अवधेश पांडे
गांधी’ फ़िल्म एक बहुत महान फिल्म बनी बिल्कुल गांधी की ही तरह। यह फ़िल्म पूरे देश की फिल्म हो गई। गांधी की हत्या के बाद हमारे देश की हवा में अफवाह की शक्ल में उन्हें जिस तरह से कुप्रचारित किया गया इस फ़िल्म ने हिंदुस्तानी सिनेमा के पर्दे पर गांधी के वास्तविक रूप को विशाल जनता के सामने रख दिया। फिल्म ने हमारे दिलों में राष्ट्रपिता की छवि को न केवल भारत के सामने अपितु पूरे विश्व के सामने उभार दिया। गांधी को हमने देखा नहीं है क्योंकि उनकी हत्या के 18 वर्ष बाद मेरा जन्म हुआ। लेकिन मुझे बेन किंग्सले में ही गांधी की छवि दीखती है ठीक वैसे ही जैसे जवाहरलाल नेहरू की छवि रोशन सेठ में दिखती है।
1962 में लंदन से भारतीय हाई कमीशन के अधिकारी मोतीलाल कोठारी जो एक गांधीवादी थे उनके आग्रह से गांधी फ़िल्म बनने का सफर शुरू हुआ। युवा रिचर्ड एटनबरो गांधी पर फ़िल्म बनाने के लिए प. नेहरू से मिलते हैं।उनसे लंबा चौड़ा मशविरा होता है। नेहरू एटनबरो को अपने निवास के बाहर के गेट तक छोड़ने आते हैं और उनसे कहते हैं ”आप गांधीजी पर फ़िल्म बनाइये पर आप उन्हें फ़िल्म में देवता मत बनाना उन्हें इंसान के रूप में ही चित्रित करना। क्योंकि हम गांधी पर बात करते हैं तो उनमें ईश्वरीय गुणों का निवेश कर देते हैं।और कहते हैं कि उन्होंने वह हासिल किया जो हम तुच्छ प्राणी हासिल कभी नहीं कर सकते। इससे नुकसान यह होता है कि गांधी पूजा की वस्तु में तब्दील हो जाते हैं,और फिर उन पर पूरी बातचीत व्यर्थ हो जाती है।”
एटनबरो ने नेहरू के सुझाव को पूरा करने के लिए बेन किंग्सले को गांधी के रूप में चयनित किया। बेन किंग्सले के पिता भारतीय गुजराती थे लेकिन बेन ब्रिटिश थे। बेन ‘गांधी’ की शूटिंग के दौरान छह महीने अशोका होटल में रहे, वहां उनके कमरे को पूरा खाली कराया गया। वे गांधी की तरह फर्श पर सोते, गांधी की तरह ही सोकर उठते, पालती मारकर बैठना सीखते थे, शराब को छूते नहीं थे। और गांधी की तर्ज पर व्रत रखते थे। गांधी फ़िल्म के शूटिंग के सेट पर पहुंचने के लिए उनके मेकअप साढ़े तीन घंटे लगते थे। जब बेन किंग्सले पहली बार गांधी बनकर सेट पर पहुंचे थे, सारे गांव वालों ने उनके पांव छुए थे। 1982 में जब गांधी फ़िल्म पूरी हुई तो वह पूरे विश्व की फ़िल्म बन गयी। उसे 8 आस्कर मिले। एटनबरो की जिंदगी का यह सबसे बड़ा दिन था।
इस फ़िल्म में बेन किंग्सले ने कई दृश्य बहुत मार्मिक दिखाए हैं जिनमें गांधी सजीव हो उठते हैं। दक्षिण अफ्रीका में युवा गांधी अपनी पत्नी कस्तूरबा को घर से धक्का देते हुए बाहर ले जाते हैं। कहते हैं कि अगर पाखाने की बाल्टी साफ नहीं कर सकतीं तो इस घर में नहीं रहोगी। जिसे हम गंदा कहते हो और जिसे साफ करने के लिए हमने एक पूरी जाति बना रखी है। हमको उसी गंदे को खुद साफ करना होगा। रोहिणी हट्टागदी कस्तूरबा के रोल में रोती हुई कहती हैं यहां विदेश में मुझे तुम लाये हो और इस तरह बाहर धक्का दे रहे हो मैं कहाँ रहूंगी? गांधी को पछतावा होता है अपने खुद के बर्ताव के चलते लेकिन अपने सिद्धांत के चलते नहीं।
दूसरा मार्मिक दृश्य नोआखाली का है जिसमें एक हिन्दू ओमपुरी के रूप में खटिया पर आमरण अनशन पर लेटे गांधी के सामने अपनी तलवार फेंकता है और कहता है कि आप यही चाहते थे कि मैं हथियार आपके कदमों में फेंक दूं ? तो लीजिए अब मुझे इस तलवार की जरूरत नहीं । उन्होंने मेरे बच्चे का कत्ल किया मैंने एक 11 साल के मुसलमान बच्चे को दीवार पर उसका सर पटक पटक कर मार डाला। मेरा पश्चाताप पूरा हुआ। गांधी उस हत्यारे की बातें बड़े ध्यान से सुनते हैं । उनकी खटिया के एक ओर सुहरावर्दी दूसरी ओर नेहरू खड़े हुए हैं। गांधी उपवास की हालत में इशारे से ओमपुरी को बुलाते हैं और कहते हैं कि तुम्हारा पश्चाताप अभी पूरा नहीं हुआ है। तुम 11 साल के एक मुस्लिम यतीम बच्चे को गोद लो उसे मुस्लिम पद्धति से पालकर बड़ा करो यही तुम्हारा सच्चा पश्चाताप होगा।
इस फ़िल्म में रोशन सेठ ने पंडित जवाहरलाल नेहरु, सईद जाफ़री ने सरदार वल्लभभाई पटेल, वीरेंद्र राज़दान ने मौलाना आजाद व अनंग देसाई ने आचार्य कृपलानी का रोल अदा किया। इसके अतिरिक्त अलीक पदमसी ने मुहम्मद अली जिन्ना, अमरीश पुरी ने दादा अब्दुल्ला, दिलशेर सिंह ने सीमांत गांधी, ओम पुरी ने नहरी व पंकज कपूर ने महादेव देसाई का रोल अदा किया।