बीस साल पुराने गुजरात दंगों के केस में दो दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट दे दी. मगर ये क्लीन चिट क्या होता है? भारत के संविधान और भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code) में “क्लीन चिट” जैसी किसी चिड़िया का नाम ही नहीं है. क़ानून के मुताबिक़ या तो कोई मुजरिम दोषी पाया जाता है या निर्दोष. दोषी पाए गए मुजरिम को अंग्रेज़ी में convicted कहते हैं और निर्दोष पाए गए मुजरिम को acquitted कहते हैं. या तो मुजरिम guilty है या not guilty.
मगर सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में तो ये कहा ही नहीं कि हम नरेंद्र मोदी को acquit यानी बरी कर रहे हैं. न ये कहा कि मोदी not guilty हैं. तो आख़िर सुप्रीम कोर्ट की क्लीन चिट है क्या?
इस देश की क़ानून व्यवस्था (criminal jurisprudence) का नियम ये है कि हत्या होने पर सबसे पहले पुलिस एफ़आईआर करती है. फिर पुलिस जाँच करती है. हो सके तो पुलिस मुजरिम को गिरफ़्तार करती है. फिर एक चार्जशीट तैयार होती जो निचली कोर्ट में दाख़िल होती है. चार्जशीट में पुलिस बताती है कि अपराध को कब और कैसे अंजाम दिया गया. चार्जशीट में पुलिस सबूत गिनाती है और गवाहों के नाम बताती है. फिर अदालत में मुक़दमा शुरू होता है जिसे ट्रायल कहते हैं. सरकारी वकील अपना पक्ष रखता है और अपने गवाह पेश करता है. कोर्ट में उनकी गवाही होती है. बचाव पक्ष को मौक़ा मिलता है उन गवाहों से सवाल-जवाब करने का. इसे cross-examination कहते हैं. फिर बचाव पक्ष चाहे तो अपने गवाह पेश कर सकता है. सरकारी वकील उन गवाहों से cross-examination करता है. फिर दोनों पक्ष अपनी आख़िरी बात रखते हैं. फिर जज अपना फ़ैसला देता है.
आपको जान कर हैरत होगी जिस केस में सुप्रीम कोर्ट ने नरेंद्र मोदी को “क्लीन चिट” दी है उस केस में आज तक मोदी पर कभी किसी निचली अदालत में मुक़दमा चला ही नहीं है. उस केस में मोदी के विरोध में या मोदी के सपोर्ट में किसी जज के सामने आज तक एक गवाह नहीं पेश किया गया है. किसी भी अदालत ने कभी भी मोदी के ख़िलाफ़ या उनके सपोर्ट में एक भी सबूत की जाँच ही नहीं की है. किसी ट्रायल कोर्ट में कोई बहस ही नहीं हुई है कि मोदी पर लगाए गए आरोप सही हैं या ग़लत हैं. बहस तो तब होती, गवाही तो तब होती जब मोदी पर कोई एफ़आईआर दर्ज होता.
क्या आप जानते हैं कि इस केस में मोदी पर कभी कोई एफ़आईआर ही दर्ज नहीं हुआ? जी हाँ. आज तक गुजरात दंगों को लेकर मोदी पर IPC की किसी भी धारा के तहत आरोप ही नहीं लगाए गए. तो फिर सुप्रीम कोर्ट ने किस बात पर मोदी को क्लीन चिट दिया है? दरअसल ये पूरा प्रकरण एक विशाल जुडिशियल फ़्रॉड है. इस प्रकरण में बहुत होशियारी से सुप्रीम कोर्ट ने भारत के क़ानून की और उसके प्रोसेस की धज्जियाँ उड़ाई हैं. आपको जान कर हैरत होगी कि सुप्रीम कोर्ट ने ये “क्लीन चिट” महज़ पुलिस की रिपोर्ट के आधार पर बग़ैर एक सवाल तक किए दी है.
फिर लिखता हूँ. धीरे धीरे पढ़िए. सुप्रीम कोर्ट ने जो नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट दी है उसका आधार पुलिस की रिपोर्ट है. क्योंकि कभी ट्रायल हुआ ही नहीं. आइए विस्तार से समझिए. इस केस की शुरुआत हुई 28 फ़रवरी 2002 को जब आरएसएस के हिंसक आतंकवादियों ने गुजरात में मुसलमानों पर क़ातिलाना हमला किया और सैंकड़ों बच्चों, औरतों और पुरुषों का नरसंहार शुरू किया. इस हिंसा के वक़्त नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे.
अहमदाबाद के एक हिंदू बाहुल्य इलाक़े में अहसान जाफ़री नाम के एक पूर्व सांसद रहते थे. ख़ून की प्यासी हिंदुओं की भीड़ से बचने के लिए उनके घर पर कुछ घबराए मुसलमान जमा हो गए. भीड़ ने घर को घेर लिया. अहसान जाफ़री ने कई बार पुलिस को फ़ोन लगाया. एक बार मोदी से भी बात हुई. अहसान जाफ़री के घर वालों का कहना है मोदी ने उनको कहा “तू अभी तक ज़िंदा है?” इसके बाद भीड़ ने अहसान जाफ़री के घर को आग लगा दी जिसमें जाफ़री समेत दर्जनों लोग जल कर राख हो गए.
