जिस तरह राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग मुसलमानों के उत्पीड़न पर खामोश रहता है, उसी तरह ईसाईयों पर होने वाले हमलों पर भी अल्पसंख्यक आयोग खामोश है। कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, दिल्ली, हरियाणा में ईसाई समुदाय पर हमले बढ़े हैं। बीते दो दिनों के भीतर हरियाणा और कर्नाटक में ईसाईयों पर हमला हुआ है। रोहतक में हिंदुत्तववादियों की एक भीड़ चर्च में घुस गई, इस भीड़ का आरोप था कि हर ‘रविवार’ को चर्च में ज्यादा लोग इकट्ठा होते हैं, ये ग़रीब हिंदुओं का धर्मांतरण कराते हैं।
हाल ही में कर्नाटक कर्नाटक के कोलार में हिंदुत्तववादियों ने एक चर्च पर हमला किया, किताबों को जला दिया। कर्नाटक में ईसाई समुदाय के साथ होने वाली इन घटनाओं पर कर्नाटक पुलिस ने जो रवैय्या अख्तियार किया है, उससे लगता है कि या तो पुलिस इन दंगाईयों को संरक्षण दे रही है, या फिर वह इनके आगे बेबस हो चुकी है। पुलिस बजाय दंगाईयों पर कार्रावाई करने के उल्टा ईसाई समुदाय को समझा रही है कि धर्म का प्रचार न करें, प्रार्थना स्थल में ज्यादा लोग इकट्ठा न हों वगैरा वगैरा।
दंगाईयों को दंगा करना है, धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाना बनाना है, अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ नफरत फैलानी है। दंगाई इस ‘अपराध’ को कर रहे हैं। लेकिन पुलिस का काम क्या है? कानून व्यवस्था स्थापित करना, दंगा करने वालों से सख्ती से निपटना, लेकिन पुलिस पीड़ितों को उपदेश देकर दंगाईयों को संरक्षण दे रही है। विडंबना यह है कि अल्पसंख्यकों के अधिकारों उनकी सुरक्षा, उनके उत्पीड़न के ख़िलाफ एक्शन लेने के लिये बना अल्पसंख्यक आयोग चुप्पी साधे हुए है।
अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन/सदस्य बढ़िया वेतन लेते हैं। क्या सिर्फ इसलिये कि वे धार्मिक अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न पर खामोश रहें? क्या फायदा ऐसे आयोग का? क्यों जनता का पैसा आलीशान ज़िंदगी में जीने में खर्च किया जा रहा है? जब इस आयोग को खामोश ही रहना है तो इसे वेतन देने की जरूरत ही क्या है? वैसे भी अल्पसंख्यकों के मामले में सरकार और प्रशासन का रवैय्या एक जैसा ही रहता है, तब ये आयोग ही कौनसा कल्याण कर देगा? इससे बेहतर है कि इस ‘दुकान’ पर ताला जड़ दिया जाए।