भारत की अदालतें सरकारी दमन और शोषण पर इंसाफ़ की नक़ली जिल्द चढ़ाने का काम करती हैं!

भारत की सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस की अदालत के ठीक सामने जो खुला चबूतरा है वहाँ महात्मा गाँधी की बड़ी वाली मूर्ति लगी है। मुझे लगता नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट के जजों ने पढ़ा भी होगा कि गाँधीजी उनके बारे में क्या कहा था। गाँधीजी ने ‘हिंद स्वराज’ में लिखा था, “जज और वकील चोर चोर मौसेरे भाई होते हैं।” लगभग चौबीस साल पहले जब मैंने पहली बार ये पढ़ा था तो मेरी खोपड़ी घूम गई थी। पूरी उम्र बग़ैर सोचे समझे यही माना था कि न्यायालय इंसाफ़ देता है। लेकिन गाँधीजी ने इस दावे को सरासर ग़लत बता दिया था।

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गाँधीजी ने आगे लिखा कि हम क्यों सोच लेते हैं कि कोई दूसरा आदमी हमारे पैसे लेकर हमारे झगड़े निपटा देगा? उन्होंने लिखा कि इससे अच्छा तो वो वक़्त था जब हम आपस में मारपीट करके अपने झगड़े सुलझा लेते थे। उन्होंने लिखा अदालतें आईं और हम कायर हो गए।

गाँधीजी ख़ुद वकील थे। दक्षिण अफ़्रीका में उन्होंने बीस साल वकालत की थी और बहुत ही सफल और मशहूर वकील हो गए थे। लेकिन जैसे जैसे उनका सार्वजनिक जीवन बढ़ता गया उनको पूरा यक़ीन होता गया कि अदालत से न्याय मिल ही नहीं सकता है। न्याय के लिए सड़क पर उतर संघर्ष करना पड़ता है। उन्होंने निज अनुभव का ज़िक्र करते हुए लिखा कि उन्होंने कितने ही लोगों की जिंदगी अदालत के चक्कर में पड़ कर बरबाद होते देखा है।

इसीलिए आगे चल कर गाँधीजी ने ये नियम कर दिया था कि जो कोई वकील कांग्रेस पार्टी का पदाधिकारी बनना चाहता है उसे सार्वजनिक तौर पर हमेशा के लिए वकालत का पेशा छोड़ना होगा। सत्याग्रहियों के लिए ये नियम तय था कि वो अदालत में मुक़दमे का बहिष्कार करेंगे और जो भी सज़ा हो उसे स्वीकार करेंगे।

ख़ुद गाँधीजी जब चंपारण में हिरासत में लिए गए और मैजिस्ट्रेट ने उन्हें दंड भरने को कहा तो उन्होंने कहा जेल भेज दो लेकिन हर्जाना नहीं भरूँगा। मजबूरन मैजिस्ट्रेट को उन्हें छोड़ना पड़ा। 1922 में जब उन पर पहली बार मुक़दमा चला तो उन्होंने कहा कि क़ानून तोड़ने को मैं फ़र्ज़ मानता हूँ इसलिए तुम्हारे क़ानून में जो कड़ी से कड़ी सज़ा हो वो मुझे मंज़ूर है। नतीजा ये रहा कि अगले पच्चीस सालों में सरकार ने जब जब गाँधीजी को गिरफ़्तार किया उनपर मुक़दमा ही नहीं दायर किया।

हम को ये समझना होगा कि अदालतें, ख़ासतौर से भारत में, सरकार का हिस्सा होती हैं। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ़ जस्टिस बालाकृष्णन ने तो बाक़ायदा भरी अदालत में ये साफ़ कहा था कि we are part of the government. भारत की अदालतें सरकारी दमन और शोषण पर इंसाफ़ की नक़ली जिल्द चढ़ाने का काम करती हैं। जब तक हम अदालतों के दरवाज़े खटखटाते रहेंगे और उनपर भरोसा करते रहेंगे तब तक सरकार और अदालत ये भ्रम बना कर रखने में सफल रहेंगे कि भारत में न्याय हो रहा है।

इसीलिए गाँधीजी ने क़ानून तोड़ कर जेल भरो आंदोलन शुरू किया था। वो खुलेआम क़ानून तोड़ते थे। दक्षिण अफ़्रीका में आईडी रखने का क़ानून आईडी जला कर तोड़ा। भारत में नमक सत्याग्रह किया क़ानून तोड़ कर। ऐसे आंदोलनों के चलते हज़ारों हज़ार स्वाधीनता संग्रामी ख़ुशी ख़ुशी जेल गए थे। कितने शहीद हो गए थे। ऐसी क़ुर्बानी से आज़ादी मिली थी।

शोषण की मशीनरी में न्यायपालिका का अहम किरदार होता है। न्यायपालिका आज़ादी नहीं देती है। आज़ादी लड़ कर छीननी होती है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)