डॉ. अंजना राणा
चाहतें जीने की वजह देती हैं, कभी कभी सर दर्द भी, ये न हो तो, इंसान मर जाता है और ज़्यादा हो तो सुकून चला जाता है। ज़िंदगी की पहिये दौड़ रहे थे और वो अकेला था जैसे कोई लावारिस, भरा पूरा घर, नाते रिश्तेदार और उसका रीता मन। वो अकसर सोचता है कि वो कुछ बड़ा करेगा मगर, कैसे! आठ साल की ही तो है अभी तो पढ़ना शुरू किया है मगर ये छोटा बालक मन अभी से जद्दो-जहद कर रहा है ज़िंदगी जीने की। उसे कमियों से शिकायत नहीं है मगर उसके हिस्से में जो कम आता है उसकी नाराजगी, नाराज़गी है। वो किसी से मन की बात कह नहीं सकता, सह सकता है क्योंकि वो इन घर वालों के लिए पराया है।
सबसे अलग थलग बे-ज़ुबान। उसकी ज़ुबान नहीं बोलती उसका दिल बोलता है और दिमाग़ बोलता है वो कहीं दूर चला जाना चाहता है, जहां वो किसी का हो या फिर कोई भी उसका न हो। विरक्ती भी नहीं है और आसक्ती भी नहीं है बस आत्म स्वाभिमान को लगी चोट कचोटती है। वजह नहीं समझ पाता कि वो इतना बेगाना क्यों है! फिर भी रोज़ सुबह मुस्कुतराता हुआ स्कूल का बस्ता लेकर चल देता है क्योंकि यही एक तरीका है अकेलेपन और उसके सपनों को भी पूरा करने का। अराध्या! अराध्या उसकी सहेली है, उसे पसंद करती है जब वो अपनी गोल गोल आंखों से टुकुर टुकुर उसे देखता है कि मुझे खाने के लिए कब पूछेगी! दरअसल अराध्या का डिब्बा उसका भी डब्बा था।
ऐसे पढ़ते पढ़ते दोनों कॉलेज भी पहुंचे और उनकी आत्मीयता भी प्रगाड हुई। वो उससे अलग होने के बारे में सोच भी नहीं सकता था। वो उसका घर थी, उसकी दोस्त और उसको संवारने वाली। मगर ज़िंदगी कभी सीधी नहीं चलती। आयुष बंगलोर था और वो दिल्ली के हिंदु कॉलेज में फ्लोसोफी पढ़ रही थी। दोनों को एक दूसे की याद रह रह कर याद आती थी मगर तकनीक के दौर ने उन्हें जोड़ कर रखा था। आयुष को कभी नहीं लगा था कि वो इतना बेचारा हो सकता है। सुर्ख़ आंखें, तड़प और बे हिसाब आंसू छोड़ गई थी वो उसके हिस्से में। वो संत नहीं था मगर भगवान को मानता है, मन को धीर बंधाता और सोचता कि आगे बढ़ जाएगा मगर दिल की रफ्तार दिमाग की रफ्तार से सध नहीं पाती।
मन जिसका हो जाता है, हो जाता है। फिर वो तो उसकी दुनिया थी कोई दुनिया से हटकर अपना अस्तित्व ढूंढे भी तो कैसे! ज़िंदगी ने उसे कभी कुछ पूरा नहीं दिया अब प्यार भी अधूरा रह गया। ऐसा क्यों होता है! कितनी शिद्दत से उसने चाह करी थी उसके साथ की उसके लिए खुशी का मतलब उसका साथ था। उसकी चाहत उसकी चाहतों को पूरा करने, क्या नहीं कुछ नहीं किया उसने मगर सपनों को ताबरी नहीं मिली, सच में क्या ज़ातियां इंसानियत से बड़ी होती हैं! प्रेम से बड़ी होती हैं! या फिर भगवान से! आदमज़ात को ये पाठ पढ़ाया किसने! जीवन के अध्याय क्या सिखाना चाहते हैं मुझे! मैं हार नहीं मान सकता मगर उसे पाऊंगी कैसे जो मेरा होकर भी मेरा नहीं है।
मां-बाप की कोई याद नहीं है उसे। मगर उनकी कमी का अहसास जिंदगी ने बदस्तूर कराया है। पैसा किस कदर खून के रिश्तों का भी खून बहाना चाहता है यही कहानी है उसकी। वो मासूम जिंदगी के इस ऊहापोहो में डगमगा रहा था।
