संजय कुमार सिंह
शाहरुख खान के बेटे आर्यन के खिलाफ नशे का मामला बहुत कमजोर था यह तो शुरू से ही स्पष्ट है। कल आयर्न को जमानत से संबंधित बांबे हाईकोर्ट का विस्तृत आदेश आने के बाद यह बात बिल्कुल साफ हो गई है या कहिए अदालत ने नहीं माना कि इस मामले में कार्रवाई लायक कुछ है। ठीक है कि आर्यन शाहरुख खान का बेटा है इसलिए उसकी गिरफ्तारी बड़ी खबर बनी और खूब छपी। जमानत मिलने के बाद शाहरुख ने अपने जन्म दिन और दीवाली के बहाने अपने “बिगड़ैल बेटे” के लिए वह सब किया जो सरकारी कार्रवाई के समर्थकों के लिहाज से नहीं करना चाहिए था। लेकिन जब हाईकोर्ट ने कह दिया कि मामले में दम नहीं है, आर्यन के खिलाफ सबूत नहीं मिला, तो इन आरोपों को दम मिलता है कि यह मामला वसूली का था। महाराष्ट्र के मंत्री नवाब मलिक ने जांच अधिकारी के खिलाफ ढेरों आरोप लगाए हैं। पहले उन्हें एक ईमानदार अधिकारी को ईमानदारी से काम रोकने की कोशिश कहा गया। पर अब तो मामला दमदार लगता है। लेकिन आज अखबारों में खबर क्या है?
अंग्रेजी के जो पांच अखबार मैं देखता हूं उनमें से चार में यह खबर पहले पन्ने पर है। सबमें मुख्य रूप से यही खबर है कि आर्यन के खिलाफ साजिश रचने (या अपराध करने) के कोई सबूत नहीं हैं। द टेलीग्राफ में यह खबर पहले पन्ने पर नहीं है लेकिन अंदर सात कॉलम में छपी खबर का शीर्षक है, “आर्यन साजिश का भाग था इसके सबूत नहीं : हाईकोर्ट”। द टेलीग्राफ जांच अधिकारी समीर वानखेड़े के खिलाफ आरोप छापता रहा है पर जो आर्यन के खिलाफ ही आरोप छाप रहे थे उनके लिए मजबूरी है कि वे उसके पक्ष में आए हाईकोर्ट के आदेश की बात भी बताएं। अब इसमें हिन्दी अखबारों की भूमिका कैसी रही यह मैं नहीं जानता क्योंकि मैं हिन्दी अखबार नियमित नहीं देखता हूं। पर यह दिलचस्प है कि इस खबर से समीर वानखेड़े के खिलाफ आरोपों की पुष्टि हुई है लेकिन आज के अखबारों में उसे महत्व नहीं मिला है। नवाब मलिक के कहने और याद दिलाने के बावजूद। यहां तक कि नवाब मलिक की खबर भी पहले पन्ने पर मुंबई नवभारत टाइम्स को छोड़कर और कहीं नहीं दिखी।
इस खबर की प्रस्तुति में सबसे दिलचस्प खेल या चूक हिन्दी अखबार हिन्दुस्तान ने की है। हिन्दुस्तान टाइम्स में यह खबर लीड है और शीर्षक है, “आर्यन के साजिश करने का कोई सबूत नहीं”। हिन्दी हिन्दुस्तान में यह खबर लीड नहीं है लेकिन टॉप पर चार कॉलम में छपी खबर का शीर्षक है, “आर्यन के खिलाफ साजिश के सबूत नहीं”। वैसे तो अंदर खबर सही है पर इस शीर्षक का यह अर्थ भी निकलता है कि आर्यन को साजिश कर फंसाने के सबूत नहीं हैं। जबकि इस मामले की तो जांच ही नहीं हुई है और इस मामले के गवाह ने ही ऐसे आरोप लगाए हैं कि मामला वसूली का था। अब परिस्थितिजन्य साक्ष्य इसकी पुष्टि कर रहे हैं। मुझे नहीं पता यह जान बूझकर किया गया है, अज्ञानता है या चूक। लेकिन उस अखबार में है जिसके बारे में कहा जाता रहा है कि वहां ना कर्मचारी की कमी है ना पैसों की। बेशक, यह कहा जा सकता है कि शीर्षक सही है और इसके दोनों मतलब निकलते हैं लेकिन दुखद यह है कि मूल मुद्दा रह गया। समीर वानखेड़े पर वसूली की कोशिश का मामला चलेगा या वे गुजरात में ऐसा ही काम करने के आरोपी रहे अधिकारी की तरह ईनाम पाएंगे?
नवभारत टाइम्स मुंबई ने इस खबर को लीड तो बनाया है पर उपशीर्षक है, “सार्वजनिक हुआ एचसी से मिला बेल का विस्तृत आदेश”। वैसे तो यह कोई पहला मामला नहीं है कि इस तथ्य को इतनी प्राथमिकता दी जाए। दूसरे इसमें कोई चूक या नई बात नहीं है और अदालत के आदेश सार्वजनिक होते ही हैं। अखबार शायद वायरल होने को सार्वजनिक होना लिख गया है। लेकिन एक बड़े अखबार में यह चूक और समीर वानखेड़े का मामला छूट जाना रेखांकित करने लायक तो है ही। खासकर तब जब अखबार ने मुख्य खबर के साथ चार अन्य संबंधित खबरें छापी हैं और इनमें एक नवाब मलिक की खबर भी है, अब तो वानखेड़े को निलंबित करो। ठीक है कि हाईप्रोफाइल मामलों की जांच करने वाले अधिकारी को सुरक्षा मिलनी चाहिए लेकिन उसे संजीव भट्ट ही बनाया जाए यह कोई जरूरी नहीं है। ना ही यह जरूरी है कि हर अफसर संजीव भट्ट की तरह हिम्मती हो। ऐसा नहीं हुआ तो अच्छे दिन का उपयोग कमाने खाने में करके फिर लो-प्रोफाइल हो सकता है।
यह सब देखना और सरकार का भरोसा बनाए रखना सरकार का ही काम है। वसूली करने के आरोपी अफसर के खिलाफ सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध तथ्यों के आधार पर कार्रवाई नहीं होगी तो सरकार पर कौन भरोसा करेगा और कितने दिन? मीडिया पैसे कमाने की होड़ में भले सब भूल जाए, पीड़ितों को तो याद रहेगा। वानखेड़े के खिलाफ एक-दो नहीं 26 मामले तो एक ही पत्र में थे और उनका कुछ नहीं बिगड़ा। कानून के हाथों इस तरह सताए और संरक्षित अधिकारियों को झेलने-भुगतने और देखने वाले युवा भविष्य के नागरिक हैं और ये कैसा देश बनाएंगे?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)