सुदीप ठाकुर
उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों का अभियान तेज हो गया है। इसका पता इससे भी चलता है कि मुख्यमंत्री, मंत्री और सांसद वगैरह दलितों या अनुसूचित जाति के लोगों के घरों में जाकर जमीन पर बैठकर उनके साथ भोजन कर रहे हैं।
हालांकि यह सब बेहद प्रतीकात्मक और ढोंग के अलावा कुछ नहीं है, यह सबको पता है। हैरत इस पर होनी चाहिए कि जो देश आजादी की पचहत्तरवीं वर्षगांठ मना रहा है, उसके आबादी के लिहाज से सबसे बड़े सूबे के मुख्यमंत्री को ऐन चुनाव के समय सामाजिक संरचना के उत्पीड़ित लोगों के घर पर जाकर भोजन करते हुए अपनी तस्वीर क्यों प्रचारित करनी पड़ रही है! आखिर एक योगी को यह दिखावा क्यों करना पड़ रहा है, उसे तो ऐसे दिखावे से दूर रहना चाहिए?
यह सब हमारी सामाजिक संरचना की अंतर्निहित बुराइयों को ही उजागर कर रहे हैं। कुछ महीने पहले पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव के दौरान केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की ऐसी ही तस्वीरें सामने आ रही थीं। राजनीतिक रूप से पश्चिम बंगाल में प्रभावशाली मतुआ समाज को लुभाने के लिए वह इस समुदाय के घरों में जाकर भोजन कर रहे थे। हालांकि चुनाव के नतीजे बताते हैं कि उनकी यह सामाजिक-सांस्कृतिक यात्रा कारगर साबित नहीं हुई।
भारतीय समाज की संरचना में इतनी गहराई से जातियों की ऊंच-नीच समाई हुई है कि एक दिन किसी वंचित तबके के घर में भोजन करने से कोई चमत्कार नहीं हो जाने वाला है। फिर यह बात भी सामने आ चुकी है कि अतीत में उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति से संबंध रखने वाले लोगों के घरों में भोजन के ऐसे ही कार्यक्रम से पहले अधिकारियों ने उन्हें साबुन वगैरह दिए थे, ताकि वे नहा-धोकर साफ सुथरे नजर आएं। यह भी सामने आया कि ऐसे अभियान में भोजन बाहर से लाया गया था।
मुझे मेरे गृह नगर राजनांदगांव के मेरे मोहल्ले में होने वाले एक कार्यक्रम की याद आ रही है। वहां एक श्री रामायण प्रचारक समिति है।78 वर्ष पूर्व इसकी स्थापना हुई थी और तबसे वहां रोजाना दिन में कम से कम एक बार रामायण का पाठ होता है। श्री रामायण प्रचारक समिति तुलसी जयंती के मौके पर कई दिनों तक कई तरह के कार्यक्रम आयोजित करती है, जिनमें प्रबुद्ध लोगों के व्याख्यान भी शामिल होते हैं। मेरे अग्रज और रामायण प्रचारक समिति के सचिव विनोद कुमार शुक्ला ने बताया कि समिति अब भी तुलसी जयंती मनाती है और वहां अब भी कई तरह के कार्यक्रम होते हैं।
कई दशक पूर्व श्री रामायण प्रचारक समिति ने तुलसी जयंती के मौके पर होने वाले अपने व्याख्यान का विषय रखा था, ‘रामायण की महिला पात्र’! विभिन्न वक्ताओं को सीता, उर्मिला, कौशल्या, कैकेयी और शबरी इत्यादि महिला पात्रों के बारे में बोलना था। वक्ताओं में राजनांदगांव के पूर्व विधायक जॉर्ज पीटर लियो फ्रांसिस यानी हम सबके जेपीएल फ्रांसिस या फ्रांसिस साहब भी थे।
थोड़ा फ्रांसिस साहब के बारे में पहले जान लीजिए। जेपीएल फ्रांसिस 1940-50 के दशक में राजनांदगांव स्थित बंगाल नागपुर कॉटन मिल्स में श्रमिक थे और समाजवादी रुझान के श्रमिक नेता। श्रमिक नेता रहते ही 1957 में उन्होंने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से राजनांदगांव विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीता था।
फ्रांसिस साहब ने श्री रामायण प्रचारक समिति के व्याख्यान के लिए रामायण की जिस महिला पात्र को चुना वह थीं, शबरी। वही शबरी जो बेर चखकर श्री राम को खिलाती हैं। फ्रांसिस साहब ने अयोध्या के युवराज राम और एक वंचित महिला शबरी के रिश्ते की बहुत खूबसूरती से सांस्कृतिक ही नहीं, समाजशास्त्रीय दृष्टि से भी व्याख्या कर डाली।
प्रसंगवश यह भी जान लीजिए कि श्री रामायण प्रचारक समिति सिर्फ हिंदुओं तक सीमित नहीं है, जैसा कि फ्रांसिस साहब के व्याख्यान से अंदाजा लगाया जा सकता है। विनोद कुमार शुक्ला जी बताते हैं कि समिति विभिन्न धर्मों के विद्वानों को व्याख्यान के लिए आमंत्रित करती है, इसमें कोई बंधन नहीं है, ताकि सामाजिक सौहार्द मजबूत हो।
वस्तुतः जरूरत सामाजिक और जातिगत पदानुक्रम को तोड़ने की है। सिर्फ चुनावी मौसम में अनुसूचित जाति या जनजाति से जुड़े परिवारों के घरों में भोजन करने से यह पदानुक्रम नहीं टूटेगा।
मुझे कुछ दशक पूर्व की राजनांदगांव जिले के आदिवासी अंचलों मानपुर, मोहला और आंधी की यात्राओं की भी याद आ रही है। समाजवादी नेता, पूर्व विधायक मेरे चाचा (दिवंगत) विद्याभूषण ठाकुर को अक्सर वहां जाना पड़ता था। कई मौकों पर मैं और उनके बड़े पुत्र और मेरे मित्र जैसे भाई (दिवंगत) अक्षय भी साथ होते थे। कई ऐसे मौके भी होते थे, जब चाचा का सारथी बनकर मैं उन्हें मोटरसाइकिल से मानपुर-मोहला या छुरिया में होने वाली बैठकों के लिए ले जाया करता था। यह बैठकें कई बार बड़ी और कई बार बहुत छोटी होती थीं। बिना किसी औपचारिकता के सुंदर सिंह मंडावी, नोहर, लाल मोहम्मद जैसे चाचा के सहयोगियों और कार्यकर्ताओं के घरों में भोजन होता था। जमीन पर बोरा बिछा दिया जाता था और अक्सर भात और मुर्गा परोसा जाता था या कभी-कभी लौकी जैसी हरी सब्जी। कहीं कोई दिखावा नहीं होता था। यह भोजन साहचर्य का हिस्सा था।
सचमुच राजनीति कितनी बदलती जा रही है। एक मुख्यमंत्री को अपने ही सूबे के एक नागरिक के घर भोजन करने के बाद तस्वीर प्रचारित करनी पड़ती है!
(लेखक जाने माने ब्लाॅगर हैं)