दंगा शांत होने के बाद अहसान जाफ़री की विधवा ज़ाकिया जाफ़री ने पुलिस में केस दर्ज करने की कोशिश की. पुलिस ने मना कर दिया. सिलसिला शुरू हुआ कोर्ट के चक्कर लगाने का. एक के बाद एक कोर्ट टालमटोल करती रही. आख़ीर में सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस का एक विषेष जाँच दल (Special Investigative Team) बनाया. इसे SIT कहा गया. कई साल टालने के बाद इस SIT ने सुप्रीम कोर्ट में अपनी रिपोर्ट 2012 में जमा की. उस रिपोर्ट में SIT ने कहा कि ऐसे कोई सबूत नहीं हैं कि उस हिंसा के लिए मोदी ज़िम्मेदार हैं. आख़िर SIT इस नतीजे पर कैसे पहुँची कि मोदी पर दंगा करवाने का आरोप झूठा है?
आप SIT की वो रिपोर्ट पढ़ेंगे तो आपको हंसी आ जाएगी. SIT ने मोदी सरकार के अधिकारियों से जाकर पूछा कि क्या आपको लगता है मोदी ने हिंसा करवाई? सबने जवाब दिया कि, जी नहीं, हमें तो नहीं लगता मोदीजी ने हिंसा करवाई. फिर SIT ने मोदी से जाकर पूछा क्या आपने हिंसा करवाई? मोदी के खुद के जवाब आप पढ़ेंगे तो आप माथा पीट लेंगे. SIT के हर सवाल पर मोदी का जवाब था “मुझे याद नहीं.” अगर अब तक मोदी ने वो रिपोर्ट सोर्स से ग़ायब नहीं करवा दी है तो आप गूगल करके पढ़ सकते हैं.
बहरहाल. मोदी और मोदी के अधिकारियों के जवाबों से आश्वस्त होकर SIT ने रिपोर्ट दाख़िल कर दी कि जी हमने जम कर जाँच की है मोदी ने कोई हिंसा नहीं करवाई है. ये बात 2012 की है. जैसे ही ये रिपोर्ट आई सारा मीडिया चिल्लाने लगा कि सुप्रीम कोर्ट ने मोदी को “क्लीन चिट” दे दी है. जी हाँ. दस साल पहले ही क्लीन चिट की कहानी चल निकली थी. ज़ाहिर है कि वो दावा सफ़ेद झूठ था.
फिर सुप्रीम कोर्ट ने SIT को कहा कि जाओ ये रिपोर्ट अहमदाबाद के लोकल मैजिस्ट्रेट के पास जमा कर दो. वो बताएगा आगे क्या करना है. लोकल मैजिस्ट्रेट ने बग़ैर पुलिस से एक भी सवाल पूछे प्यार से उसकी बात मान ली और रिपोर्ट जमा कर ली. ज़ाकिया जाफ़री ने मैजिस्ट्रेट के उस फ़ैसले के ख़िलाफ़ गुजरात हाई कोर्ट में अर्ज़ी डाली. गुजरात हाई कोर्ट ने सालों लटका कर रखा फिर बग़ैर एक सवाल किए मैजिस्ट्रेट की बात मान ली. और अब सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट की मान ली. बल्कि मान ही नहीं ली सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कह दिया कि मोदी पर ये आरोप ज़रूर तीस्ता सेतलवाड ने साज़िश करके लगाया है. बस फिर क्या था, फटाफट पुलिस ने तीस्ता को गिरफ़्तार कर लिया.
यानी मैजिस्ट्रेट, हाईकोर्ट और अब सुप्रीम कोर्ट ने एक सबूत तक की जाँच नहीं की. एक गवाही नहीं सुनी. सिर्फ़ पुलिस की लिखित रिपोर्ट पर फ़ैसला सुना दिया कि मोदी पर आरोप ग़लत हैं. होना तो ये चाहिए था कि मैजिस्ट्रेट, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज पुलिस को लताड़ते कि ये तुम्हारी रिपोर्ट है? जिसके ख़िलाफ़ जाँच करनी है उसी से पूछ के आ रहे हो कि तुमने अपराध किया है कि नहीं? इस बेईमानी पर तो सारे पुलिस वालों की नौकरी चली जानी चाहिए थी. मैजिस्ट्रेट को सस्पैंड होना चाहिए था.
आपको ये भी बता दूँ कि SIT के मुखिया एक श्री राघवन IPS थे. रिटायर होने के बाद वो तमिलनाडु अपने घर रहने चले गए. जब ज़ाकिया जाफ़री ने हाईकोर्ट में मैजिस्ट्रेट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ पिटीशन डाली तो उन्होंने कहा कि राघवन ने जानबूझ कर जाँच ख़राब की. राघवन ने जो वकील किया उसकी मोटी फ़ीस सालों तक गुजरात सरकार भरती रही. जब जब उस केस के सिलसिले में राघवन तमिलनाडु से गुजरात हाईकोर्ट जाते थे तो उनको गुजरात सरकार फ़र्स्ट क्लास का हवाई जहाज़ का टिकट देती थी.
लेकिन राघवन को SIT का मुखिया तो सुप्रीम कोर्ट ने बनाया था. SIT का काम सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में हो रहा था. तो गुजरात सरकार क्यों राघवन का टिकट ख़रीद रही थी और उसके वकील की फ़ीस दे रही थी? क्या ये सीधा सीधा conflict of interest नहीं था? सच्चाई ये है कि पूरा देश सड़ चुका है. सुप्रीम कोर्ट के जज मंगल ग्रह से थोड़े आते हैं?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)