सन 1947 में खुदमुख्तारी हासिल करने के बाद हिन्दुस्तान ने अपने चप्पे-चप्पे पर कानून का राज तो घोषित कर दिया, मगर इसके समाज में अब भी ऐसे कई अंधेरे कोने हैं, जहां कानून का कोई अमल-दखल नहीं, जहां इंसानियत हर रोज रौंदी जाती है, कांपती-थर्राती है। रुनझुन बेगम हमारे समाज के इन्हीं स्याह कोनों के लिए एक ‘लैंपपोस्ट’ हैं।
कामरूप (असम) जिले के रंगिया कस्बे की रुनझुन एक गरीब परिवार में पैदा हुईं। वह समाज के जिस वर्ग से आती हैं, उसमें लड़कियां तब किशोरावस्था में ही ब्याह दी जाती थीं। लिहाजा, 2007 में मैट्रिक पास करने के बाद रुनझुन भी ब्याह दी गईं। उस वक्त वह सिर्फ 16 साल की थीं। वह आगे और पढ़ना चाहती थीं, मगर बिरादरी के उसूल आड़े आ गए और वाल्दैन भी इस जिम्मेदारी से जल्द फारिग होना चाहते थे। इस नियति को रंगिया जैसे कस्बों की बेटियां ही नहीं जीती हैं, जिसमें जिम्मेदारी ‘पूरी’ करने के बजाय उससे ‘मुक्ति’ की भावनाएं पलती हों, यह हमारे कथित शिक्षित परिवारों से जुड़ी विडंबना भी है। उनमें भी बेटी के ब्याह का फर्ज एक ‘बोझ’ जैसे एहसास तले हमेशा दबा रहता है। रुनझुन का दांपत्य जीवन शुरू-शुरू में ठीक था, क्योंकि वह एक खिदमद गुजार बीवी और बहू का किरदार जो निभाती रहीं। आसपास की तमाम हमउम्र लड़कियों की जिंदगी भी कुछ ऐसी ही थी। शादी के साल भर बाद उनकी गोद में बड़ी बेटी रिया आ गई थी। मां की भूमिका वैसे भी हर मलाल को मिटा देती है, रुनझुन भी बेटी की मुस्कान से दिन भर की अपनी थकन और शिकायतें धोती रहीं।
साल 2010 में दूसरी बेटी नूरी की पैदाइश के बाद ससुराल वालों के तेवर बिल्कुल बदल गए। सास-ससुर की तल्ख बातें देखते-देखते गालियों में तब्दील हो गईं, पति ने भी बात-बात पर जलील करना शुरू कर दिया। रुनझुन के पास इन्हें सहने के सिवा दूसरा कोई चारा नहीं था। यही सामाजिक दस्तूर था। सदियों से पोषित संकीर्ण सोच सिर्फ कानून बना देने से बदल जाया करती, तो इतने सारे इदारों की जरूरत भी क्यों पड़ती? याद कीजिए, बालिग बेटियों को आजादी के साथ वोट डालने का हक फौरन मिल गया था, मगर पैतृक संपत्ति में अपने हिस्से का कानूनी अधिकार पाने में उन्हें तब भी कई दशक लग गए।
करीब तीन साल तक रुनझुन इस जहालत और जुल्म को झेलती रहीं। मानसिक उत्पीड़न अब शारीरिक प्रताड़ना तक पहुंच चुका था। कई बार रुनझुन के मन में यह गुनहगार सोच उभरी कि खुद को खत्म करके इस तकलीफ से हमेशा के लिए छुटकारा पा लिया जाए, मगर उनका दीन खुदकुशी को हराम बता रहा था, तो कानून अपराध और एक मां का फर्ज अपनी बेटियों के साथ जुल्म। इसलिए रुनझुन का आजिज मन कई बार उस मोड़ तक जाकर लौट आया।
