रह गया है। यह लगभग पूर्वी पाकिस्तान के बांग्लादेश के रूप में उदय की तरह शरणार्थी समस्या बन चूका है।
मिजोरम (Mizoram) में शरण लिए हुए हजारों शरणार्थियों के बीच राज्य सरकार उन्हें पहचान पत्र मुहैया कराने पर विचार कर रही है। ET की एक रिपोर्ट के मुताबिक, अभी पहचान पत्र जारी करने की प्रक्रिया चल रही है और करीब 16,000 कार्ड मुहैया कराए जाएंगे। ET ने एक अधिकारी के हवाले से कहा कि “यह उन लोगों के लिए एक चुनौतीपूर्ण काम है, जिन्हें सीमाओं के पार और कई जगहों पर अपने रिश्तेदारों के साथ रहना पड़ता है।” अधिकारी ने आगे कहा कि कई शरणार्थी अस्थायी शिविरों (several refugees) में रह रहे हैं और जैसे ही कोविड-19 की स्थिति आसान होगी, शरणार्थियों पर कार्य समूह सीमा से लगे क्षेत्रों का दौरा करेगा। विशेष रूप से, राज्य म्यांमार (Myanmar) के साथ 510 किलोमीटर लंबी बिना बाड़ वाली सीमा साझा करता है।
इससे पहले, केंद्रीय गृह मंत्रालय (Union Home Ministry) ने चार उत्तर पूर्वी राज्यों मिजोरम, मणिपुर, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश को एक सलाह भेजकर कहा था कि राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के पास किसी भी विदेशी को “शरणार्थी” का दर्जा देने की कोई शक्ति नहीं है, और भारत 1951 के संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी सम्मेलन और इसके 1967 के प्रोटोकॉल का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एंव स्तंभकार है)