आर.के. जैन
हमारी मानसिकता ऐसी बन गई है कि यदि किसी का बाप ग़लत था तो उसकी संतान भी ऐसी ही होगी या किसी का बाप उच्च चरित्र का था तो उसकी संतान भी ज़रूर सच्चरित्र होगी। जबकि वास्तविकता कई बार बिल्कुल विपरीत होती है। चाल चलन व चरित्र कभी वंशानुगत नहीं होता।
बिहार में लालू राज के पंद्रह साल मे क़ानून व व्यवस्था निम्नतम स्तर पर रही थी इससे कोई इंकार नहीं कर सकता पर क्या इस आधार पर यह मानना उचित होगा कि उनके पुत्र के राज में भी क़ानून व्यवस्था वैसी ही रहेगी ? मैं यह समझता हूँ कि यह एक पूर्वाग्रही मानसिकता है जिसके आधार पर वर्तमान सत्ता को बने रहने को जस्टिफ़ाई करने का क्षुद्र प्रयास है। जब वर्तमान सत्ता जन आकांक्षाओं पर खरी नहीं उतरी है और लोगो का जीवन कठिनतम होता चला जा रहा है तो ऐसी हालत में बदलाव का जोखिम लेना ही श्रेयस्कर माना जाना चाहिये । समय बदल रहा है और सत्ताधीशों को यह समझने की ज़रूरत है कि खोखले नारो, भयभीत रखने की मानसिकता से जनता ऊब चुकी है और अब धरातल पर कुछ ठोस कार्यवाही चाहने लगी है। यदि आप जनता की आकांक्षाओं पर खरे नहीं उतरते है तो आपको हटना ही पड़ेगा। यह बात सभी पर लागू होती है।
लालू राज की कमियाँ अनगिनत रही है तो कुछ खूबियों भी ज़रूर रही है वरना आज उनका कोई नामलेवा भी नहीं होता। मुझे याद आता है कि जब सीबीआई को उन्हें गिरफ़्तार करना था तो तत्कालीन बिहार सीबीआई के अधिकारी ने सेना की मदद तक कीं मांग कर डाली थी जबकि लालू यादव ने स्वयं आगे बढ़कर अपने को गिरफ़्तार कराया था और बिहार में कोई उपद्रव नहीं होने दिया था।
हम यह भी देखते आ रहे कि राजनिति में कोई दल या नेता नैतिकता के मानदंडों पर कितने पाक साफ़ है। रथ यात्रा और बाबरी मस्जिद ध्वस्त होने के उपरांत साम्प्रदायिक दंगों में कितने निर्दोषों की जाने गई और इसके ज़िम्मेदारों का हमने कितना बहिष्कार किया यह बताने की ज़रूरत नहीं है। गुजरात दंगों में कितनी जाने गई और ज़िम्मेदारों को कितनी सजा मिली यह भी सब जानते है। दिल्ली में सिखों को निर्दयता पूर्वक मारा गया था पर कितनो को सजा मिली , हम चर्चा भी नहीं करना चाहते। मैं इसे भी ग़लत नहीं मानता क्योंकि पीछे मुड़कर देखते रहने से आप आगे नहीं बढ़ सकते और भविष्य आगे बढ़ते रहने में ही है इसलिए पिछली कड़वी यादों को भूलकर आगे बढ़ने वाला समाज ही तरक़्क़ी कर सकता है।
बिहार में पिछले पंद्रह सालों से नीतिश बाबू मुख्यमंत्री है और इस लंबी अवधि में वह चाहते तो बिहार की बदहाली दूर कर सकते थे पर अफ़सोस कि आज अपनी उपलब्धियों के नाम पर वह ख़ाली हाथ है और मैं इसी कारण से चाहता हूँ कि बिहार में सत्ता परिवर्तन होना ज़रूरी है ताकि कोई नेता अपने आपको विकल्प हीन समझने की भूल न कर सके।
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं)