क्रांतिकारी ‘बिस्मिल’ थे अशफाक़ उल्लाह खान के ‘राम भैया’

अमित त्यागी 

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मरते बिस्मिल रोशन लहरी अशफाक़ अत्याचार से,  होंगे   पैदा    सैंकड़ों  उनके रुधिर की धार से। भारत के स्वाधीनता संग्राम में काकोरी कांड का एतेहासिक महत्व है। 1925 आते आते आज़ादी के समर्थन मे आवाजें देश के कोने कोने से गूंजने लगी और जैसे जैसे इसके सुर आपस मे मिलते गए, क्रांतिकारियों का जत्था एक होता चला गया। महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन की असफलता के बाद देश में हताशा का माहौल था। युवा चाहते थे कि अंग्रेजों के विरुद्ध कुछ सक्रियता दिखाई जाये। ऐसे समय में राम प्रसाद बिस्मिल ने एक क्रांतिकारी संगठन का गठन किया जिसका नाम हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संगठन रखा। गया।

चन्द्रशेखर आज़ाद, अशफाक़ उल्लाह खान, राजेंद्र लाहीड़ी, रोशन सिंह, मन्मथनाथ गुप्त, शचीन्द्र नाथ सनयाल जैसे क्रांतिकारी इसके साथ जुड़े। गांधी जी के नेतृत्व वाली कांग्रेस उस समय तक पूर्ण स्वतन्त्रता की मांग के विचार से दूर थी। इन क्रांतिकारियों ने अपने संगठन के संविधान में ‘स्वतंत्र भारत में प्रजातन्त्र की अवधारणा’ का स्पष्ट विचार प्रस्तुत करके अंग्रेजों को खुली चुनौती दे दी। अपने क्रांतिकारी कार्यों को अंजाम देने के लिए इनको धन की आवश्यकता हुयी। इस धन को एकत्रित करने के लिये इन्होने किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया। इन क्रांतिकारियों ने सत्ता को खुली चुनौती देते हुये ट्रेन में जा रहे सरकारी ख़ज़ाने को लूटने की योजना बनाई। योजनाबद्ध तरीके से 9 अगस्त 1925 को काकोरी और आलमनगर(लखनऊ) के मध्य ट्रेन को रोका गया और 10 मिनट मे ही पूरा खज़ाना लूट लिया गया।

काकोरी कांड सिर्फ खज़ाना लूटने की घटना मात्र नहीं थी। वह बड़ा दिल रखने वाले क्रांतिकारियों द्वारा अँग्रेजी सत्ता को सीधी चुनौती थी। इस दल के लोगों ने बेहद कुशलता और चपलता से अपने कार्य को अंजाम दिया। ट्रेन मे 14 व्यक्ति ऐसे थे जिनके पास हथियार मौजूद थे किन्तु न ही सवारियों और न ही हथियारबंद लोगों ने कोई प्रतिरोध किया। लूटे गए धन से दल के लोगों ने संगठन का पुराना कर्ज़ निपटा दिया। हथियारों की खरीद के लिए 1000 रुपये भेज दिये गए। बम आदि बनाने का प्रबंध कर लिया गया। इस कांड ने सरकार की नाक मे दम कर दिया। क्रांतिकारियों के हौसले पस्त करने के लिए 26 दिसम्बर 1925 की एक ठिठुरती रात में पूरे उत्तर भारत मे एक साथ संदिग्ध लोगों के घरों मे छापे मारे गए। शाहजहाँपुर, बनारस, इलाहाबाद, कानपुर आदि स्थानो से गिरफ्तारी हुई। मुकदमे चले। सजाएँ हुईं। फाँसी की सज़ा पाने वालों मे बिस्मिल, अशफाक़, रोशन और राजेन्द्र लाहीड़ी थे।

