सदियों से बंद गलियों, दरवाजों, खिड़कियों को खोलने के लिए पितृसत्ता से लड़ना कभी किसी के लिए भी आसान नहीं रहा। इससे बाहर निकल अपना एक मकाम बना पाना मुश्किल तो है, नामुमकिन नहीं। इसे मुमकिन बनाती हैं, तसनीम खान। ना सिर्फ खुद के लिए, बल्कि वो उन महिलाओं की आवाज भी हैं, जो अपने हक के लिए जूझ रही हैं। पत्रकार और साहित्यकार तसनीम खान ने अपनी लेखनी को ही अपने लिए मुश्किल रास्तों का सहारा बना लिया। वे कहती हैं कि पढ़ने के लिए, सपने देखने के लिए, आगे बढ़ने में मुझे दिक्कतें तो आई, लेकिन वहां पापा-अम्मी थे तो वे इन मुश्किलों से खुद ही निपट लेते। यहां यह जरूर कहना चाहूंगी की मां पढ़ी-लिखी हो तो इसका आपकी जिंदगी पर व्यापक असर होता है। मेरे साथ की कई लड़कियां बस इसीलिए नहीं पढ़ पाई कि उनके अभिभावकों को पढ़ाई का महत्व पता ही नहीं था।
पत्रकारिता जोखिमपूर्ण और कड़ी मेहनत का काम है, लेखन रचनात्मकता, कल्पनाशीलता और बौद्रिधकता से जुड़ा है। दोनों ही क्षेत्रों में अपनी अलग पहचान कायम करने वाली तसनीम खान राजस्थान के नागौर जिले की डीडवाना तहसील में पली-बढ़ी। कस्बाई जीवन से जुड़ी तसनीम बचपन से ही वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में अपनी धाक जमाती रही और तर्क के साथ अपनी बात कहने का नजरिया भी उन्हें यहीं से मिला।
साल 2015 में भारतीय ज्ञानपीठ की नवलेखन प्रतियोगिता में उनका पहला उपन्यास ‘ऐ मेरे रहनुमा‘ चुना गया और वे पत्रकार के साथ उपन्यासकार हो गई। वे कहती हैं कि मैंने साहित्य को चुना नहीं, वो तो मेरे जीवन में शुरू से ही था। अम्मी का साहित्य से जुड़ाव मुझे विरासत में मिल गया, उनकी तरह मैं भी किताबी कीड़ा कही जाती। किताबों के आसपास जब बचपन बीते तो समझो कि कुछ दुनिया अलग ही होगी। वाकई आज मेरी अलग दुनिया है, जहां मैं किसी भी किरदार से अचानक जुड़ जाती हूं, उसकी बातें करती हूं, उसका दर्द साझा करती हूं और फिर कागजों पर लिख देती हूं। वो कहानी या उपन्यास के रूप में आपके सामने होता है। अब तक 15 से ज्यादा कहानियां लिख चुकी हूं। एक उपन्यास आ चुका है। एक कहानी संग्रह आ चुका है। आगे भी कई सारे किरदार रचने हैं।
तसनीम खान के बारे में बता दें कि वे साल 2005 से पत्रकारिता के पेश से जुड़ी हैं। इस दौरान उन्होंने जेंडर सेंसेटिविटी पर कई खबरें की। वहीं उनकी राजनीतिक समझ के चलते वे कई राजनीति परिचर्चाओं में हिस्सा लेती रही हैं। महिलाओं की स्थिति समाज में सुधारने की जिद पर उन्होंने पत्रकारिता में रहकर कई मुद्दे उठाए। पत्रिका टीवी पर उनका शो ‘आधी दुनिया पूरी बात विद तसनीम खान‘ खासा पसंद किया जाता है। इससे पहले उन्होंने महिला और उनकी सामाजिक, राजनैतिक स्थिति पर ‘समर शेष है‘ शो किया। हाल ही में उन्हें पॉपुलेशन फर्स्ट और यूएनएफपीए की ओर से लाडली मीडिया अवॉर्ड फॉर जेंडर सेंसेटिविटी 2021 से नवाजा गया है। इस अवॉर्ड की ज्यूरी ने विशेष तौर पर कहा है कि एक वैश्विक महामारी में भी घरों में बंद महिलाओं की यातना कितनी बड़ी रही, इस सवाल को दुनिया के सामने लाने के लिए अवॉर्ड दिया गया है। तसनीम के शो के एक एपिसोड ‘घरेलू हिंसा पर कब लगेगा लॉकडाउन‘ के लिए उन्हें इस सम्मान से नवाजा गया।
अपने लेखन को लेकर तसनीम कहती हैं, जो लिखा है खुलकर ही लिखा है। खुलकर लिखने का अर्थ मेरे लिए सिर्फ विरोध करने से नहीं है, बल्कि एक बेहतर तर्क के साथ समस्याओं को सुलझाने से है। आगे भी लिखती रहूंगी। अपने इस लेखन से समाज को कुछ अच्छा दे पाऊं या इसमें रत्ती भर भी बदलाव कर सकूं तो जीवन का उद्देश्य पूरा समझूंगी।
