मिला किसी को हो खेलों के पहले भारत रत्न तो मिल्खा ही थे

शकील अख्तर

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आजादी के बाद से भारत में मिल्खा सिंह से बड़ा खिलाड़ी कोई नहीं हुआ। हालांकि आजकल जिन्हें सेलिब्रिटीज कहते हैं वे कई हैं। लेकिन अगर महान खिलाड़ियों की बात की जाए और काल अवधि आजादी से पहले की भी मान ली जाए तो भी मिल्खा सिंह के अलावा मेजर ध्यानचंद  और अगर क्रिकेट की भी बात करना है तो गावस्कर या उससे भी पहले आल टाइम ग्रेट रुस्तमे जमां गामा के अलावा इस उच्चतम श्रेणी में कोई नहीं आता। ये वे लोग थे जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में लगातार मेहनत की, संघर्ष किया और विशिष्ट खिलाड़ी बनकर उभरे। लेकिन इनमें से कोई भी भारत रत्न नहीं है! मिल्खा सिंह केवल पद्मश्री थे। नेताओं के शोक संदेशों की झड़ी लगी है। एक से एक विशेषण लगाने की होड़ लगी है। भारत का गौरव और युवाओं की प्रेरणा बताया जा रहा है। मगर कोई यह नहीं पूछ रहा, खुद से सवाल नहीं कर रहा कि मिल्खा सिंह को भारत रत्न क्यों नहीं  मिला?

हम फिलहाल मरणोपरान्त की बात नहीं कर रहे। मगर जब देश में खेलों का पहला भारत रत्न दिया गया उस समय मिल्खा सिंह जिन्दा थे। चुस्त दुरुस्त थे। बस उस घोषणा के बाद हमेशा चहकने वाला वह खिलाड़ी खामोश हो गया था। और अब एशियाड, कामनवेल्थ के गोल्ड मेडलिस्ट, 1960 के रोम ओलंपिक में सैंकड के सौवें हिस्से से पदक पाने से रह गए, नेहरू के कहने से पाकिस्तान जाकर उस समय ऐसा ही नाम कर रहे पाकिस्तानी धावक अब्दुल खालीक को हराने वाले, जीतने के बाद जिनके लिए पाकिस्तानी अखबारों ने लिखा था “ वह दौड़ा नहीं उड़ा था“ मिल्खा सिंह हमेशा के लिए खामोश हो गए।

आज सारा मीडिया उन्हें उड़न सिख कहे दुनिया भर के विशेषणों से नवाजे मगर उस समय किसी ने सवाल नहीं उठाया कि खेलों में अगर जीवित को देना है तो मिल्खा को क्यों नहीं? और अगर मरणोपरांत भी देना है जो तुम जाने कितने नेताओं को दे चुके हो तो मेजर ध्यानचंद से बड़ा खिलाड़ी और कौन हुआ? देश का पहला भारत रत्न जब खेल के लिए दिया जा रहा था तो सब तरफ बधाईयां गाने का माहौल बन गया। कोई सुनने को तैयार नहीं था कि अगर सचिन को ही देना है तो दे दो! मगर साथ में 2 और भारत रत्न जो वास्तविक हैं, सच्चे और खरे हैं, मेजर ध्यानचंद और मिल्खा सिंह को भी दे दो। भारत के किशोरों और युवाओं में खासतौर से ग्रामीण, गरीब, निम्न मध्यम वर्गीय, मेहनतनश परिवारों के बच्चों में इन दोनो ने ही खेलों में मेहनत करने और कभी हार न मानने का जज्बा भरा था। माफी के साथ कहना चाहेंगे कि सचिन तेंदुलकर भारत के पहले और एकमात्र खेलों के भारत रत्न खेल के अंतिम समय तक हार न मानने और संघर्ष करने की हिम्मत कभी नहीं दिखा पाए।

मनमोहन सिंह की सरकार ने खेलों में पहला भारत रत्न दिया और गलत आदमी को दिया। सचिन से कांग्रेस क्या चाहती थी? पता नहीं! मगर सचिन कांग्रेस से क्या चाहते थे यह पता है। और वह उन्हें मिला भी। भारत रत्न के साथ राज्यसभा सदस्यता। इससे ज्यादा कोई और क्या चाहेगा? भारत रत्न तो किसी और खिलाड़ी को मिला ही नहीं राज्यसभा में मनोनयन भी किसका हुआ? सचिन ने इन सबके लिए कम प्रयास नहीं किए। वे अमेठी के गांवों में गए। राहुल गांधी द्वारा करवाए गए ग्रामीण क्रिकेट टूर्नामेंट को देखने, पुरुस्कार बांटने।

मिल्खा सिंह के न रहने पर राहुल, प्रियंका सबने उन्हें असाधारण उपलब्धियों वाला खिलाड़ी बताया। मगर ये साऱी उपल्बधियां मिल्खा सिंह ने खेल के मैदान में अपनी मेहनत और लगन से अर्जित की थीं। सरकार की तरफ से वे केवल पदमश्री थे। सामान्य सा पहली सीढ़ी का सम्मान। जो भारत में हजारों हजार लोगों को मिल चुका है। इस पदमश्री के बाद पदमभूषण और कई पुरस्कार हैं जो पता नहीं कितने अनाम खिलाड़ियों को मिल चुके हैं।

