जानलेवा नाजायज़ डोनेशन पर क्यो़ ख़ामोश रहती हैं सरकारें? भारतीय छात्र नवीन कुमार को यूक्रेन में मार दिया गया। उसने ये गलती की थी कि वो 97 फीसद अंक पाकर अपने ही देश में मेडिकल की पढ़ाई कर अपने देश की सेवा करना चाहता था। लेकिन अपने भारत में करोड़ के ऊपर का डोनेशन और मंहगी फीस देकर एडमिशन दिलाना उसके पिता के बस में नहीं था। दुनिया के कई देशों में भारतीय मेडिकल कालेज/यूनिवर्सिटीज से कम डोनेशन पर दाखिला मिल जाता है। कर्नाटक के नवीन को भी भारत की अपेक्षा बहुत कम डोनेशन और फीस में यूक्रेन के मेडिकल शिक्षा संस्थान में एडीशन मिल गया। यानी हमारे देश के सिस्टम की गिरावट की ढाल ने नवीन को यूक्रेन में मरने छोड़ दिया।
नवीन की मौत के जिम्मेदार हम-आप भी हैं। सरकारें तो कानून से भी बड़ी अंधी होती हैं। आपकी तो आंखें हैं आप अपने आसपास देखिए आपके आसपास ही न जाने कितनों ने अपनी संतान को डाक्टर बनाने का सपना देखने की सजा भुगती है। डाक्टर बनाने की ख्वाहिश सजा बनती जा रही है। घर बर्बाद हो रहे हैं। लोग कंगाल हो रहे हैं, घर, जमीन, खेत और जेवर बेच कर भी अपने बच्चे को डाक्टर बनाने की कोशिश में एक बड़े चक्रव्यूह में फंस रहे हैं।
कोरोना मे हमने डाक्टरों की अहमियत, जरुरत और इनकी कमी को शिद्दत से महसूस किया। आबादी के लेहाज़ से हमारे देश में डाक्टरों की बहुत कमी है। हजारों लोगों पर एक डाक्टर है। आप जितने भी अस्पताल बना लो, चिकित्सकों के बिना वीरान रहे़गे। अच्छी बात ये है कि हमारे भारतीय समाज के घर-घर में अपने बच्चों को डाक्टर बनाने का क्रेज है। हर पांच परिवारों में एक परिवार आप जरुर पाओगे जहां बच्चे को डाक्टर बनाने का सपना पलता देखा जा सकता है।
लेकिन आम इंसानों को शायद ही ऐसा सपना पूरा होता होगा। अपनी संतान को डाक्टर बनाने की ख्वाहिश या तो पूरी नहीं हो पाती या फिर बड़ी मुसीबत में डाल देती है। सरकारी मेडिकल यूनिवर्सिटी/कालेज में रेंक के आधार पर सीटें भर जाने के बाद सैकड़ों/हजारों छात्र-छात्राएं एडमिशन के लिए भटकते हैं। आम तौर से एक करोड़ डोनेशन और फीस का खर्च मिडिल क्लास कहां से लाएगा ! करोड़ से कम रकम में मेडिकल की पढ़ाई की जुगाड़ बर्बादी की राह पर पंहुचा देती है।
डाक्टर बनने या बनाने के जुनून में विदेशी शैक्षिक संस्थांनों तक पहुंचाने के दलाल, बिचोलियां या परामर्श संस्थाएं आपको खूब सब्ज बाग दिखाकर मोह जाल में फंसा लेती है। नवीन की मौत की कहानी तो आपके सामने आ गई है लेकिन मेडिकल की पढ़ाई के लिए हजारों भारतीय छात्र बर्बाद होते हैं लेकिन उनकी दर्द भरी कहानियां हम तक नहीं पंहचतीं।
कालेज, यूनिवर्सिटी छोड़िए, स्कूली बच्चों की पढ़ाई की फीस ने मां-बाप की कमर तोड़ दी है। स्कूल लूटते रहे, सरकारें खामोश रहीं। कोरोना में बच्चे सालों घर पर बैठे रहे, मां-बाप जेवर बेचकर स्कूलो़ की फीस भरते रहे। इस कठिन समय में बच्चों की पढ़ाई और मंहगी फीस के संकट को कम करने के लिए किसी सरकार ने क्या कोई नीति बनाई ? क्या मंहगी शिक्षा के लिए कोई सब्सिडी दी गई?
भारत के विश्वविद्यालयों की लाखों सीटों विदेशी छात्र घेरे हैं, भारत के लाखों बच्चों को अपने देश के विश्वविद्यालयों में एडमीशन (सीट) नहीं मिलता। घर और जेवर बेचकर भारतीय बच्चों के अभिभावक मजबूरीवश अपने बच्चों को विदेशी यूनीवर्सिटीज में मंहगे खर्चे से पढ़ने के लिए भेजते हैं। बच्चे दरबदर होते हैं। नस्लवाद का शिकार होते हैं, भारतीय संस्कारों से दूर होते हैं। युद्ध में फंस जाते हैं, लाठियां खाते हैं, जान से मारे जा रहे हैं। किडनेप होते हैं। छात्राएं बलात्कार का शिकार होती हैं।
सरकारों को ये भी आंकडा नहीं मालुम कि हमारे देश-प्रदेश के कितने छात्र-छात्राएं पलायन कर विदेश में पढ़ने गए हैं। आश्चर्य है कि जिन्ना, चर्बी और बुलडोजर जैसे विध्वंसकारी और फालतू के मुद्दों पर चुनावी शोर हमेशा होता है। बच्चों की पढ़ाई, मेडिकल की पढ़ाई का नाजायज डोनेशन, छात्रों को समुचित शिक्षा न मिलने से उनके विदेश पलायन, मज़दूरों को मजदूरी न मिलने से उनके पलायन जैसे जायज मुद्दे पर चुनाव नहीं होता, लानत है ऐसे चुनावों पर…।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)