Latest Posts

दास-प्रथा तो गयी, जाति-प्रथा कब जायेगी?

भारतीय समाज, राजनीति, धर्म और दर्शन में समानता और स्वतंत्रता के भाव बेहद कमज़ोर हैं। समाज की तो पूरी आधारशिला ही असमानता और अन्याय पर आधारित जाति व्यवस्था पर सदियों से टिकी हुई है। मानव सभ्यता के विकास का अध्ययन हमें बताता है कि निजी संपत्ति के उदय के साथ, संपत्ति हासिल करने और उसे सुरक्षित बनाये रखने की प्रक्रिया में अन्यायपूर्ण व्यवस्था पर आधारित समाज अस्तित्व में आया। पूरी दुनिया में ही धीरे-धीरे श्रम करने वालों को हीन और इस श्रम से उत्पादित उत्पाद का उपभोग करने वालों को उच्च मानने का सिसलसिला भी पैदा हुआ। भले ही ये एक अन्यायपूर्ण व्यवस्था थी बावजूद इसके समाज ने इस व्यवस्था से भौतिक उन्नति भी की। इस पर विस्तार से अलग से जानने समझने की ज़रूरत है, लेकिन पिछले लगभग 5 सदियों में दुनिया बहुत तेज़ी से बदली है और पिछले 100 सालों में तो ये बदलाव बहुत ही तेज़ हुआ है। भारतीय समाज में ये बदलाव ज़रूर बहुत धीरे-धीरे हो रहा है इसलिए एक स्पेशल केस की तरह भारतीय समाज के पोस्टमार्टम की ज़रूरत है।

Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!

भारत में असमानता और अन्याय को जस्टिफाई करने के लिए दार्शनिक तर्क गढ़ लिया गया कि सत्व, रज और तम के असमान मिश्रण से संसार की रचना हुई है। फिर इन्हीं गुणों के असमान मिश्रण की कल्पना मनुष्य में कर लिया गया। इसके अनुसार सत्व गुण प्रधान ब्राह्मण सर्वोच्च शिखर पर है तो तमोगुण प्रधान शूद्र सबसे निचले पायदान पर। इस कल्पना के आधार पर भारतीय समाज को चार वर्णों में बांट दिया गया। यही नहीं, इस निहायत ही अमानुषिक और अन्यायपूर्ण विभाजन का महिमामंडन भी किया जा रहा है। जबकि ये सच है कि सत्व गुण प्रधान ब्राह्मण में ऐसे हर दुर्गुण विद्यमान हैं जिनकी कल्पना तम प्रधान शूद्र में की गई थी। इसी तरह सत्व गुण प्रधान ब्राह्मण के हर गुण तम प्रधान शूद्र में भी विद्यमान है। बावजूद इसके कुछ लोग मानने को तैयार नहीं हैं कि सत्व, रज और तम की कल्पना अन्यायपूर्ण व्यवस्था को न्यायसंगत ठहराने की एक धूर्त कोशिश थी।

भारतीय दार्शनिक, आध्यात्मिक, धार्मिक एवम राजनीतिक व्यवस्था में मानवमेधा द्वारा अर्जित एवम सृजित ज्ञान एवम कौशल पर समाज के प्रभु वर्ग के एकाधिकार को सुनिश्चित करने के लिए ही वर्ण या जाति व्यवस्था की खोज हुई। हलांकि जातियों के बनने की प्रक्रिया सदियों तक जारी रही लेकिन दो चीजें कभी नहीं बदलीं, वो है चार वर्णों की व्यवस्था और इनके बीच विद्यमान अन्याय और असमानता। दुनिया की हर सभ्यता में एक समय दास प्रथा व जातीय व्यवस्था से मिलती जुलती व्यवस्थाएं मौजूद थीं, लेकिन सभी समाजों ने इनका उन्मूलन किया, भारत ही अकेला ऐसा देश है जहाँ एक बड़ा वर्ग इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था को बनाये रखना चाह रहा है। हलांकि मनुष्य स्वाभाविकरूप से समानता, स्वतंत्रता और बंधुता का तलबगार होता है। बिना इनके वो शांति के साथ जी नहीं पाता। इसलिए जहां असमानता है वहां अन्याय होगा ही और जागरूक लोग इसका विरोध करेंगे।