अराध्या कहती थी कि जीवन एक उपहार है। क्यूं! क्योंकि इसमें छिपि है संभावनाएं और बेहतर होने की। इसकी शुरूआत जन्म लेते ही हो जाती है हम हर पल बदलते हैं, खुद में ही पूर्णता हासिल करने के लिए। और फिर शुरू होती है भटकन हमारी शय्या तक। इस भटकन को जो सुलझा ले वो जीवन पा जाता है और शेष की उनके गंतव्य तक की यात्रा यथावत बनी रहती है। आयुष अपने हॉस्टल के कमरे में लेटा हुआ मन ही मन यह सोच रहा था और बार-बार अपने मन को पक्का कर रहा था कि वो जीवन के इस उपहार को यों मायूसी के सिरे तो कभी नहीं चढ़ाएगा। उसके समक्ष उसके बचपन से तरूणाई तक का तमाम संघर्ष प्रेरणा बन कर खड़ा हो गया था। उसने सोचा जब उसके अबोध मन ने कभी हार नहीं मानी, कभी उम्मीद और संघर्ष का रास्ता नहीं छोड़ा तो अब क्यों वो हार माने।
वो सोचते सोचते बुदबुदाया तेरे दूर जाने का गम नहीं तेरे मुझमें होने का आसरा बहुत है। मैं हार नहीं मानूंगा। किसी भी स्थिति में नहीं। यकायक वो विचारों की तंद्रा से जागा, अपनी आंखें पोंछी और आईने में खुद को देख जिंदगी की बेअदबी पर मुस्कुराया और खुद के पहने कपड़ों को थोड़ा ऐसे झटका मानों ज़िंदगी की रवानगी पर पड़ी गर्द को हटा रहा हो। अब वो अराध्या की फिलोसफिकल बातें और उसके संदर्भों को समझ पा रहा था। उसने मन ही मन अराध्या के उस निस्वार्थ प्रेम को अपनी यादों में समेट दिल वो उसके निस्वार्थ प्रेम से भर लिया। वो एकदम हल्का महसूस कर रहा था। ऐसा नहीं कि उसे जीवनसाथी के रूप में न पा पाने का उसे गम न था पर उससे ज्यादा उसे इस बात की खुशी थी कि उसके पास एक ऐसी दोस्त है जिसका प्रेम बहते पानी सा निर्मल और निस्वार्थ है। जो न केवल जीवन देता है, प्यास बुझाता है बल्कि तपन को भी हर उर्जामय जीवन से ओत-प्रोत कर देता है।
आज भी उसे वो शाम याद है जब अराध्या से उसने अपने दिल की बात कही थी और अराध्या ने आंखों में गंभीरता लिए थोड़ा मुस्कुराते हुए उसके प्रेम को स्वीकारते हुए भी उसे अपने से दूर कर दिया था, ये कह कर की ऐसा नहीं की मैं सब छोड़ के तुम्हारे पास नहीं आ सकती। पर मैं नहीं चाहती की ये प्यार तुम्हें सिमित कर दे हमारे प्यार को सीमित कर दे। प्यार का कोई सिरा नहीं होता वो अनंत होता है। देहाभ्यास से दूर उसका संबंध आत्मियता से होता है। मैं नहीं चाहती कि हमारा यह परस्पर प्रेम जातीवाद के विरूद्ध संघर्ष करके प्रेमी युगल के विवाह और सुखद दाम्पत्य जीवन तक सीमित रह जाए। मैं हमारे प्रेम का विस्तार चाहती हूं। आज हम एक हो भी गए तो क्या संसाधनों का अभाव, नाते रिश्तेदारों का अभाव एक वक्त बाद हमें सालेगा नहीं।
ऐसा नहीं की अन्य जाती में प्रेम विवाह के मैं विरूद्ध हूं। पर मेरा यह मानना है कि पेड़ से टूटी हुई डाल बहुत दिनों तक हरी नहीं रह पाती और किसी तरह उसकी जीवन रक्षा हो भी जाए तो पनपने का उसका संघर्ष बहुत वक्त लगा देता है। इतने वर्ष तुमने जो सहा है मैं नहीं चाहती की वो तुम्हारे जीवन का पूर्णकालिक सत्य बन जाए। मैं तुम्हें भरे पुरे घर में देखना चाहती हूं। अभी तो तुम्हें कई खोंजें करनी हैं कईयों का सहारा बनना है। जिंदगी में बहुत आगे बढ़ना है। उसने मेरे कंधे पर विश्वास के साथ हाथ रखते हुए कहा था जीवन की परिपूर्णता केवल सफल वैवाहिक जीवन से नहीं है और न ही सफल सामाजिक जीवन से बल्कि जीवन की परिपूर्णता आत्मियता के विस्तार से है आप जितना बटोगे, जितना आाप दूसरों के बनोगे आपका उतना विस्तार होगा अपने प्रेम के दायरे को आप जितना बढ़ाएंगे आपकी खुशियां और आपका संसार उतना बढ़ता जाएगा। मैं नहीं चाहती की मेरा प्यार तुमहारे पंखों को उडान न भरने दे। तुममे सबका बनने का सामथर्य है मैं स्वार्थी होकर तुम्हें खुद तक ही सीमित करना नहीं चाहती।