साहित्यकार के तौर पर तसनीम के नाम कम उपलब्धियां नहीं हैं। वे राजस्थान की दूसरी महिला युवा लेखक हैं, जिनका पहला उपन्यास भारतीय ज्ञानपीठ से अनुशंसित और प्रकाशित हुआ। सितंबर 2021 में इसी उपन्यास ‘ऐ मेरे रहनुमा‘ का अंग्रेजी अनुवाद भी भारतीय ज्ञानपीठ ने प्रकाशित किया है। तसनीम के इस उपन्यास में बताया गया है कि आर्थिक तौर पर सशक्त होना ही महिलाओं के लिए काफी नहीं है। उच्च शिक्षा पा लेने के बाद बेहतरीन पदों पर नौकरी कर लेने से किसी भी मध्यम वर्ग की महिला की पारिवारिक और सामाजिक स्थिति ठीक नहीं हुई है। जिंदगी अभी भी ठीक वैसी ही है, जैसी किसी भी बिना पढ़ी-लिखी महिला की। तसनीम का कहना है कि यह सशक्तिकरण अधूरा है, तब तक, जब तक समाज की सोच महिलाओं के लिए नहीं बदलेगी। समाज में बेटियों को आगे बढ़ाने के लिए तो माहौल बना दिया गया, लेकिन उन सशक्त महिलाओं को अपनाने का समाज बनाना लोग भूल गए। उन सशक्त महिलाओं की कद्र समाज नहीं करता।
तसनीम खान के इस उपन्यास पर एक पीएचडी और एक एमफिल किया जा चुका है। उनका कहानी संग्रह ‘दास्तान ए हजरत‘ साल 2019 में प्रकाशित हुआ। इस पर उन्हें नाराकास की ओर से चंदरबरदाई युवा सम्मान-2019 दिया गया। वहीं साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम के लिए प्रगतिशील लेखक संघ राजस्थान की ओर से शाकुंतलम सम्मान-2021 से उन्हें नवाजा गया।
उनकी कहानी ‘रूख ए गुलजार‘ का अंग्रेजी अनुवाद भारतीय अनुवाद परिषद की पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है। वहीं कहानी ‘खामोशियों का रंग नीला‘ को स्टोरी मिरर पुरस्कार मिला और इसका उर्दू अनुवाद पाकिस्तान की एक पत्रिका में प्रकाशित हुआ। एक और कहानी ‘मेरे हिस्से की चांदनी‘ का अंग्रेजी अनुवाद ‘माय शेयर ऑफ हैप्पीनेस‘ ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस की ओर से ‘मुस्लिम वीमन राइटर्स वॉइसेज‘ में प्रकाशित होने जा रही है।
अपने लेखन पर तसनीम कहती हैं कि जबसे समझदार हुई, तभी से साहित्य या कहानी-उपन्यास पढऩा मेरे दिन का हिस्सा रहे हैं। इनके किरदार मेरे ईर्द-गिर्द मंडराते रहे हैं। ये किरदार कभी रोमांचित करते, तो कभी दुखी भी। यह पढ़कर भी समाज के भीतर तक झांक लेने का नजरिया मुझे मिला है। कथा लेखन की बात करूं तो जो दर्द मैंने औरतों की जिंदगी में झांककर महसूस किए, वहीं से इन्हें कागज पर उतारने की जरूरत भी महसूस हुई। मुझे लेखन क्षेत्र में लाने का श्रेय मेरे आसपास जी रहे उन किरदारों को जाता है, जिनकी घुटन मुझ पर हावी रही। मुझे लगा कि यह घुटन तभी खत्म होगी, जब इन किरदारों की बातों को मैं दुनिया के सामने रखूंगी और इनके साथ शायद कोई न्याय कर पाऊं। यह मेरा मुक्ति संग्राम ही है। मेरे उपन्यास में भी औरत अपनी मुक्ति की राह खोजती और अपने रहनुमाओं के रहम से छटपटाती मिलेगी।
पहला उपन्यास ही भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित होना मेरे लिए किसी आश्चर्य की तरह था। इससे पहले मैंने कभी यह नहीं सोचा था कि मैं किताब के रूप में कुछ लिख पाउंगी या जो लिखूंगी वो पसंद किया जाएगा क्या। लिखते हुए तो आज भी किसी की पसंद का नहीं सोचती। जो मुझे ठीक लगता है, वही लिखती हूं। हिंदी मेरी भाषा है और इस भाषा में मुझे साहित्य के क्षेत्र में बहुत कुछ दिया है। यही बोलती हूं, यही लिखती हूं और सोचती भी इसी में हूं।