Latest Posts

समर का जवाब, ‘मुग़ल डकैत थे इसीलिये चिरकुट को उपनाम ‘मुन्तशिर’ मुगलों से चुरा कर लाना पड़ा’

नई दिल्लीः गीतकार मनोज मुन्तशिर ने मुग़ल बादशाहों को डकैत बताया है, जिसके बाद सोशल मीडिया पर इस गीतकार की खूब खिंचाई हो रही है। इसी क्रम एशियन ह्मूयनराइट्स कमीशन से जुड़े अविनाश कुमार पांडेय उर्फ समर अनार्य ने ऐतिहासिक तथ्य प्रस्तुत कर मनोज मुन्तशिर को जमकर लताड़ा है। समर ने फेसबुक पर टिप्पणी करते हुए लिखा कि बेचारे मनोज शुक्ला सिर्फ चिरकुट गिरहकट इसीलिए उपनाम मुन्तशिर मुगलों से चुरा कर लाना पड़ा.

Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!

समर ने लिखा कि मुग़ल डकैत थे. इसीलिए राजपूत राजा मान सिंह ने अकबर के बेटे जहाँगीर से बहन मनभावती बाई ब्याह दी थी, इसीलिए इसीलिए हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर का सेनापति था अकबर का नवरतन (और समधी (या क्या रिश्ता होगा?) भी- ज़हाँगीर से बहन- मनभावती बाई ब्याही थी) राजपूत राजा मान सिंह और वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप के सेनापति थे हक़ीम खान सुर. (आज मान सिंह के तमाम वंशज संघ/भाजपा में हैं  सांसद राजकुमारी दिया सिंह समेत।)

समर ने ऐतिहासिक तथ्य रखते हुए लिखा कि मानसिंह वैसे अकबर के भतीजे भी थे. जोधाबाई के बड़े भाई भगवंत दास के पुत्र।  वापस महाराणा प्रताप पर: अकबर के मेवाड़ पर 1567–1568 के हमले और घेराबंदी के वक़्त पूरे राजपूताने का कोई भी राजा महाराणा प्रताप के साथ नहीं खड़ा हुआ था. कुछ ने तो असल में अकबर का साथ दिया था.

और भी दिलचस्प ये है कि इस घेराबंदी में अकबर की सेना का नेतृत्व अकबर के साथ साथ राजा टोडरमल और भगवंत दास भी कर रहे थे. जबकि महाराणा प्रताप के सिपहसालारों में राव जयमाल के साथ संदा सिलाहदार, साहिब खान और इस्माइल भी थे.

हार सामने देख राव जयमाल ने समर्पण का प्रस्ताव रखा और सुलहनामे के लिए संदा सिलाहदार, साहिब खान और इस्माइल को अकबर से बातचीत करने भेजा। अकबर ने प्रस्ताव सिरे से नकार दिया क्योंकि वह स्वयं उदय सिंह के समर्पण से नीचे पर राजी नहीं था.

आखिरकार 23 फ़रवरी 1568 को अकबर ने चित्तौड़गढ़ जीत ही लिया और फिर अकबर,  टोडरमल और भगवानदास के नेतृत्व वाली इस सेना ने भीतर मौजूद सारे लोगों को मार दिया- महाराणाप्रताप के सभी सेनापतियों माने राव जयमाल के साथ संदा सिलाहदार, साहिब खान और इस्माइल, ऐसर दास चौहान और पट्टा सिसौदिया को भी.

हालांकि अकबर उनके जीते जी न महाराणा प्रताप कोपकड़ पाया न उदय सिंह को, उलटे जब अकबर ने अपनी राजधानी लाहौर को बना लिया तब महाराणा प्रताप ने अपने तमाम किले वापस छीन लिए. यहाँ तक सचमुच वीरता है- पर निजी वीरता। दोनों तरफ दोनों हैं. यहीं वीरता ख़त्म भी हो जाती है.

1615 में महाराणा प्रताप के बेटे अमर सिंह ने मुग़ल आधिपत्य स्वीकार लिया। जहांगीर ने इसके बदले में उन्हें चित्तौड़ का किला भी लौटा दिया- पर इस शर्त के साथ कि उसकी कभी मरम्मत नहीं की जाएगी। पराजय की याद दिलाने के लिए भी, और बगावत से बचने के लिए भी.

महाराणा प्रताप का मेवाड़ यहीं खत्म हो गया था. कमजोर हो गए मेवाड़ को सिंधिया। होल्कर और आमिर खान जब तब लूटा करते थे सो 1803 में मेवाड़ ने अंग्रेजों से मदद मांग उनका वेसल स्टेट (मुगलों की मनसबदारी जैसा) होना स्वीकार कर लिया- हमेशा के लिए अंग्रेजों को निश्चित राजस्व देने और उनके लिए सेना रखने की शर्त पर.

बाकी पता हो तो कोई बात नहीं-  न पता हो तो ढूँढ़ियेगा कि 1857 में महाराणा का मेवाड़ किस तरफ से लड़ा था- अंग्रेजों के या आज़ादी के. वह भी तब जब हमारे अवध में बेगम हज़रत महल से शुरू कर अमोढ़ा जैसी छोटी रियासत के ज़ालिम सिंह से लेकर तमाम इलाकाई जागीरदारअंग्रेजों को नाकों चने चबवा रहे थे, बाद में कीमत चुका रहे थे. इतिहास बहुत निर्मम चीज है! ढंग से पढ़ा करिये- वरना कोई भी बेवकूफ बना कर चला जायेगा।