रवीश का लेख: बुलडोजर देखकर नाचने वाले एक छोटी सी पर्ची पर लिख कर पर्स में रख लें कि वे इंसान नहीं…

क्या बुलडोज़र एकतरफा भारत का नया प्रतीक है? ग़रीबों के घर पर या उनके मोहल्ले में जितनी आसानी से बुलडोज़र चल जाते हैं क्या अमीरों के मोहल्ले में चल सकते हैं? क्या दिल्ली के RWA के प्रेसिडेंट अपनी-अपनी सोसायटी में बुलडोज़र वालों को बुला सकते हैं कि आइये हमारे यहां देखिए और अतिक्रमण पर बुलडोज़र चला दीजिए? क्या उन्हें नहीं पता कि उनकी सोसायटी के भीतर किस किस ने अतिक्रमण किया है? क्या इस दिल्ली में जब लोगों ने एक मंज़िल अधिक बना ली गई तब उसे मान्यता नहीं दी गई? डबल स्टोरी का आंदोलन नहीं चला? इस दिल्ली की आधी से अधिक आबादी जो झुग्गियों, बस्तियों और अवैध कालोनियों में रहती है, क्या उसे नहीं मालूम कि उसके लिए डिमोलिशन का क्या मतलब होता है? गोदी मीडिया नाच रहा है, आपको पता रहा है कि कानून का पालन हो रहा है लेकिन आप भी जानते हैं कि क्या हो रहा है। मज़हब और राजनीति के रंग से बुलडोज़र का स्वागत करने वाले आज उन लाखों लोगों से ख़ुद को अलग कर रहे हैं जिन बस्तियों से निकल कर उनके घरों, दफ्तरों और दुकानों में काम करने आते हैं। जिनसे आपका काम चलता है उन्हीं के घर पर बुलडोज़र आतंक बन कर नाचने लगे और उसे देखकर जब आप नाचने लगे तो एक छोटी सी पर्ची पर लिख कर पर्स में रख लीजिए कि आप इंसान नहीं रहे।

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अगर प्रशांत भूषण और दुष्यंत दवे अपनी नागरिक ज़िम्मेदारी को निभाते हुए सुप्रीम कोर्ट नहीं गए होते तो जहांगीरपुरी के कितने ही मकान मिट्टी में मिल गए होते। इस शहर में अच्छे वकीलों की कमी नहीं लेकिन इन दोनों ने जहांगीरपुरी के ग़रीबों के घरों को बचाने के लिए अदालत के सामने एड़ी चोटी एक कर दी। चीफ जस्टिस ने गुरुवार की सुनवाई तक अतिक्रमण हटाने पर रोक लगा दी। उसके बाद भी अतिक्रमण का हटाना जारी रहा, इस दलील के साथ कि सुप्रीम कोर्ट का आदेश नहीं मिला है। जिस देश में सरकार इस बात पर सीना फुलाती है कि लोग डिजिटल बैंकिंग कर रहे हैं उस देश की राजधानी में चंद किलोमीटर दूर सुप्रीम कोर्ट का आदेश नहीं पहुंच सका। नतीजा तोड़फोड़ जारी रही और एक बार फिर से दुष्यतं दवे को चीफ जस्टिस के सामने गुहार लगानी पड़ी कि कोर्ट के आदेश के बाद तोड़फोड़ नहीं रोकी गई है।

दवे कहते रहे कि मीडिया में इसकी सूचना के आने के बाद भी ये लोग रुके नहीं है। यह उचित नहीं है। दुष्यंत दवे ने चीफ जस्टिस से कहा कि मुझे यह कहते हुए दुख हो रहा है कि दुनिया को पता है कि आपने रोक लगाई है लेकिन वे रूक नहीं रहे हैं। इससे ग़लत संदेश जाता है। तब चीफ जस्टिस ने सुप्रीम कोर्ट की रजिस्ट्री के अधिकारियों को आदेश दिया कि तुरंत अफसरों को आदेश की सूचना दी जाए। इसके बाद जाकर तोड़फोड़ रोकी जाती है तब तक कई हिस्सों में तोड़फोड़ की जा चुकी थी।