मगर मिल्खा सिंह एक ही थे। जीवित किंवदंती। मुहावरा बन गए थे। पूरे 60- 61 साल देश में हर थोड़ा सा भी तेज दौड़ने वाले लड़के को मिल्खा कहा जाता है। लेकिन दौड़ में मेहनत थी, ग्लैमर नहीं इसलिए हमारे यहां खेलों का हीरो मिल्खा सिंह और ध्यानचंद नहीं, सचिन होते हैं। वे सचिन जो कांग्रेस राज में उससे भारत रत्न और राज्यसभा लेते हैं और भाजपा के राज में उसके पक्ष में किसानों के विरोध में ट्वीट करते हैं। ये सचिन युवाओं को क्या सिखाएंगे? अवसरवादिता, स्वार्थी बनना!

इस समय पूरे विश्व में फुटबाल खिलाड़ी रोनाल्डो की धूम है। उन्होंने जिस तरह प्यास के नकली इलाज कोकाकोला को हटाकर पानी की महत्ता पूनर्स्थापित की वह पूरी दुनिया में साहस का अनुकरणीय उदाहरण बन गया। क्या भारत के सेलिब्रिटिज ऐसी हिम्मत कर सकते हैं? अभी उपर क्रिकेट के भगवान का खिताब गर्व से ओड़ने वाले सचिन का उदाहरण दिया कि उन्हें जो ट्वीट बनाकर दिया वह वैसा का वैसा कर दिया। सेलिब्रिटिज में भारत के दूसरे टाप स्टार अमिताभ बच्चन हैं। वे सदी के महानायक का भार संभाले हैं। एक समय था जब उन्हें अमर सिंह और सहारा वाले जहां जिस मुद्रा में खड़ा कर देते थे वहीं खड़े हो जाते थे। सहारा की शादियों में हर तरह के मेहमानों को रिसिव करने के लिए मुख्य द्वार पर पूरे विनित भाव से। उन्हें देश के महानायक बताया जाता है। कैसे सामाजिक मूल्य विकसित कर रहे हैं हम! कैसी है हमारी नायकों की पहचान की नजर! सहारा का जिक्र किया तो याद आया कि आज जैसे अंबानी हैं कभी उससे भी बड़े ठाट बाट के मालिक होते थे सहारा वाले। बेटों की शादी थी। भारी शान शौकत दिखाने वाली दो बेटों की शादियां। सोनिया गांधी कुछ नहीं थीं। मात्र कांग्रेस अध्यक्ष! जिनकी पार्टी के सत्ता में आने का कोई चांस उस समय कोई नहीं बताता था। प्रधानमंत्री थे अटलबिहारी वाजपेयी। मध्यांह के सूर्य जैसे चमक रहे थे। कौन नहीं गया उन शादियों में प्रधानमंत्री वाजपेयी और उप प्रधानमंत्री आडवानी भी। मगर नहीं गईं तो सोनिया नहीं गईं। सहाराश्री कहलाने वाले सुब्रतो राय ने बहुत कोशिशें कर ली कि सोनिया न आएं तो राहुल या प्रियंका को ही या दोनो में से किसी एक शादी में पहुंचा दें। मगर जैसा कि देश के बाकी प्रदर्शनप्रिय धनपति असफल रहते हैं, वे भी रहे।

एक सभ्य सामाजिक मूल्य है शादी में पैसों का फूहड़ प्रदर्शन नहीं। गांधी नेहरू परिवार ने इसे निभाया। खुद सोनिया राजीव की शादी हो या प्रियंका की सिर्फ परिवार के चुनिन्दा दोस्तों के अलावा को कोई नहीं। लेकिन यही परिवार जब गलत सलाहकारों से घिर जाता है तो मिल्खा सिंह और ध्यानचंद को भूलाकर सचिन को भारत रत्न दे देता है। नेहरू ऐसा कभी नहीं करते थे। भारत में खेल, कला और साहित्य के सच्चे सरंक्षक। कामनवेल्थ में जब मिल्खा ने लंदन में गोल्ड मेडल जीता तो नेहरू ने पुछवाया बोलो क्या चाहिए? तो मिल्खा बोला खुशी में भारत में एक दिन की छुट्टी मने। और जब मिल्खा गोल्ड मेडल लेकर भारत लौटे तो नेहरू ने दिया वचन पूरा करते हुए एक दिन की छुट्टी करवा दी। साहित्य में अपने उपर चाहे जब भड़कने वाले निराला के लिए फैलोशीप शुरू करवाई तो कहा पैसे उनके हाथ में मत देना महादेवी वर्मा के देना। वे जरूरत के हिसाब से थोड़ा थोड़ा देती रहेंगीं। नहीं तो वो एक बार में बांट देगा।

सचिन को किसी पुरस्कार या सम्मान की जरूरत नहीं थी। उसने बहुत पैसा बनाया। हकदार थे मिल्खा और ध्यानचंद। जो देश के लिए खेले। गरीबों और गांवों के देश में जो साबित करना जरूरी था वह किया कि प्रतिभा जन्मजात नहीं होती। परिस्थितियां पैदा करती है और मेहनत से वह निखरती है!

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)