तीन साल से भी ज्यादा वक्त इसी तरह गुजर गया। इसके बाद एक और आजमाइश की घड़ी आई। रुनझुन फिर से मां बनने वाली थीं। एक और बेटी के ख्याल से ‘चिंतित’ घरवाले किसी सूरत इस बच्चे को दुनिया में लाए जाने के रवादार न थे। पति और ससुराल वालों ने रुनझुन को गर्भपात के लिए मनाने की कोशिश की, लेकिन उन्हें यह कतई गवारा न था। जाहिर है, उन पर होने वाली ज्यादतियों की सूची बढ़ती गई। अब कोई भी दिन ऐसा न बीतता, जब उनके साथ मार-पीट न की जाए।
फिर 11 फरवरी, 2013 का वह दिन आया, जब सब्र ने साथ छोड़ दिया और जेहन ने यह पुख्ता एहसास कराया कि वह किसी दिन मारी जा सकती हैं। अब तक बच्चियों की चिंता पांव में बेड़ियां डाले थी, अब तो यह उलझन भी नहीं रही। आखिर कब्र में पहुंचकर वह उनकी क्या मदद कर सकती थीं? पांच माह की गर्भवती रुनझुन के लिए ससुराल से जान बचाकर भाग निकलना ही एकमात्र रास्ता बचा था। महज 30 रुपये पल्लू में थे, और सामने अनजानी दुनिया। बस में सवार रुनझुन को यह तक पता नहीं था कि जाना कहां है? मदद किससे मांगनी है?
गुवाहाटी जा रही उस बस में ही एक दंपति को जैसे ऊपर वाले ने फरिश्ता बनाकर भेज दिया था। उनकी मदद से रुनझुन मानवाधिकार आयोग पहुंचीं और वहां उन्होंने घरेलू हिंसा के खिलाफ अपना मुकदमा दायर कराया। वहीं पर उन्हें पबित्रा हजारिका व एलेन महंत मिले। इन दोनों वकीलों ने मुकदमे में रुनझुन की काफी मदद की। ‘निर्मल आश्रय’ शरणालय में उनके रहने की व्यवस्था कराई।
नाजुक समय था। रुनझुन नौ माह की गर्भवती थीं। गुवाहाटी के पाथरक्वारी इलाके में स्थित इस शरणालय के कर्ताधर्ताओं ने न सिर्फ रुनझुन के सुरक्षित प्रसव की पूरी व्यवस्था की, बल्कि उनके नवजात शिशु और उनका पूरा-पूरा ख्याल रखा। रुनझुन को कुदरत ने इस दफा बेटे से नवाजा। उन्होंने उसका नाम निजामुल हुसैन रखा है। प्यार से वह उसे ‘लकी’ बुलाती हैं। अगले पांच महीनों तक वह निर्मल आश्रय में ही रहीं। इस दौरान उन्होंने सिलाई-बुनाई का प्रशिक्षण लिया।
उन्होंने जब अपना काम शुरू किया, तब वह बमुश्किल 20 रुपये रोज का कमा पाती थीं। दूसरों के जूठन खाकर, उतरन पहनकर वह पैसे जोड़ती रहीं। हुनरमंद रुनझुन की आमदनी कुछ ही समय में रोजाना 200 रुपये तक पहुंच गई। साल 2014 में उन्होंने अपनी दुकान खोली- ‘लकी टेलर।’ अपने जैसी कई पीड़िता को उन्होंने खुद से जोड़ा और कुछ ही दिनों में वह पूरे असम, बल्कि राज्य के बाहर से भी ऑर्डर लेने लगीं। अब तो उनकी आय लगभग एक लाख रुपये मासिक तक पहुंच चुकी है। पति से तलाक ले चुकी हैं, मगर दोनों बेटियां उनसे दूर हैं। रुनझुन आज खुद जैसी 15 महिलाओं के परिवार पाल रही हैं। असम सरकार की समाज कल्याण मंत्री ने हाल ही में उन्हें सम्मानित किया है।
(प्रस्तुति: चंद्रकांत सिंह, सभार हिंदुस्तान)