असग़र मेहदी
ककोरी कांड के बाद अशफ़ाक के सारे साथी पकड़ लिये गए। अशफ़ाक चौकन्ने थे पुलिस गाँव पहुँची उससे पहले निकल गए, अश्फ़ाक डॉल्टॉनगंज आ गए। वहाँ भेस बदल कर एक इंजिनीरिंग फ़र्म में नौकरी करने लगे बाक़ी साथियों से राबता टूट चुका था। लगभग एक साल तक अश्फ़ाक डॉल्टॉन गंज में रहे। शायरी का शौक़ था इसलिए हज़ारीबाग़ और प्लामु में होने वाले मशायरे में भी जाते रहे, एक साल बाद तंग आकर उन्होंने मुल्क छोड़ कर अफ़ग़ान निकलना चाहा ताकि वहाँ से कुछ हथियार मिल सके।
अश्फ़ाक इसके लिए दिल्ली गए और वहाँ इंजिनीरिंग की पढ़ाई करने के बहाने मुल्क से बाहर निकलने का इंतेज़ाम करने लगे। अश्फ़ाक वहाँ अपने स्कूल के दोस्त से मिलते हैं, अश्फ़ाक के सर पर दो हज़ार का ईनाम था उस दोस्त ने ग़द्दारी की और अश्फ़ाक पकड़े गए। बाद में ,19 दिस्मबर 1927 को फांसी पर लटका दिये गए।
आप ये जानकार हैरान हो जाएँगे की मुल्क की ख़ातिर ख़ुद को क़ुर्बान कर देने वाले अश्फ़ाक के नाम पर उनके मुल्क में कुछ भी नही है। अगर आप ग़ौर करें तो एक बात आपको सोचने पर मजबूर कर देगी की इस देश में अश्फ़ाक उल्लाह खान के नाम पर कोई शोध संस्थान नही है, शोध संस्थान छोड़ीए कोई सड़क, पार्क, पुल नदी कुछ भी नही है। यहां तक के उस बिहार मे भी कुछ नही है, जहां शहीद अशफ़ाक़उल्लाह ख़ान ने अपने जीवन के आख़री के दस माह गुज़ारे थे। क्या बिहार की राजधानी पटना मे उनकी कोई निशानी (भवन, सड़क, पार्क) मौजुद है ? नही है।