सर्वमित्रा सुरजन
उन्होंने तो हमेशा ही कहा था- आएगा तो मोदी ही। कभी उन्हें ये कहते सुना कि लाएगा तो मोदी ही। नहीं न, फिर किस बात की शिकायत की जा रही है। परधानसेवक जी एक बार जो ठान लेते हैं, फिर वो अपने आप की भी नहीं सुनते। उन्होंने जब अपने किए हुए वादे ही पूरे नहीं किए, तो जो वादे किए ही नहीं, उन्हें कैसे पूरा करेंगे।
ख़ामख़्वाह गंगाजी के बेटे पर कीचड़ उछाला जा रहा है। अब गंगा जी के साथ कीचड़ का योग कितना गलत लगेगा। भले ही कमल कीचड़ में उगता हो, लेकिन इसके लिए ये बिल्कुल जरूरी नहीं है कि देश में कीचड़ ही कीचड़ भर दिया जाए और इतना कीचड़ चारों ओर फैल जाए कि लोगों के दिल, दिमाग, आंख-कान सब में कीचड़ चला जाए। एक कमल आखिर कितनी जगहों से खिलेगा, कहां-कहां उगेगा। कमल कोई कुकुरमुत्ता तो है नहीं, जो जरा सी नमी पाते ही उग आए। खैर, याद करिए 2014 में बनारस में परधानसेवक जी ने कहा था कि पहले मुझे लगा था मैं यहां आया, या फिर मेरी पार्टी ने मुझे भेजा है। लेकिन अब मुझे लगता है मैं मां गंगा की गोद में लौटा हूं। न तो मैं आया हूं, न मुझे लाया गया है, दरअसल मुझे तो मां गंगा ने बुलाया है।
आ हा, कैसे अद्भुत शब्द थे! ऐसी दिव्य वाणी सुनने का सौभाग्य देश को मिला। धन्य हुआ देश जब परधानसेवक जी गंगा पुत्र की तरह भारत भूमि पर अवतरित हुए। वे दिव्य पुरुष हैं, तभी तो शाही अंदाज में फ़कीराना ठाठ दिखा देते हैं। दस लाख का सूट पहन कर झोला उठाने की बात करने की कला सबको नहीं आती है। उनकी ये खूबियां बताती हैं कि महान काम करने के लिए उन्होंने मानव रूप धारण किया है। और इस देश की अबोध जनता उनसे क्या उम्मीद लगा कर बैठी है कि वो घर पहुंचाने जैसे छोटे-मोटे काम में अपनी शक्ति व्यर्थ करें।
लॉकडाउन के वक्त भी जब मज़दूर सड़क पर पैदल चलने लगे तो विघ्नसंतोषियों ने हल्ला मचाना शुरु कर दिया कि परधानजी उनके लिए बसों और ट्रेनों का इंतजाम करें। जबकि परधानसेवक जी ने मजदूरों को सलाह दी थी कि वे जहां हैं, वहीं रहें। लेकिन जब प्रवासियों ने जिद पकड़ ली कि हमें घर लौटना ही है, तो उन्हें उनकी जिद पूरी करने दी। इतने सहृदय शासक हैं परधानजी की बात-बात में उनकी रुलाई छूट जाती है। देखा नहीं था, कैसे विदेशी धरती पर, अजनबियों के सामने अपनी मां को याद करके रो पड़े थे। इतने भावुक हैं, फिर भी उन्होंने लाखों मजदूरों की पदयात्रा में आई तकलीफों पर या रात को धधकती चिताओं पर जरा भी आंसू नहीं टपकाए। अगर वे रोने लगते तो यह कमज़ोरी की निशानी होती। जबकि न्यू इंडिया को मजबूत नेतृत्व की दरकार पिछले 70 बरसों से थी। पहले के कमज़ोर शासकों ने तो पंचवर्षीय योजनाएं बनाकर, बड़े-बड़े कारखाने खड़े करके, हरित क्रांति, श्वेत क्रांति लाकर, बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके, स्कूल-कॉलेज, विश्वविद्यालय, शोध संस्थान, इसरो और न जाने क्या-क्या खोलकर देश को एकदम पंगु ही बना दिया था।
अब रेल चलाना, हवाई जहाज चलाना, इस्पात बनाना, कोयला निकालना कोई सरकार का काम तो है नहीं। जब सरकार ही ये सब करने लगेगी तो फिर उद्योगपति क्या निविदाएं ही भरते रह जाएंगे। छोटे-मोटे काम करके आखिर दुनिया के सबसे अमीर लोगों में तो शामिल नहीं हुआ जा सकेगा। देश को सोने की चिड़िया कहना पुरातनपंथी सोच है, नए जमाने में, न्यू इंडिया में सोने के गिद्ध देश को चाहिए। इसलिए मजबूत परधानी में अब देश में स्वर्ण गिद्ध ऊंची उड़ानें भड़ रहे हैं। इनकी उड़ान पर लोगों को फ़ख्र होना चाहिए। मगर मूर्ख लोग अब भी परधानजी की कमियां ढूंढने में लगे हैं। परधानजी की दूरदर्शी सोच उन्हें नज़र नहीं आ रही।
जब मजदूरों को पैदल घर जाने दिया, तो उसके पीछे मकसद यही था कि ये अपनी राह खुद बनाना सीखें। पैदल चलने से इनका शारीरिक तंत्र मजबूत होगा। जिससे सेंट्रल विस्टा या राम मंदिर जैसी भव्य इमारतें बनाने में इनकी ऊर्जा काम में लाई जा सकेगी। मज़दूरों को पैदल करने के पीछे भावी घटनाओं के संकेत देना था। मगर जनता यहां भी परधानजी की दूरदर्शिता के आगे मात खा गई। जनता को समझ ही नहीं आया कि एक-एक करके सबकी बारी आएगी।