मध्य प्रदेश के खरगोन में इसी तरह हिंसा के बाद तुरंत अतिक्रमण बताकर बुलडोज़र चला दिया गया, इस होड़ में उनका भी मकान गिरा दिया गया जिन्होंने प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत घर बनाया था। क्या यह उसी पैटर्न का हिस्सा है, या वाकई दिल्ली में ईमानदारी से अतिक्रमण हटाने का अभियान चलने वाला है। RWA के प्रेसिडेंट खुद से अपने अपने मोहल्ले की लिस्ट सौंप देंगे, कि आइये बुलडोज़र चलाइये, अगर ये एकतरफा भारत नहीं है तो चौतरफा कार्रवाई क्यों नहीं होती है।

दिल्ली में अतिक्रमण के इतिहास को समझना होगा। विभाजन के बाद पाकिस्तान से आए शरणार्थियों के लिए कालोनी तैयार नहीं थी, बहुत से लोग वहां भी बसे जिसे आप आज की भाषा में अवैध कह सकते हैं। आपातकाल के समय से ही दिल्ली को खूबसूरत बनाने के नाम पर कथित रुप से अवैध बस्तियों को उजाड़ने का अभियान चलता रहा है। शहरी लोगों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले लोगों ने सुप्रीम में याचिकाएं दायर की। 2010 में सुदामा सिंह में दिल्ली हाई कोर्ट ने फैसला दिया कि किसी बस्ती को उजाड़ने के क्या नियम होंगे और उन्हें फिर से बसाना भी होगा।

खुद मोदी सरकार ने 2019 में 1731 अवैध कालोनियों को नियमित करने के लिए संसद में कानून पास किया ताकि इन बस्तियों के लोग अपने मकानों की रजिस्ट्री करा सकें। दावा किया जाता रहा कि यहां रहने वाले चालीस लाख लोगों को पट्टे दिए जाएंगे। तब तो केंद्रीय मंत्री ही पट्टे दे रहे थे, सरकार उसका विज्ञापन कर रही थी, तब किसी ऐंकर ने नहीं चिल्लाया कि अतिक्रमण करने वाले चालीस लाख लोगों को कैसे बसाया जाता सकता है, बुलडोज़र कहां हैं, बुलडोज़र क्यों नहीं चलाया जा रहा है? क्योंकि सरकार को पता था कि इन चालीस लाख को उजाड़ेंगे तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश के ही मुताबिक कहीं न कहीं बसाना भी पड़ेगा तो जहां रह रहे हैं वहीं बसने दिया जाए। याद कीजिए वाजपेयी सरकार के समय इसी दिल्ली में झुग्गियों को उजाड़ने का कितना भयानक अभियान चला था। घरों में काम करने वाली महिलाओं की रातों रात ज़िंदगी बदल गईं। उन्हें काम करने के लिए तीस तीस किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ गई। उनकी रोज़ी रोटी का ज़रिया बदल गया, पुराना बसा बसाया तबाह हो गया। तो इस दिल्ली में डिमोलिशन का एक क्रूर इतिहास रहा है। इसे आप केवल हिन्दू मुस्लिम नेशनल सिलेबस के हिसाब से नहीं देख सकते हैं। न ही केवल कानूनी आधार का सहारा लेकर बुलडोज़र बुलडोज़र कर सकते हैं, अवैध कालोनियों की लड़ाई दिल्ली के लोगों ने मिल कर लड़ी है तब सबको रहने की जगह मिली है,अगर यह लड़ाई धर्म के नाम पर होने लगी तो इन बस्तियों का अधिकार छीनता चला जाएगा।

दिल्ली अर्बन शेल्टर इंप्रूवमेंट बोर्ड DUSIB की वेबसाइट के अनुसार जहांगीरपुरी एक नोटिफाइड इलाका है जो दिल्ली सरकार के अधीन आता है। यहां पर मूलभूत सुविधाओं के इंतज़ाम की ज़िम्मेदारी दिल्ली सरकार की है। ऐसे इलाकों में कानूनी तौर पर फर्क करना मुश्किल होता है कि कौन सी संपत्ति कमर्शियल है और कौन सी रेज़िडेंशियल। गरीब आम लोग अपने घर में ही दुकानें लगाकर जीवन चलाते हैं। इसलिए यहां आप किसी मकान को दुकान या दुकान को मकान बताकर इतनी आसानी से नहीं तोड़ सकते। अगर आप इस इलाके को रिहाइशी मानते हैं तब फिर सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के हिसाब से फिर से किसी और जगह बसाने का इंतज़ाम भी करना होगा। गोदी मीडिया कूद फांद कर टीवी के स्क्रीन पर हंगामा पैदा करता है, हांव हांव झांव झांव के बीच में ऐसी बातें आप दर्शकों से दूर की जाती हैं ताकि आप टीवी देखने के बदले सोचना समझना बंद कर दें और हांव हांव झांव झांव करने लगे। मेयर बहुत शान से बता रहे हैं कि नोटिस जारी करने की कोई ज़रूरत नहीं थी।