शचीन्द्र नाथ सान्याल को आजीवन काला पानी और मन्मथ नाथ गुप्त को 15 साल की सज़ा सुनाई गयी। इसके अतिरिक्त अन्यों को भी सजाएँ सुनाई गयी। बिस्मिल का सभी सम्मान करते थे और उनके जैसा ही अनुकरण भी करना चाहते थे। रोशन सिंह को अँग्रेजी कम आती थी और जैसे ही उन्हे ज्ञात हुआ कि बिस्मिल के साथ उन्हे भी फाँसी हुई है वो खुशी से उछल पड़े और चिल्लाये । “ओ जज के बच्चे, देख बिस्मिल के साथ मुझे भी फाँसी हुई है। और फिर बिस्मिल से बोले कि पंडित जी अकेले ही जाना चाहते हो, ये ठाकुर पीछा छोडने वाला नहीं है। हर जगह तुम्हारे साथ रहेगा।”

अमर शहीद अशफाक़ और बिस्मिल की दोस्ती के किस्से बड़े मशहूर हैं।  दोनों मे देशभक्ति का इतना ज़बरदस्त जज़्बा था कि उनमे आपस मे एक होड़ सी लगी रहती थी। दोनों ही बेहतरीन शायरी करते थे। एक दिन की घटना है। अशफाक आर्य समाज मन्दिर शाहजहाँपुर में बिस्मिल के पास किसी काम से गये।

बिस्मिल तो अक्सर आर्य समाज मंदिर मे जाया करते थे। अपनी ही धुन मे मगन अशफाक जिगर मुरादाबादी की एक गजल गुनगुना रहे थे जो कुछ यूं थी। कौन जाने ये तमन्ना इश्क की मंजिल में है। जो तमन्ना दिल से निकली फिर जो देखा दिल में है। बिस्मिल ने जब ये शेर सुना तो हौले से मुस्करा दिये। सकपकाए अशफाक ने पूछा। ” राम भाई! मैंने मिसरा कुछ गलत कह दिया है क्या” ? इस पर बिस्मिल ने जबाब दिया- “नहीं मेरे कृष्ण कन्हैया ! यह बात नहीं है। मैं जिगर साहब की बहुत इज्जत करता हूँ मगर उन्होंने मिर्ज़ा गालिब की पुरानी जमीन पर शेर कहकर कौन-सा बडा तीर मार लिया। कोई नयी रंगत देते तो मैं भी इरशाद कहता।” अशफाक को बिस्मिल की यह बात थोड़ी अजीब लगी और उन्होने चुनौती भरे लहजे में कहा- “तो राम भाई! अब आप ही इसमें गिरह लगाइये । मैं भी मान जाऊँगा कि आपकी सोच जिगर और मिर्ज़ा गालिब से अलग कुछ नयी तरह की है। उसी वक्त पण्डित राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ ने ये शेर कहा। सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है। देखना है जोर कितना बाजु ए कातिल में है?

और इसी शेर को गाते गाते आज़ादी के ये मतवाले हँसते हँसते फांसी के तख्ते तक झूलते हुये अपनी दोस्ती को अमर कर गए। बिस्मिल के साथ ही अशफाक़ उल्लाह खान भी एक अच्छे शायर थे। हसरत उपनाम से शायरी करने वाले अशफाक़ को आज़ादी की लड़ाई लड़ते लड़ते जो खाली समय मिलता था उसमे वो अपना शौक भी पूरा कर ही लेते थे। चूंकि उनके विचारों मे देशभक्ति और आज़ादी के जज़्बे का समावेश हो चुका था, इसलिए उनकी शायरी मे इसका प्रभाव साफ तौर पर दिखाई देने लगा था। अशफाक़ का जज़्बा कवि के इन शब्दों में झलकता है। जाऊँगा खाली हाथ मगर, यह दर्द साथ ही जायेगा ; जाने किस दिन हिन्दोस्तान, आजाद वतन कहलायेगा। बिस्मिल हिन्दू हैं कहते हैं, फिर आऊँगा-फिर आऊँगा ; ले नया जन्म ऐ भारत माँ! तुझको आजाद कराऊँगा। जी करता है मैं भी कह दूँ, पर मजहब से बँध जाता हूँ ; मैं मुसलमान हूँ पुनर्जन्म की बात नहीं कह पाता हूँ। हाँ, खुदा अगर मिल गया कहीं, अपनी झोली फैला दूँगा ; औ’जन्नत के बदले उससे, एक नया जन्म ही माँगूँगा।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार एवं अशफ़ाक़, बिस्मिल की जन्मभूमि निवासी हैं)