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ग़रीबी, भुखमरी, नाकारापन पर सरकार की नाकामी छिपाने के लिए ‘सिनेमा’ का सहारा

फिल्म सच में समाज का आइना होती हैं। हमारे अवचेतन में जो चल रहा है उसको अदाकार पर्दे पर ले आते हैं। एक विचारधारा विशेष के लोगों ने बरसों बरस पहले लोगों के मन में भरा कि तुम हज़ारों बरस के ग़ुलाम हो। फिर बताया गया कि तुम्हें ग़ुलाम किसने और कैसे बनाया। तीसरा नरेटीव ख़ुद बन जाता है कि हम होते तो कैसे ज़ुल्म का मुक़ाबला करते।

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इस विमर्श में एक बात ग़ौरतलब है। आज के सियासी नॅरेटीव में अंग्रेज़ से ग़ुलामी या आज़ादी वाला रिश्ता और आज़ादी की लड़ाई किनारे पर भले खिसक गई है लेकिन पराधीनता वाला भाव अपनी जगह पर है। शायद भविष्य की किसी लड़ाई के लिए उसे समय के डीप फ्रीज़र में संरक्षित किया जा रहा है।

ख़ैर, पराधीनता, ज़ुल्म और विदेशियों के शासन का सिलेक्टीव बोध भी मन को आहत तो करता है। उत्तर भारत में यह समस्या और भी गंभीर है। कुषाण, शक, हुण, रोमन, बैक्ट्रियन, पारसी, अफग़ानी, मंगोलियन अपने-अपने ग़ुलामी बोध, अपने शासन छिनने की पीड़ा और आपसी संघर्ष के श्रुतियां दिल में दबाए बरसों से जी रहे हैं। हिंदी पट्टी का डीएनए करा लीजिए। वर्ण और डीएनए संकरों की भरमार है। कुल मिलाकर का द्वंद सिर्फ ज़मीन पर नहीं मन, और शरीर के भीतर भी चल रहा है।

फिल्म क्या कर रही हैं? ऐतिहासिक असफलता, बार बार युद्ध में हार, पराजित क़ौम,और बरसों की ग़ुलामी वाले बोध पहले से लोगों के मन में है, फिल्म सिर्फ इनको उबारती हैं। फिल्म बताती हैं तुम्हारी मौजूदा ग़रीबी, भुखमरी, नाकारापन, और बाक़ी दुनिया के सामने पिछड़ेपन की वजह मौजूदा सरकारों की नाकामी नहीं बाबर, ग़ौरी के आक्रमण हैं।

लेकिन लोगों के मन में ऐसी कई फैंटेसी पहले से हैं। जैसे कि बाबर ने उत्तर भारत का बिजली नेटवर्क तबाह न किया होता तो गांव-गांव में सौ साल पहले बिजली होती। ग़ौरी ने पंजाब में राकेट अनुसंधान केंद्र न उजाड़ा होता तो भारत के लोग चांद पर कॉलोनी बसा चुके होते। अगर औरंगज़ेब ने ब्राह्मणों को अपनी जन्म भर की रिसर्च पोथी के साथ चिता में कूदने को मजबूर न किया होता तो घर-घर पंडित आइंस्टाइन, एडिसन शर्मा, एल्फ्रेड नोबेल जोशी, और न्यूटन मिश्रा होते।

फैंटेसी में लोग दिन रात सोचते हैं, वह रॉ आफिसर होते तो दाऊद को झोले में डाल कर भारत ले आते। यहां गली-गली खपच्ची की तीर-कमान वाले पृथ्वीराज हैं जिनके मन में ग़ौरी का गला भेदने की आकांक्षाएं हर शब हिलोरे मारती हैं। घर-घर ढाई हड्डी के राणा सांगा हैं जो सोचते हैं, वह होते तो क्विंटल भर के बाबर को पटक़-पटक़ कर मार देते। इसी बोध में वह घर-घर काल्पनिक दुश्मन तैयार करते हैं। हाथ में छुरी लेकर मुर्ग़ी काटने जा रहा अलाउद्दीन क़ुरैशी उनको अलाउद्दीन ख़िलजी लगता है। मियां के सिर पर रखी टोपी उनको औरंगज़ेब के हाथ की बुनी कृति नज़र आती है।

फिल्म तो बस मन के ऐसे भावों को हवा देती है। अब देखिए न, फिल्म में पुलिस दाऊद को पकड़ लाती है, पृथ्वीराज ग़ौरी को मार लेता है, प्रताप अकबर को हरा लेता है, विदेश में आतंकी नेटवर्क ध्वस्त हो जाते हैं, पाकिस्तान हर महीने नेस्तनाबूद हो जाता है, और लोगों की कुंठा तृप्त हो जाती है। इधर फिल्मकार पैसे बनाकर अपने अगले मिशन इम्पासिबल पर जुट जाता है