तमाम तरह के नियम और कानून हैं कि समय से पहले नोटिस देने होंगे लेकिन मेयर इकबाल सिंह कहते हैं कि नोटिस देने की कोई ज़रूरत नहीं है। क्या यह एक तरफा और मनमाना भारत नहीं है? 2019 में दिल्ली हाई कोर्ट ने अजय माकन बनाम भारतीय संघ के केस में विस्तृत फैसला दिया है। जिसमें कहा है हटाने से पहले प्रभावितों को अपना पक्ष रखने का अवसर दिया जाएगा। सभी प्रभावित लोगों को नोटिस जारी करना होगा जो पर्याप्त हो और तर्कसंगत हो। यह भी बताना होगा कि कहां और कितने समय में बसाया जाएगा। ख़राब मौसम या रात के वक्त किसी को नहीं हटाया जाएगा।

जब कोर्ट ने ख़राब मौसम और रात के वक्त तक का ख्याल रखा है तब क्या त्योहार के बीच यह किया जाना चाहिए था? कोर्ट ने अपने फैसले में जीने और जीवनयापन के अधिकार का हवाला दिया है। यानी हटाने से पहले बसाने का इंतज़ाम करना होगा और सभी को पर्याप्त अवसर देने होंगे। कोर्ट को देखना चाहिए कि दिल्ली के मेयर ने इस कार्रवाई के लिए दिल्ली पुलिस से कब सुरक्षा मांगी और कितनी जल्दी सुरक्षा दे दी गई, सुरक्षा मांगने से पहले क्या नोटिस जारी किया गया था? हमने यह सवाल शहरी मामलों पर रिसर्च करने वाले गौतम भान से पूछा।

दिल्ली के रेहड़ी पटरी वालों की संस्था हाकर्स ज्वाइंट एक्शन कमेटी ने जहांगीरपुरी में बुलडोज़र ड्राइव की निंदा की है। बिना सर्वे के उन्हें बेदखल नहीं किया जा सकता। इनकी प्रेस रिलीज में जहांगीरपुरी की वार्ड काउंसल पूनम बागड़ी का बयान है कि यहां रेहड़ी पटरी वालों के सर्वे का काम पूरा नहीं हुआ है।

जहांगीरपुरी में बुलडोज़र चलने को लेकर गोदी मीडिया के ऐंकरों के ट्विट देख रहा था। उनकी खुशी समझी जा सकती है। एकतरफा भारत में ऐसी ख़ुशी कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन क्या वह दिल्ली भी ख़ुश है जिसकी आबादी का बड़ा हिस्सा ऐसे इलाकों में रहता है जहां हर सुविधा लंबे संघर्ष के बाद आती है। जिनके इलाके को आसानी से अतिक्रमण या अवैध कहा जा सकता है या कहा जाता था।

