अखबारों की खबरों से अगर आप जानना-समझना चाहें कि वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद में क्या हुआ तो क्या समझेंगे? आज यह खबर सभी अखबारों के पहले पन्ने पर है। द टेलीग्राफ को छोड़कर मेरे बाकी चार अखबारों ने इस खबर को पर्याप्त जगह दी है और लीड या टॉप पर तीन कॉलम में छापा है। सबके साथ एक फोटो भी है। पर फोटो उस शिवलिंग की नहीं है जो मस्जिद में मिला बताया जा रहा है। हिन्दुस्तान टाइम्स ने शीर्षक में शिवलिंग को सिंगल इनवर्टेड कॉमा में लिखा है और द टेलीग्राफ ने भी। द टेलीग्राफ ने तो (शायद) इसीलिए इस खबर को सिंगल कॉलम में निपटा दिया है। हालांकि शिवलिंग नहीं है तो खबर बड़ी हो सकती थी पर कुछ अखबारों के मुताबिक यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है इसलिए शायद साफ-साफ नहीं लिखा गया हो।
बहरहाल, कारण चाहे जो हो मुझे शिवलिंग की फोटो पहले पन्ने पर मुख्य खबर के साथ नहीं होना खबर लिखने-छापने की आजादी और स्वतंत्रता को मुंह चिढ़ाता लग रहा है। खबर छोटी होती, जगह कम होती तो बात अलग थी, सुरक्षा बलों की फोटो छपी है पर जो मिला उसकी फोटो नहीं है तो शिवलिंग कैसे है। वैसे भी शिवलिंग को पहचानना बहुत मुश्किल नहीं है और हमलोग अक्सर खास आकार के पत्थर को शिवलिंग मान लेते रहे हैं। ऐसे में जांच के बाद जो परिणाम आएगा वह तो बाद की बात है पर जो मिला उसकी फोटो क्यों नहीं है। क्या वह देखने में भी शिव लिंग जैसा नहीं है?
यही नहीं, अखबारों के शीर्षक से भी नहीं लगता है कि जो मिला वह शिवलिंग ही है। फिर अखबारों ने यह साफ-साफ क्यों नहीं लिखा है? उदाहरण के लिए हिन्दुस्तान टाइम्स का शीर्षक देखिए, “ज्ञानवापी : हिन्दू पक्ष ने दावा किया ‘शिवलिंग’ मिला”। इसी तरह टाइम्स ऑफ इंडिया का शीर्षक है, सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई से पहले शिवलिंग के दावे पर ज्ञानवापी क्षेत्र सील कर दिया गया। द हिन्दू का शीर्षक है, लिंग मिलने के दावे पर मस्जिद का हिस्सा सील किया गया। इन सबसे अलग, इंडियन एक्सप्रेस की खबर छह कॉलम की लीड है। फ्लैग और उपशीर्षक के साथ दो लाइन का मुख्य शीर्षक भी है। किसी में भी शिवलिंग मिलने या नहीं मिलने की पक्की खबर नहीं है। क्या शिवलिंग इतना छोटा होगा कि दिखा नहीं या बरामद करने वालों ने दिखाया नहीं?
