भारत में मीडिया समाप्त हो चुका है। ऐसी बाढ़ आई है कि अब टापू भी नहीं बचे हैं। हम सभी किसी ईंट पर तो किसी पेड़ पर खड़े कर आख़िरी लड़ाई लड़ते नज़र आते हैं। कभी भी ईंट और पेड़ बाढ़ में बह सकता है। मीडिया विहीन इस लोकतंत्र में उन पत्रकारों के लिए आजीविका का भी है जो मामूली वेतन पर भी पत्रकारिता करना चाहते हैं। ऐसे पत्रकारों पर आपदा का प्रकोप आने वाला है। ऐसे ही पत्रकारिता की चाह रखने वाले पत्रकार अवसाद से घिरते जा रहे हैं। वे हर दिन अपने आस-पास भांडों को चहकते देखते हैं। प्रोपेगैंडा करने का एक सबसे बड़ा फ़ायदा यह है कि सैलरी तो पूरी मिलती है मगर काम बहुत कम करना पड़ता है।
किसी भी पत्रकार का अच्छा ख़ासा समय इस बात में जाता है कि आज वह क्या ख़बर करे, वह ख़बर खोजने में काफ़ी मेहनत करता है, लेकिन प्रोपेगैंडा काल में इस झंझट से मुक्ति मिल जाती है। जिस तरह से चैनलों में एक ही तरह का मुद्दा, उसी का कवरेज और एक ही तरह के वक्ता और इतिहासकार बुलाए जा रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि कोई अदृश्य ताक़त है जो हर दिन सारे न्यूज़ रूप को ख़बर दे रहा है। ख़बर के नाम पर काम कर रहा है। इसलिए जो दलाल बन जाएगा वो चैन से रहेगा, जो पत्रकार बन जाएगा, उसे नींद नहीं आएगी।
आप दर्शक अब कुछ नहीं कर सकते। इस हालात को बदलने में आप दर्शक कुछ नहीं कर सकते हैं। फिर भी, मीडिया में ख़बरों को कैसे खड़ा किया जाता है, उसे समझने का प्रयास तो कर ही सकते हैं। आपकी आलोचनाओं से हर मीडिया और हर ऐंकर सामान्य हो चुका है। ऐसी आलोचनाएँ भी इतनी हो चुकी हैं, वे नार्मल हो गए हैं। आलोचनाओं के बाद भी पहले से ज़्यादा ख़राब काम कर रहे हैं। इसी ख़राब पत्रकारिता को करोड़ों दर्शक हर दिन पत्रकारिता समझ कर देखते हैं। पढ़ते हैं। हम क्या कर सकते हैं।