राजस्थान में आज सरकारी कर्मचारियों ने पुरानी पेंशन की बहाली को लेकर प्रदर्शन किया। मुझे जो तस्वीरें मिली हैं उसमें काफी भीड़ है। कर्मचारी पुरानी पेंशन की मांग वाली टोपी पहनकर नज़र आ रहे हैं। टोपी पर NMOPS,National Movement For Old Pention Scheme लिखा है। दावा किया जा रहा है कि इस आंदोलन से सत्तर लाख सरकारी कर्मचारी जुड़े हैं। इस तरह के प्रदर्शन की तस्वीरें यूपी से भी आती रहती हैं।
पुरानी पेंशन की बहाली सरकारी कर्मचारियों के प्रदर्शन से ही लागू नहीं होने वाली है। कर्मचारियों के बीच पेंशन आखिरी मुद्दा होगा। जाति और सांप्रदायिकता के आधार पर बंटे ये कर्मचारी किसी भी दल के लिए ख़तरा नहीं हैं। रिश्वत के कारण उनकी छवि ख़राब है। इन वजहों से उनके आंदोलन में नैतिकता नहीं आ सकती है। चुनाव के समय प्रदर्शन करने से अख़बार में तस्वीर छप जाती है। सरकार को ज्ञापन मिल जाता है। उसके बाद सरकार नौकरियों की संख्या और घटा देती है। कुछ समय पहले तक ज्यादातर कर्मचारी क्या कर रहे थे? व्हाट्स एप पर आने वाले उन मैसेजों को फैला रहे थे जिनसे धर्मांधता फैलती है। वे धर्म और धर्मांधता के बीच के फर्क को भूल गए हैं। इस लेख को पढ़कर सब यही कहेंगे कि हम नहीं करते तो फिर इस देश में धर्मांधता की राजनीति को समर्थन कहां से मिल रहा है।
धर्म इस कदर हावी हो चुका है कि राजनीति में अर्थनीति को जगह नहीं मिलने वाली है। इसके लिए राजनीति को व्यापक रुप से बदलना होगा। केवल अपनी ही नहीं, दूसरों की भी पक्की नौकरी और सामाजिक सुरक्षा की मांग करनी होगी। वर्ना ऐसे प्रदर्शन होते रहेंगे।सरकारी कर्मचारियों को पूरी तरह बदलना होगा। राजनीति और अर्थनीति को लेकर गंभीर पढ़ाई करनी होगी। यह खेल समझना होगा कि कैसे कॉरपोरेट का चुनावी राजनीति पर कब्ज़ा हो चुका है। चुनाव का गणित टेक्नालजी के ज़रिए बदल चुका है। एक मुद्दे तक सीमित रखकर सरकारी कर्मचारी पेंशन की पुरानी व्यवस्था को लागू नहीं करा सकते हैं।
इस तरह की मांग कम्युनिस्ट पार्टी किया करती थी। उनका दबाव दूसरे बड़े दलों पर होता था लेकिन सरकारी कर्मचारियों ने धर्म की राजनीति के नाम पर हर मज़बूत धारा ख़त्म कर दी। अब उनके साथ कोई नहीं है और मज़बूत नेता को फ़र्क़ नहीं पड़ता। सरकारी कर्मचारी साल भर अनशन करते रहेंगे तो भी मज़बूत नेता पेंशन का नाम नहीं लेने वाले हैं। मज़बूत नेता यूपी में भाषण दे रहे हैं। पूरे भाषण में किसान आंदोलन का ज़िक्र नहीं है। नौकरी और महंगाई का ज़िक्र नहीं है। तब भी उनके ही जीतने की बात हो रही है।
धर्म और जाति के आधार पर राजनीतिक निष्ठा रखने वाले सरकारी कर्मचारी खुद को धोखे में न रखें। इसकी सज़ा को सबको मिलेगी। बराबर मिलेगी।सज़ा नहीं चाहिए तो खुद की राजनीतिक चेतना को बदलिए। सांप्रदायिक सोच से मुक्ति पानी होगी। धर्म की राजनीति के नाम से कान पकड़ना होगा। ख़ुद से और सामने वाले से माफ़ी माँगनी होगी। ये शुरुआत के लिए बता रहा हूँ। चेतना को बदलना आसान नहीं होगा।
बाकी आप ज्यादा समझदार हैं। मैं इतना समझ रहा हूं कि आपको इतनी आसानी से सफलता नहीं मिलेगी। चेक कर लीजिए आपके व्हाट्स एप में किसी मुसलमान से नफरत करने वाला मैसेज आ गया होगा या मंदिर को लेकर गर्व से लहराता झंडे का फोटो आया होगा। आप वोट उस पर देने वाले हैं न कि पुरानी पेंशन को लागू करने के आधार पर।
(लेखक जाने माने पत्रकार हैं, यह लेख उनके फेसबुक पेज से लिया गया है)