दोनों स्थितियों में क्या यह साफ-साफ नहीं लिखा जाना चाहिए था। अगर उसे छोड़ दें तो एक्सप्रेस की खबर ने लगभग यही कहा है। मैं नहीं जानता कि साफ-साफ क्यों नहीं कहा है पर उसे समझना मुश्किल भी नहीं है। एक्सप्रेस की खबर कुछ नहीं कहते हुए भी बहुत कुछ कहती है और मीडिया की हालत भी बताती है। यह अलग बात है कि इमरजेंसी में सब कुछ तन कर कहने वाला एक्सप्रेस जिसे हम जब वहां नौकरी करते थे तो सत्ता विरोधी बताते थे वह अब सत्ता से डरता लग रहा है। खबर का फ्लैग शीर्षक है, वीडियोग्राफी सर्वे पूरा हुआ, कोर्ट में रिपोर्ट आज। आप समझ सकते हैं कि अखबार इसीलिए अपनी ओर से कुछ नहीं कह रहे हैं। हालांकि पहले ऐसा नहीं होता था। गुप्त रिपोर्ट में क्या है यह भी छप जाता था।
एक्सप्रेस की मुख्य खबर के साथ दो खबरें हैं और दोनों के शीर्षक मुख्य शीर्षक के उपशीर्षक की तरह है (अनुवाद मेरा), “मस्जिद पैनल ने कहा कि वस्तु फव्वारे का भाग है और सीलिंग के आदेश को सर्वोच्च अदालत में चुनौती दी जाएगी”। दूसरा शीर्षक है, “सुप्रीम कोर्ट के अयोध्या फैसले को काशी टेस्ट का सामना करना पड़ रहा है : मस्जिद की अपील पर सुनवाई आज।” एक्सप्रेस की इस खबर का उपशीर्षक है, “याचिका में कहा गया है, सर्वेक्षण पूजा स्थल अधिनियम का उल्लंघन करता है”। अगर यह सही है तो बड़ी बात है लेकिन दूसरे अखबारों ने क्यों नहीं लिखा है। इंडियन एक्सप्रेस ने इस मामले में इंटरनेट पर कल जो खबर दी थी वही दूसरे अखबारों की खबर से अलग थी और कल ही चर्चित हो गई थी।
आज यह खबर सुबह करीब सात बजे संपादित की गई है और हिन्दी में इसके शीर्षक का मोटा अनुवाद होगा, ज्ञानवापी मस्जिद में हो रहे अवैध कार्य का खुलता राज। अखबारों और खासकर इंडियन एक्सप्रेस की इस खबर और शीर्षक के बाद बनारस में क्या हो रहा है वह समझने की चीज है। आम तौर पर प्रधानमंत्री या बड़े नेता का चुनाव क्षेत्र अच्छे कामों के लिए जाना जाता है पर लगता है बनारस को एक अलग किस्म की राजनीति का प्रयोगशाला बना दिया गया है। जो भी हो, हमने चुना है। हम ही झेलेंगे। इंडियन एक्सप्रेस की इस खबर का उपशीर्षक है, सुप्रीम कोर्ट को ज्ञानवापी मामले में आगे आना चाहिए और पूजा स्थल अघिनियम और अयोध्या फैसले में अपने ही आश्वासनों की रक्षा करनी चाहिए।
मुझे नहीं लगता कि सुप्रीम कोर्ट को पहले ऐसे उसके कर्तव्य बताने की जरूरत पड़ती थी और हमें याद है कि अखबारों की खबरों और चिट्ठियों पर कार्रवाई हो जाया करती थी। उसे याचिका मान लिया जाता था पर आज स्थिति यह है कि जो शिवलिंग दिखाया बताया जा रहा है, जिसके मिलने का दावा किया जा रहा है और उस आधार पर मस्जिद का एक हिस्सा सील कर दिया गया है। बेशक सुप्रीम कोर्ट ऐसे मामलों में उलझा रहेगा तो अन्य मामले रह जाएंगे और उसे राजद्रोह कानून जैसे मामलों में भी फैसला लेना होता है।
अमर उजाला ने उप शीर्षक में लिखा है, नंदी के सामने 12 फुट लंबा-आठ फुट चौड़ा शिवलिंग। पर फोटो यहां भी नहीं है। अखबार ने याचिकाकर्ता महिलाओं की तस्वीर छापी है। दैनिक जागरण में लिखा है, नंदी विग्रह के सामने 40 फीट की दूरी पर बने हौज का पानी निकालने पर दिखा शिवलिंग (इसे फव्वारे का हिस्सा कहा जा रहा है) और फोटो यहां भी नहीं है। फोटो की जगह स्केच बनाकर समझाने की कोशिश की गई है। नवोदय टाइम्स का शीर्षक है, शिवलिंग का दावा। कायदे से इसके साथ ही बताना चाहिए था कि रिपोर्टर ने क्या देखा या किस आधार पर दावा किया गया। पर वो सब नहीं है। सील करने का आदेश और 20 लोगों को ही नमाज अदा करने की इजाजत जैसी खबरें दावे को मजबूत बनाने के लिए है जो फोटो से ज्यादा मजबूत होती पर फोटो है ही नहीं। प्रभात खबर रांची ने लीड के भाग के रूप में लिखा है, सील हुई वह जगह। फोटो कोर्ट कमीशन के सदस्यों की छपी है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)