जो लोग 2002 तक अपने कार्यालय पर कभी तिरंगा नहीं फहराते थे, वही आरएसएस वाले आजकल तिरंगे पर बड़ा आंसू बहा रहे हैं। इससे कौन सहमत नहीं होगा कि तिरंगे का अपमान नहीं होना चाहिए, लेकिन पिछले 80 सालों में तिरंगे का संघ परिवारियों से ज्यादा अपमान किसी ने नहीं किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ खुद 2002 तक अपने नागपुर कार्यालय पर तिरंगा नहीं फहराता था। इसका जवाब इन्होंने आज तक नहीं दिया।
साल था 2001। 26 जनवरी को नागपुर के आरएसएस मुख्यालय में राष्ट्रप्रेमी युवा दल के तीन युवक घुस गए और तिरंगा फहराने का प्रयास किया। ये तीनों थे बाबा मेंढे, रमेश कलम्बे और दिलीप चटवानी। इन तीनों के खिलाफ एफआईआर दर्ज हुई और 12 साल तक मुकदमा चला। उनका अपराध ये था कि गणतंत्र दिवस पर आरएसएस का तिरंगा झंडा न फहराना उन्हें बुरा लगता था और वे खुद ये काम करने आरएसएस के कार्यालय गए थे। इन तीनों को अगस्त 2013 में नागपुर की एक अदालत ने बाइज्जत बरी किया।
इस कांड के बाद 2002 में आरएसएस मुख्यालय पर तिरंगा झंडा फहराया जाने लगा। सवाल ये है कि आजादी से लेकर 2002 तक आरएसएस के लोग खुद अपने मुख्यालय पर तिरंगा क्यों नहीं फहराते थे? क्या 2002 के पहले तिरंगा भारत का राष्ट्रध्वज नहीं था या फिर आरएसएस खुद देशभक्त नहीं था? क्या आरएसएस तिरंगा इसलिए नहीं फहराता था क्योंकि आजादी के समय से ही वह भारतीय संविधान और राष्ट्रीय झंडे के खिलाफ था? क्या इसलिए कि इनके गुरु गोलवलकर भारत के तिरंगे झंडे को अशुभ बता चुके थे?
जो खुद दो दशक पहले तक तिरंगा नहीं फहराते थे, वे रिटायर्ड फौजियों और किसानों ने देशभक्ति का सबूत मांगे तो ये बात बेहद अश्लील लगती है। जब देश आजाद हुआ, तब भारत के संविधान और तिरंगे झंडे के खिलाफ आरएसएस ने देश भर में अभियान चलाया था। तिरंगे झंडे के खिलाफ आरएसएस और हिंदू महासभा के नेता आग उगलते घूम रहे थे। आरएसएस के सरसंघचालक गोलवलकर ने गुरु पूर्णिमा पर एक सभा को संबोधित करते हुए कहा था, ‘सिर्फ और सिर्फ भगवा ध्वज ही भारतीय संस्कृति को पूरी तरह प्रतिबिंबित करता है। हमें पूरा यकीन है।।। अंततः पूरा देश भगवा ध्वज के सामने ही अपना सिर झुकाएगा।’
गोलवलकर का कहना था, ‘यह (तिरंगा) कभी भी हिंदुओं के द्वारा न अपनाया जायेगा और न ही सम्मानित होगा’। तीन का शब्द तो अपने आप में ही अशुभ है और तीन रंगों का ध्वज निश्चय ही बहुत बुरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालेगा और देश के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होगा’। हिंदू महासभा के नेता वीडी सावरकर ने संविधान सभा में कहा था, ‘भारत का प्रतीक सिर्फ भगवा-गेरू रंग ही हो सकता है।।। अगर किसी झंडे में ‘कम से कम एक पट्टी भी भगवा नहीं होगी तो हिन्दू उसे अपना झंडा नहीं मानेंगे।’
आजादी के बाद भी इनकी ये हरकत जारी रही। आरएसएस ने कभी भी तिरंगे को भारतीय राष्ट्र का ध्वज नहीं माना था। लेकिन 2002 के केस के बाद वे देशभक्त बन गए और अब दूसरों से देशभक्ति का प्रमाण मांगते फिरते हैं। गांधीजी की हत्या में संलिप्तता के मामले में सरदार पटेल ने संघ पर प्रतिबंध लगा दिया था। ये प्रतिबंध हटाया गया तो पटेल ने आरएसएस के सामने शर्त रखी थी कि यह संगठन तिरंगे को राष्ट्रध्वज मानेगा और संविधान का सम्मान करेगा।
ऐसे लोग आज भारत के आम किसानों की देशभक्ति पर सवाल उठा रहे हैं। ये सही है कि तिरंगे का सम्मान करना चाहिए। लेकिन ये लेख लिखने तक दिल्ली में आपकी ही सरकार है, लाल किले पर जिसने तिरंगे के पास दूसरा ध्वज फहराया, उसे पकड़ा क्यों नहीं गया? इसका जवाब सीधा सा है कि कभी वे तिरंगे के खिलाफ लोगों को उकसाते थे, आज तिरंगे की आड़ लेकर लोगों को उकसा रहे हैं। वे देश के किसानों और रिटायर्ड जवानों को खालिस्तानी और पाकिस्तानी बताने जैसा मूर्खतापूर्ण बकवास कर रहे हैं। लेकिन संघियों को पहले खुद इस बात का जवाब देना चाहिए 2002 के पहले तिरंगा भारतीय राष्ट्र का राष्ट्रध्वज नहीं था या फिर आरएसएस देशभक्त नहीं था?
देश के साथ छलप्रपंच आरएसएस, महासभा और मुस्लिम लीग जैसे संगठन करते हैं, आज ये काम राजनीतिक दल कर रहे हैं। भारत के किसानों, मजदूरों और आम लोगों ने तिरंगा अपने लहू की कीमत पर हासिल किया है। मुझे यकीन है कि जिस दिन उस पर खतरा आएगा, लाखों करोड़ों भारतीय बिना कहे फिर से बलिदान देने को तैयार हो जाएंगे। जिन किसानों के बीच आप खालिस्तानी खोज रहे हैं, उनके बेटे अब भी सीमा पर पहरा दे रहे हैं। जिन्हें इन तथ्यों पर संदेह हो वे शम्सुल इस्लाम, सुभाष गाताडे और सौरभ वाजपेयी जैसे विद्वानों के लेख गूगल कर लें या उनकी किताबें मंगवा लें।
(लेखक युवा पत्रकार एंव कथाकार हैं)