आज इस बस्ती की क्या हालत है, हमें नहीं पता लेकिन 2019 में हम दक्षिण दिल्ली की इस बस्ती में गए थे तब देखा था, तब यहां पानी का प्रेसर कम होता था इसलिए लोगों ने नाली के बराबर एक गड्ढा बनाया था, जिसमें पानी जमा करते थे फिर उससे निकाल कर खाना बनाने के काम में लाते थे। इन गलियों को दिखाने का मतलब है कि हमारे आपके लिए ये अवैध या अतिक्रमण वाली बस्तियां हैं लेकिन इन जगहों पर रहते हुए लोगों ने इस दिल्ली का निर्माण किया, इनके घरों पर अगर बुलडोज़र चल जाए और भारत का गोदी मीडिया खुश होकर नाचने लगे तब यहां रहने वाले लाखों लोगों को सोचना चाहिए कि उनके हक के लिए कौन खड़ा है। जैसे तैसे मकानों को बना कर गुज़ारा करने वाले इन लोगों कानून के नाम पर बार बार उजाड़ देने की धमकी या उजाड़ देने की सज़ा बार बार नहीं दी जा सकती है। क्या इन जगहों पर रहने वाले लोग अपनी बस्तियों में बुलडोज़र का स्वागत करेंगे, उसके आगे डांस करेंगे तो क्या वे टीवी के पत्रकारों से पूछेंगे कि जब उनकी बस्तियों पर बुलडोज़र चलने की बात होती है तो यह जश्न की बात कैसे हो सकती है, क्या ये पत्रकार उनके अधिकारों और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की बात कर रहे थे, गरीबों के हक के लिए आवाज़ उठा रहे थे, इन बस्तियों में भी गोदी मीडिया के लाखों दर्शक रहते हैं।

राहुल गांधी ने ट्विट किया है कि बुलडोज़र गरीब और अल्पसंख्यकों के अधिकार और संविधान पर हमला है लेकिन जब बुलडोज़र चल रहा था तब उस पार्टी की नेता वहां पहुंच गईं जिनकी पार्टी का इस शहर में कोई वोट नहीं है। सीपीएम नेता वृंदा करात मौके पर पहुंच गई। अधिकारियों से बात करने लगीं और लोगों का साथ देने लगी। कांग्रेस के नेता पंजाब से सवाल उठाने लगे कि भगत सिंह होते तो ज़रूर जाते, आप के नेता क्यों नहीं जा रहे हैं। कांग्रेस के नेताओं को खुद भी जाने से किसी ने नहीं रोका था, लेकिन जो लोग जिस नेता को वोट नहीं देते हैं उन्हें अपने बीच पाकर कैसा लगा होगा, यह समझने का वक्त नहीं है, राजनीति बहुत आगे जा चुकी है।

बहरहाल प्रेस में बयान आया है। बीजेपी के सांसद मनोज तिवारी ने कहा कि धर्म की आड़ में ज़मीन पर कब्ज़ा नहीं करा सकते। क्या आम आदमी पार्टी ने रोंहिग्या को नहीं बसाया है? 2014 में मोदी सरकार आई, 2015 में आप की सरकार बनती है, मनोज तिवारी को गृह मंत्री से यह सवाल करना चाहिए कि बगैर उनकी इजाजत और जानकारी के दिल्ली में  रोहिंग्या को केजरीवाल ने कैसे बसा दिया और तब उनकी किसी एजेंसी ने इस बारे में दिल्ली सरकार से कोई सवाल पूछा है?

क्या मनोज तिवारी को पता है कि सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में आदेश दिया था कि मदनपुर खादर में जहां रोहिंग्या का कैंप वहां मेडिकल की सुविधा उपलब्ध कराई जाए। एक न्यायिक मजिस्ट्रेट को नोडल अफसर बनाया था जिनका काम यह देखना है कि उन्हें किसी तरह की सुविधा से वंचित न किया जाए। तब केंद्र ने भी कहा था कि स्वास्थ्य की सुविधा देने में नागरिक औऱ रोहिंग्या किसी में फर्क नहीं किया गया है। रोहिंग्या को बीच में लाकर जहांगीरपुरी के मामले को एक दिशा में ले जाने की कोशिश हो रही है। फिर भी इससे इस सवाल का जवाब नहीं मिलता कि हिंसा के इतने दिनों के बाद तक आम आदमी पार्टी के नेता जहांगीरपुरी क्यों नहीं गए।

अतिक्रमण एक राजनीतिक मामला है। अदालतों के फैसले में भी इस राजनीति की झलक मिलती है। इसकी राजनीति केवल दलों के हिसाब से मत देखिए। अमीरों के हिसाब से भी देखिए। दिल्ली के अखबारों में पुरानी रिपोर्ट को देखिए। दक्षिण दिल्ली के सैनिक फार्म को भी अतिक्रमण माना गया। कितना लंबा केस चला।