मज़दूरों के पैदल चलने के बाद जल्दी ही विदेशी धरती पर छात्रों को पैदल चलाने का कमाल परधानजी ने कर दिखाया। लोग अब भी उनके मकसद को, उनके इशारों को नहीं समझ रहे हैं। बिलावजह हल्ला मचाया जा रहा है कि जब बाकी देश अपने नागरिकों को यूक्रेन से बाहर निकाल ले गए, तो हमारे हजारों बच्चे वहां क्यों फंसे हैं।
समझने की बात है कि परधानजी केवल भारत के सेवक हैं, बाकी देशों के लोग क्या करते हैं, उससे उन्हें क्या मतलब। दो-ढाई साल से तो परधानजी की विदेश यात्राओं पर भी ग्रहण सा लग गया है। पहले वे जाते थे तो उनके नाम के नारे विदेशी धरती की सड़कों पर लगते थे। दूसरे देशों के परधानों से गले मिल-मिल कर संबंध मजबूत किए गए थे। कमबख्त कोरोना ने अब गले मिलने पर भी रोक लगा दी है। इसलिए शायद संबंध अब कमज़ोर पड़ गए हैं और हमारे विद्यार्थियों की मदद नहीं हो पा रही है। पर इन कठिन हालात में भी हमारे महान परधान जी ने विद्यार्थियों के लिए गूढ़ संदेश दिया है।
कुछ साल पहले परीक्षा के वक्त उन्होंने छात्रों को योद्धा की तरह बनने की सलाह देने के लिए ‘एक्ज़ाम वारियर्स’ नाम की किताब लिख दी थी। और अब वो परख रहे हैं कि कितने बच्चों ने उनकी ये किताब पढ़ी, क्योंकि इस किताब में बताए नुस्खों से शायद यूक्रेन के इम्तिहान में फंसे विद्यार्थी उत्तीर्ण हो सकें। जो उत्तीर्ण होगा, उसे केन्द्रीय मंत्रियों के साथ भारत माता की जै का नारा लगाने और हाथ में तिरंगा पकड़ने का सुनहरा अवसर मिलेगा। लेकिन जो लोग इस परीक्षा में पास नहीं होंगे, उन्हें भी अपने देश की परधानी पर भरोसा रखना होगा, क्योंकि इसके सिवाय उनके पास कोई और चारा अभी नहीं है।
विद्यार्थी चाहें तो सोशल मीडिया पर रोजाना मदद की गुहार लगाने के साथ इस बात पर भी विचार करें कि परधानजी ने उन्हें आत्मनिर्भर बनने का एक सुनहरा मौका दिया है। विद्यार्थी इस बात पर भी गौर फरमाएं कि उन्हें वापस लाने के लिए मां गंगा के बेटे ने आपरेशन गंगा चलाया है। एक सपूत की यही पहचान होती है कि हर हाल में अपने मां-बाप को वह याद करता है। और जैसे परधानजी न खुद आए, न किसी ने उन्हें भेजा, उन्हें मां गंगा ने बुला लिया था, वैसे ही भारतीय विद्यार्थी भरोसा रखें, मां गंगा उन्हें भी बुला ही लेगी।
बाकी बचा विदेश जाकर पढ़ने का सवाल, तो उसे भी राष्ट्रप्रेम के चश्मे से देखना चाहिए। अपने देश में भले ही महंगी पढ़ाई हो और लाखों बच्चों के लिए कुछ हज़ार सीटें हों, नए कॉलेज या विश्वविद्यालय न खुलें, तब भी रूठकर दूसरे देश जाने की क्या जरूरत है। क्या यहां बिना पढ़ाई किए लोग एंटायर पॉलिटिकल साइंस के जानकार नहीं बनते। क्या बिना डॉक्टर बने लोग दवाओं और इलाज के जानकार नहीं हो जाते। जब अपने यहां गौ मूत्र और गोबर की इतनी अधिकता है, तो फिर दवाओं की ज़रूरत ही क्या है। जब कोरोना की वैक्सीन के लिए दुनिया भर के वैज्ञानिक माथापच्ची कर रहे थे, तब क्या अपने देश में मंत्री की मौजूदगी में कोरोना का सफाया करने वाली दवा लॉन्च नहीं हो गई थी।
इंतज़ार कीजिए, कुछ दिनों में चांद पर, मंगल पर भगवा न फहर जाए तो कहना और सूरज की गर्मी को रेगुलेट करने के लिए गोबरनुमा कोई नुस्खा भी मिल ही जाएगा। चमत्कारों से भरा है ये देश और इसे छोड़कर विद्यार्थी छोटे-छोटे देशों में पढ़ने चले जाते हैं। उन्हें विदेशी भाषा सीखनी पड़ती है, जबकि यहां चाय बेचने में ही हिंदी-अंग्रेजी सबका ज्ञान हो जाता है। विदेश जाने से देश के अरबों रुपए बाहर जाते हैं और अर्थव्यवस्था संभालने के लिए सरकार को महंगाई बढ़ानी पड़ती है। इसलिए चोखी सलाह यही है कि यहीं रहें और आकाश छूती मूर्तियों के आगे पकौड़े बेचें।