कुमार क्षितिज
हिन्दी सिनेमा हमेशा से प्रेम की उर्वर जमीन रहा है। यहां दर्जनों प्रेम कथाएं शुरू हुईं और असमय मर भी गईं। लोगों की संवेदना को ऐसी प्रेम कहानियां छूती हैं जो किसी अंजाम तक नहीं पहुंचती। हिंदी सिनेमा की असफल प्रेम कथाओं में सर्वाधिक दुखद अंत देव आनंद और सुरैया के प्रेम का हुआ था। उस प्रेम के टूट जाने के बाद देव आनंद ने अपनी एक अलग दुनिया भी बसाई और कई विवाहेतर प्रेम भी किए, लेकिन सुरैया आजीवन एकनिष्ठ प्रेम की मिसाल बनी रही। वह उसी विगत प्रेम में जीती रही। सुरैया जैसी प्रेम की एकनिष्ठता जीवन में तो क्या, किस्सों और कहानियों में भी कम ही मिलती है।
अपने आरंभिक फिल्मी कैरियर में देवानंद और सुरैया ने सात फिल्मों में साथ काम किया था। देवानंद के अनुसार पहली बार 1949 में फिल्म ‘जीत’ के सेट पर उन्होंने सुरैया के आगे अपने प्रेम का इजहार किया था। उनका यह प्रस्ताव स्वीकार भी हो गया। अगले कुछ सालों में उनके किस्से नर्गिस-राजकपूर और दिलीप कुमार-मधुबाला के प्यार की तरह देश भर में फैल गए। किंतु उनकी फ़िल्मी जोड़ी वास्तविक जीवन में एक नहीं बन पाई। वजह थी सुरैया की नानी, जिन्हें विधर्मी देव आनंद बिल्कुल भी पसंद नहीं थे। देव आनंद के प्रति एकनिष्ठ समर्पण के बावजूद सुरैया में अपने परिवार से विद्रोह का साहस नहीं हुआ। देव आनंद के साथ ‘दो सितारे’ उनकी आखिरी फिल्म थी। उसके बाद फिल्मों के सेट पर या उसके बाहर उनकी मुलाकातों का सिलसिला बंद हो गया।
इस घटना के बहुत सालों बाद एक पत्रकार से बात करते हुए सुरैया ने कहा था…”अंततः मेरी नानी हम दोनों को अलग करने में कामयाब हो गई। देव साहब इस बात से बहुत आहत थे और उन्होंने मुझे डरपोक तक कहा। सच यह है कि मैं डरपोक नहीं थी, लेकिन मैं देव साहब को लेकर डरी हुई थी। उनके साथ कुछ भी हो सकता था। मेरी नानी ने मुझे दहशत से भर दिया था। मैं उस वक्त बुरी तरह टूट गई, लेकिन मुझे यह भरोसा भी था कि वक़्त हर जख्म को भर देता है। अब सोचती हूँ तो लगता है देव साहब को लेकर मेरा वह डर बेवजह था। अगर मैंने परिवार के खिलाफ जाने का साहस किया होता तब भी उन्हें कुछ नहीं होता।”
कुछ अरसे तक अपने नाकाम प्रेम का शोक मनाने के बाद देव आनंद ने 1954 में उस जमाने की मशहूर अभिनेत्री कल्पना कार्तिक से शादी कर ली। देव साहब की शादी के बाद सुरैया बाहरी दुनिया से कटती चली गईं और धीरे-धीरे अपनी ही तन्हाई की कैदी बनकर रह गईं। फिल्मों से भी उनका मन उचट गया था और वे गिनी-चुनी फिल्में ही स्वीकार करती थीं। परिवार ने उनका घर बसाने की बहुत कोशिशें की, लेकिन सुरैया को अपने जीवन में किसी और को शामिल करना स्वीकार नहीं हुआ। वे ताउम्र अविवाहित रहीं। सिनेमा को अलविदा कहने के बाद उन्होंने सामाजिक जीवन को भी हमेशा के लिए अलविदा कह दिया।
