रोशन जहां: ट्रेन के पहियों ने उसके पैर कुचले, लेकिन सपने नहीं

मुंबई की जोगेश्वरी चॉल में रहने वाली रौशन को बचपन में ही किताबों से प्यार हो गया। अब्बू पड़ोस में सब्जी का ठेला लगाते थे। अम्मी भी पढ़ी-लिखी नहीं थीं। बेटी ने जब दसवीं में 92 फीसदी अंक हासिल किए, तो अखबार में फोटो छपा। पड़ोसी बधाई देने उमड़ पडे़। अम्मी-अब्बू की खुशी का ठिकाना न था। उसी दिन रौशन ने एलान कर दिया, मैं डॉक्टर बनूंगी। अब्बू ने कलेजे से लगाते हुए कहा, जरूर मेरी बच्ची, मैं तुम्हारे साथ हूं। 

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रोशन बांद्रा के अंजुमन-ए-इस्लाम डॉ इशाक जमशानावाला कॉलेज में पढ़ीं। यह वाकया 2008 का है। तब वह16 साल की थीं। उन दिनों 11वीं की परीक्षाएं चल रही थीं। शाम का समय था। परीक्षा देने के बाद वह लोकल ट्रेन से घर लौट रही थीं। हमेशा की तरह ट्रेन में बहुत भीड़ थी। एक हाथ में किताबें थामे किसी तरह खुद को संभालते रौशन ट्रेन में घुसीं। भीड़ बढ़ती जा रही थी। अचानक धक्का लगा और वह ट्रेन के दरवाजे तक आ गईं। इससे पहले कि वह खुद को संभाल पातीं, संतुलन बिगड़ा और नीचे गिर गईं। उनकी चीख ट्रेन की तेज आवाज में दब गई। ट्रेन गुजरने के बाद मंजर खौफनाक था। वह पटरी पर पड़ी थीं। उनके दोनों पैरों पर से ट्रेन के 12 डिब्बे गुजर चुके थे। रौशन बताती हैं- मैंने देखा, मेरी टांग एक हिस्सा पटरी के दूसरी तरफ पड़ा था। मैं रोने लगी। मैंने राहगीरों से कहा कि मेरे घरवालों को फोन कर दो। किसी ने मदद की नहीं। आधे घंटे बाद मेडिकल टीम आई और मुझे अस्पताल ले जाया गया। 

खबर मिलते ही अम्मी और अब्बू भागे-भागे अस्पताल पहुंचे। बेटी की हालत देख दोनों कांप गए। डॉक्टर ने कुछ देर बाद ही कह दिया, इसके दोनों पैर काटने पड़ेंगे, वरना गैंगरीन हो जाएगा। रौशन सदमे में थीं। मन में एक ख्याल आया, जब जीकर क्या करूंगी? करीब तीन महीने तक अस्पताल में रहीं। इस दौरान तमाम रिश्तेदार और पड़ोसी उन्हें देखने आते रहे। हर किसी को उन पर तरस आ रहा था। सब कहते, बेचारी रौशन। अब क्या करेगी? इसकी तो जिंदगी खराब हो गई। रौशन बताती हैं- तब मैं 16 साल की थी, लेकिन मेरी हालत नन्हे बच्चे की तरह हो गई थी। मैं अपना कोई काम नहीं कर सकती थी। अम्मी ने मुझे संभाला। मुझे हौसला दिया, वरना मैं तो कब की मर जाती।

अस्पताल से घर लौटने के बाद रौशन घोर निराशा डूब गईं। उन्होंने सोच लिया था कि अब वह आगे नहीं पढ़ पाएंगी। पर अम्मी ने उन्हें बाकी परीक्षाएं देने के लिए प्रेरित किया। वह व्हीलचेयर में बैठकर परीक्षा देने पहुंचीं। 11वीं में अच्छे अंक आए। उम्मीद जग चुकी थी। 12वीं की तैयारी घर से की और इस बार भी अच्छे अंकों से परीक्षा पास की। इस बीच वह कृत्रिम पैरों के सहारे चलने लगीं। अब अम्मी हर पल उनके साथ रहती थीं। 12वीं के नतीजे के बाद अम्मी ने याद दिलाया, तुझे डॉक्टर बनना है। उन्होंने मेडिकल परीक्षा की तैयारी शुरू की। 2011 में मेडिकल प्रवेश परीक्षा में रौशन की तीसरी रैंक आई। अब यकीन हो चला था कि उन्हें डॉक्टर बनने से कोई नहीं रोक सकता। पर काउंर्संलग में जाने के बाद बड़ा धक्का लगा। काउंर्संलग टीम ने उन्हें 88 फीसदी दिव्यांग बताते हुए मेडिकल कॉलेज में दाखिला देने से इनकार कर दिया। रौशन कहती हैं- अल्लाह ने एक बार फिर मेरी परीक्षा ली। लगा जैर्से जिंदगी ने सब कुछ छीन लिया है। मैंने मान लिया था कि मैं डॉक्टर बनने के काबिल नहीं हूं। लेकिन इस बीच मेरे डॉक्टर ने मुझे कोर्ट जाने की सलाह दी।

अब बड़ा सवाल यह था कि उनका केस कौन लड़ेगा? घर के हालात ऐसे नहीं थे कि वकील की फीस दी जा सके। खैर रौशन अम्मी-अब्बू के संग इलाके के एक वरिष्ठ वकील से मिलने पहुंची। वकील साहेब रौशन से बहुत प्रभावित हुए और फ्री में उनका केस लड़ने को राजी हो गए। मामला कोर्ट पहुंचा। उनके मेडिकल और स्कूली दस्तावेज कोर्ट में पेश हुए। रौशन ने बड़ी बेबाकी के साथ जज साहब के सामने दलील पेश करते उन्हें यकीन दिलाया कि वह किसी आम लड़की की तरह अपने सारे काम करती हैं। कृत्रिम पैर के सहारे वह बस या ट्रेन में सफर कर सकती हैं। लिहाजा मेडिकल की पढ़ाई करने और उसके बाद मरीजों के इलाज में उन्हें कोई दिक्कत नहीं होगी। रौशन बताती हैं- जिन दिनों में कोर्ट में मेरा केस चल रहा था, मैं लोकल ट्रेन में ही सफर करके कोर्ट पहुंचती थी। जज साहब ने मेरी बातें सुनीं और मेडिकल कॉलेज को आदेश दिया कि मेरा दाखिला किया जाए। 

जज साहब ने कहा- जब यह लड़की कोर्ट में सुनवाई के लिए आ सकती है, तो कॉलेज में पढ़ाई करने क्यों नहीं जा सकती? उसे मेडिकल की पढ़ाई करने का पूरा हक है। उनके संघर्ष की कहानी पूरे महाराष्ट्र में मशहूर हो गई। कई सामाजिक संगठनों ने उन्हें सम्मानित किया। पिछले साल केईएम हॉस्पिटल ऐंड कॉलेज से एमबीबीएस करने के बाद अब वह एमडी कर रही हैं। रौशन कहती हैं- गरीबी और लाचारी का बहाना मत बनाइए। मुश्किल चाहे जितनी बड़ी हो, बस डटे रहिए। मंजिल जरूर मिलेगी।

(प्रस्तुति: मीना त्रिवेदी, सभार हिंदुस्तान)