दिनेश कुमार शर्मा
हमारे देश में एक संवैधानिक व्यवस्था है जो मुख्य रूप से तीन हिस्सों में बंटी हुई है – कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका। ये तीनों ही हिस्से स्वतंत्र हैं और एक दूसरे से जुड़े हुए भी हैं तथा इनमें जांच और संतुलन का भी इंतजाम है। ये तीनों शाखाएं ‘बुनियादी’ हैं और अपने आप में ‘महान संस्थाएं’। इनमें से किसी के भी कमजोर होने से पूरी व्यवस्था चौपट हो सकती है और बेहाल तो रहेगी ही।
उत्तर प्रदेश की राजधानी में पुलिस ने हाल में एक अभियुक्त को विद्वान मुख्य न्यायायिक दंडाधिकारी के आदेश पर रिमांड पर लिया और मुठभेड़ (एनकाउंटर) के नाम पर उसकी हत्या कर दी। ऐसा नहीं है कि पुलिस यह भूल गई होगी कि अभियुक्त दरअसल अदालत की हिरासत में है बल्कि यह भी संभव है कि उसने ऐसा दूसरी शाखा के आदेश पर या रजामंदी में किया हो। पर यह सब करते हुए वह पूरी व्यवस्था और जनता के भरोसे को होने वाले नुकसान को भूल गई।
‘न्यापालिका’ वह संस्था है जिसपर जनता का भरोसा सबसे ज्यादा है। कहने की जरूरत नहीं है कि जनता के भरोसे से ही ये संस्थाएं बनी और बची हुई हैं। हमारे जैसे नागरिक समाज में जहां कानून का राज चलता है, ऐसी गतिविधियों की भारी निन्दा की जानी चाहिए, अन्यथा हमें अराजकता की स्थिति में पहुंचने से कोई रोक नहीं सकता है। समय आ गया है कि हम नागरिक इसपर विचार करें और अपनी जिम्मेदारियां पूरी करें ताकि संस्थाओं की गरिमा तथा कुल मिलाकर पूरी व्यवस्था बनी रहे।
(दिनेश कुमार शर्मा की टिप्पणी का अनुवाद, संजय कुमार सिंह द्वारा किया गया है)