अरब जगत में गुलामों के साथ प्रायः सम्मानजनक व्यवहार के उदाहरण मिलते हैं, यहाँ तक कि इस सांस्कृतिक पृष्ठिभूमि के बादशाहों ने गुलामों से अपनी बेटियाँ व्याहीं और उन्हें उत्तराधिकारी भी चुना, इस्लाम ने गुलाम या दासी रखने को ग़लत भी नहीं माना, बावजूद इसके ग़ुलाम को आज़ाद करने या करवाने को बड़ा पुण्य क़रार दिया। आज हम देखते हैं कि पूरे अरब और अफ़्रीका से दासप्रथा करीब करीब खत्म हो गई है। यूरोप और अमेरिका के गुलामों ने भी लड़कर और विशेष सुधारों के ज़रिए आज अपनी स्थिति बदल डाली है, लेकिन भारत आज भी सदियों पुरानी इस अन्यायपूर्ण जाति व्यवस्था को बनाये रखने के लिए हर मुमकिन कोशिश कर रहा है।

हम कह सकते हैं कि जातिगत अन्याय दासप्रथा के अन्याय से भिन्न है। हम ये भी कह सकते हैं कि आज़ाद भारत स्वम् को जातिगत अन्याय और असमानता से लगातार मुक्त करता हुआ दिखाई दे रहा है, लेकिन सच ये भी है कि इस व्यवस्था को बनाये रखने के हामियों की सत्ता और शक्ति के विभिन्न केंद्रों पर आज भी मज़बूत पकड़ है। यही कारण है कि हत्या का अपराधी अमीर और सवर्ण होने पर कोर्ट से ज़्यादा उम्र होने के कारण जमानत पा जाता है लेकिन एक मानवाधिकार कार्यकर्ता गंभीर रूप से बीमार होने के बावजूद जमानत पर नहीं छोड़ा जाता और जेल में उसकी मौत हो जाती है। अपराध समान होने पर भी धर्म के आधार पर एक को फांसी हो जाती है और दूसरे को इस देश की जनता अपना रहनुमा चुन लेती है। कहने का तात्पर्य ये है कि अन्यायपूर्ण व्यवस्था में संस्कारित लोग अन्याय को ही प्राकृतिक न्याय मान बैठते हैं, फिर वो शिक्षक हों कि जज, अन्याय ही उन्हें न्याय लगने लगता है। आज भारतीय समाज अन्यायपूर्ण न्याय को समाज के हर तल पर स्थापित करने को बेचैन है तो इसका कारण सदियों का ये संस्कार ही है।

जो समाज सदियों से अन्याय और असमानता में संस्कारित हो रहा है, उसके लिए ये बिल्कुल स्वाभाविक है। लेकिन, जैसा कि मैंने पहले ही कहा, समानता और स्वतंत्रता मनुष्य की स्वाभाविक प्यास है और ये प्यास न्यायपूर्ण व्यवस्था के बिना संभव नहीं है, अतः हम देखते हैं कि सदियों के संस्कार के बावजूद जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ आवाज़ उठती ही रहती है। महत्वपूर्ण बात ये है कि गुज़रते वक़्त के साथ ये आवाज़ें मज़बूत होती जा रही हैं। लेकिन, सबसे बड़ा सवाल है कि अन्याय और असमानता पर आधारित समाज का पूरी तरह बदलाव कैसे हो सकता है?

मैंने शुरू में ही निवेदन किया कि निजी संपत्ति के उदय के साथ ग़ैरबराबरी पैदा हुई है। बाद में ग़ैरबराबरी उत्पादन की चूंकि एक व्यवस्था बन जाती है इसलिए इसे बनाये रखने के लिए धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक उपाय भी किये जाते हैं। लिहाज़ा एक बात तो बिल्कुल साफ है कि निजी संपत्ति के उन्मूलन के बिना असमानता को मिटाया नहीं जा सकता और जब तक असमानता है उसे बनाये रखने के लिए अन्याय की भी ज़रूरत रहेगी ही।

अब दूसरा सवाल, निजी संपत्ति का उन्मूलन कैसे हो ?

एक रास्ता है कि समाज का जागरूक तबका पूरी सत्ता को पलट दे और बलात सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था को बदल डाले। अफ़सोस, देश में फिलहाल ऐसा कोई संगठन नहीं है जो इस जिम्मेदारी को पूरा कर सके। दूसरा रास्ता ये है कि मौजूदा सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ढाँचे में भागीदारी एवम सुधार के ज़रिए एक न्यायपूर्ण समाज का निर्माण किया जाए। ये दूसरा रास्ता सुरक्षित ज़रूर लगता है लेकिन सह और मात का खेल इसमें लगातार चलता रहेगा और न जाने कितने रोहित वेमुला और नजीब प्रभु वर्ग के अहंकार का शिकार होंगे। इन सबके बावजूद समानता, स्वतंत्रता और न्याय मानव मन की प्यास है, मनुष्य इस प्यास के होते हुए चैन से जी नहीं पायेगा और उसकी ये बेचैनी एक दिन दावानल बनकर हर अन्यायपूर्ण व्यवस्था को फूँक देगी।