ज़िंदगी के आखिरी सालों में मुंबई के मरीनलाइन स्थित अपने फ्लैट में वे अकेली रहती थीं। आसपास के लोगों से भी उनका कोई संपर्क नहीं था। फिल्म ‘बड़ी बहन’ और ‘मोती महल’ में उनकी छोटी बहन का किरदार निभाने वाली अभिनेत्री तबस्सुम कभी-कभार उनके एकांत का साथी हुआ करती थी। तबस्सुम ने उनके जीवन के कुछ आखिरी महीनों के बारे में कहा था…‘यह बेहद दुखद है कि सुरैया ने अपने दरवाज़े दुनिया के लिए बंद कर रखे थे। कभी-कभी जब मैं उनसे मिलने जाती थी तो दरवाज़े के बाहर दूध की बोतलें और कई-कई दिनों के अखबार पड़े हुए मिलते थे। जिंदगी के आखिरी दिनों में उन्होंने कभी अपने घर का दरवाज़ा नहीं खोला। हां, फोन पर कभी-कभार वे मुझसे बात कर लेती थीं। मुझे हमारी आखिरी बातचीत याद है। मैंने पूछा था – ‘आप कैसी हैं आपा ?’ जवाब में उन्होंने एक शेर सुनाया था…”
कैसी गुज़र रही है सभी पूछते तो हैं
कैसे गुज़ारती हूँ कोई पूछता नहीं।
देव आनंद ने अपनी आत्मकथा ‘Romancing with life’ में सुरैया के साथ अपने रिश्ते के बारे में लिखा है;- “सुरैया से मेरी पहली मुलाकात फिल्म ‘जीत’ के सेट पर हुई थी। वह सुरैया का वक्त था और मैं फिल्म उद्योग में अपने पांव जमाने की कोशिश कर रहा था। हम दोनों चुंबक की तरह एक दूसरे के नजदीक आते चले गए। हमने एक-दूसरे को पसंद किया और फिर प्रेम करने लगे। मुझे याद है, मैं चर्च गेट स्टेशन पर उतरकर पैदल मरीन ड्राइव में कृष्ण महल जाया करता था जहां तब सुरैया रहती थीं। हम दोनों बैठकर घंटों बातें किया करते थे। सुरैया की मां को हमारा संबंध स्वीकार था और उन्होंने हमारे मिलने में कभी बाधा खड़ी नहीं की। अलबत्ता उनकी बूढ़ी नानी मुझे हमेशा गिद्ध की तरह देखती थीं। हम शादी करना चाहते थे, लेकिन सुरैया अपनी नानी की मर्जी के खिलाफ जाने को तैयार नहीं हुईं। निहित स्वार्थी तत्वों ने हिन्दू और मुसलमान की बात उठाकर हमारे लिए बहुत मुश्किलें पैदा कर दीं। एक दिन नानी के हुक्म का पालन करते हुए सुरैया ने अंततः मुझे ‘ना’ कह दिया। मेरा दिल टूट गया। उस रात मैं घर जाकर भाई चेतन आनंद के कंधे पर सिर रखकर खूब रोया। मैंने सुरैया से बहुत प्यार किया था जिसे मैं अपने जीवन का पहला मासूम प्यार कहना चाहूंगा।”
जानलेवा अकेलेपन और देखभाल के अभाव में सुरैया कई बीमारियों का शिकार हुईं। बीमारियों को इलाज नहीं मिला तो वे घातक होती चली गईं। उनके घर के दरवाजे जब बहुत दिनों तक नहीं खुले तो कुछ परिचित लोगों ने दरवाज़ा तोड़ा और उन्हें कमरे से निकाल कर मुंबई के एक अस्पताल में भर्ती करा दिया। बीमारी की हालत में ही 31 जनवरी, 2004 को 75 साल की उम्र में उनकी मौत हुई। मौत के पूर्व उनसे मिलने वालों में सुनील दत्त, नौशाद, धर्मेन्द्र तथा कुछ और गिने-चुने लोग शामिल थे, लेकिन उनकी जिंदगी के आखिरी लम्हों में देव आनंद उनके साथ नहीं थे। यह तो पता नहीं कि देव साहब पर उस वक़्त क्या गुज़र रही होगी, लेकिन मरणासन्न सुरैया की बेनूर आंखों ने कई बार उन्हें तलाशा ज़रूर होगा। उनकी अनुपस्थिति तब सुरैया के असंख्य चाहने वालों को बहुत खली थी।