गुरुग्राम के खोरी गांव का मामला तो ताज़ा है। लोगों ने ज़मीन बेच कर मकान खरीदे। बाद में पता चला कि वहां मकान नहीं बन सकता है क्योंकि जंगल का इलाक़ा है। पिछले साल जून में सुप्रीम कोर्ट ने जंगलात घोषित किया तो यहां डिमोलिशन होने लगा। 5000 से अधिक घरों को तोड़ा जाने लगा। इन लोगों के लिए कोई न्यूज़ ऐंकर आगे नहीं आया था बल्कि शहरी अधिकारों के लिए लड़ने वाले लोग ही आगे आए और वापस सुप्रीम कोर्ट के पास ही गए कि हज़ारों लोग बेघर हो जाएंगे तब जाकर सुप्रीम कोर्ट ने नियम तय किया कि जिनके घर उजाड़े जा रहे हैं उन्हें बसाया भी जाएगा। जब वोट लेना होगा तो इन्हीं लोगों को बसा कर।

जो लोग अतिक्रमण को लेकर कानून-कानून कर रहे हैं उन्हें दिल्ली में अतिक्रमण के इतिहास को ठीक से देखना चाहिए। शहरी मामलों पर रिसर्च करने वाले गौतम भान का कहना है कि दिल्ली की बसावट ही इस तरह से होती है कि एक दुकान, एक रेहड़ी, एक घर, एक बस्ती का कानूनी होना और किफायती होना दोनों एक ही समय पर मुश्किल है। ये बात मेहनत मज़दूरी करने वाले जानते हैं और सरकार भी जानती है।

इसलिए हमेशा अतिक्रमण का शब्द न इस्तेमाल करके अलग अलग तरीके से बसावट को इस तरीके से देखा है कि जो वो अतिक्रमण हुआ है वो क्यों हुआ और वो किस हालात में हुआ। और उस अतिक्रमण के बिना क्या हमारे शहर चल भी पाते, आज यही सवाल हमने पूछा है कि अगर आप देखें तो अतिक्रमण का जो शब्द है वो सिर्फ बस्तियों और कार्यशालाओं और दुकानों सड़क की साइड की रेहड़ियों पर नहीं उठता। हाल ही में 1650 अवैध कॉलोनियों का नियमितिकरण किया गया, अंग्रेजी में कहते हैं कि Regularise किया, अवैध कालोनी जो कि एक एक तरीके का अतिक्रमण है वहां अतिक्रमण शब्द का इस्तेमाल नहीं हुआ होता है, वह नियमितिकरण होता है, विस्तापन और डिमोलिशन की बात नहीं होती है। अब अतिक्रमण का इस तरीके इस्तेमाल किया जाता है वो न कानूनी है न तकनीकि, राजनीतिक तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है अगर एक ही जगह अतिक्रमण को देखा जाए और इसको नोटिस किया जाए और उस पर कारर्वाई की जाए तो हमें यह सवाल ज़रूर पूछना पड़ेगा यहीं पर क्यों, आज ही क्यों आप कहां कानून के सिद्धांत का पालन करते हैं यह बहुत ज़रूरी हो जाता है।

मुमकिन है आप अतिक्रमण की राजनीति को समझ पा रहे होंगे, किस शहर में काम करने वाले लोग बदतर हालात में नहीं रहते, उन पर अतिक्रमण के नाम पर जिस तरह से हमला होता है अगर उसी तरह से मिडिल क्लास के घरों और अमीरों की कॉलोनियों में होने लगे, ऐसा तो आप कभी नहीं चाहेंगे यह तो बिल्कुल नहीं कि जिन लोगों ने बिना अनुमति के यात्रा निकाली, देसी कट्टे और तलवार लहराए उन्हें पकड़ कर उनके घरों को तो नहीं तोड़ा जा रहा है, बल्कि उनके घरों को भी नहीं तोड़ा जाना चाहिए। लेकिन क्या सबके लिए एक समान पैमाना अपनाया जा रहा है या किसी एक के लिए कानून की अलग व्याख्या हो रही है, जिस बुलडोज़र का स्वागत हो रहा है कानून के एक नए चेहरे के रूप में उसी बुलडोज़र का इस्तेमाल अवैध रूप से नदियों से रेत और किनारे से मिट्टी निकालने में किया जाता है।

(लेखक जाने माने पत्रकार हैं, यह लेख एनडीटीवी की वेबसाइट पर उनके ब्लॉग से लिया गया है)